जीवन कर्मभूमि है और इस पर कर्म सभी करते हैं - फिर चाहे वे धर्म और नीति संगत हों या फिर असंगत। सब अपने घर परिवार के लिए ही कमाते हैं भले ही उनका तरीका कोई भी हो लेकिन वह तरीका इस रूप में फलित होगा ये अगर इंसान जान ले तो फिर गलत रस्ते पर चलने की सोचे ही नहीं।
हमारे परिवार से जुड़ा एक परिवार , आज से नहीं बल्कि हमारे ससुर जी के ज़माने से - मुखिया उम्र में बहुत बड़े हैं लेकिन कुछ ऐसा है कि हम उन्हें बड़े भाई की तरह मानते हैं और उनके बच्चे हमें भाई तरह। जीवन तो उन्होंने गाँव से निकल कर एक स्कूल टीचर की तरह शुरू किया और ख़त्म भी किया लेकिन बीच में जो रास्ते दूसरी और मुड़ गए तो फिर पलट कर नहीं देखा। वे भाग्यवश एक हाउसिंग सोसायटी के सचिव बन बैठे और फिर वारे न्यारे होने दीजिये। करोड़ों की कमाई तीन बेटे अच्छी शिक्षा का प्रयास किया लेकिन कोई कुछ कर नहीं नहीं पाया जरूरत भी नहीं थी। करोड़ों की कमाई आखिर थी किसके लिए ? हर एक का ये प्रयास की पिताजी हमें ज्यादा दें। खैर सबके खर्चे वह उठाते रहे और बेटे दलाली में फंसे कारनामे करते रहे। फिर भी घर में आने वाले किसी भी रिश्तेदार को उस कोठी में रहने की जगह तो दूर एक कप चाय भी नसीब नहीं थी। बेचारे सड़क से ढाबे से चाय माँगा कर पिलाते और खाने के लिए होटल ले जाते।
सारे भाई इस बात में उसको ज्यादा देते हो , एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगते रहते और इसके बाद भी खाना उन लोगों को कौन दे? या फिर एक माँ को दे और दूसरा उनको दे , जबकि सबकी घर गृहस्थी का इंतजाम वह ही करते थे . उनका ये सफर उस समय ठिठक गया जब एक दिन कहीं जाते वक़्त उनको ब्रेन हैमरेज हो गया और वह भी किसी नर्सिंग होम के करीब। खैर पैसे की कमी न थी या फिर कर्मों के कुछ फल देखने बाकि रहे होंगे - चार महीने कोमा में रहने के बाद भी वह बच गए और घर आ गए। पिछले तीन साल से बिस्तर पर हैं। पैसे ख़त्म होते चले जा रहे हैं फिर भी कहते हैं न कि मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है। पत्नी और एक नौकर के सहारे गुजर रहे थे दिन - इसी बीच एक बेटा अचानक कैंसर के शिकार हुआ और चल बसा। पत्नी के लिए तो सदमा सहन करने के काबिल न था और फिर पति की हालत से चिंतित रहती। वह आधी स्मरण शक्ति खो चुके हैं लेकिन फिर भी बेटों की चिंता रहती है।
फिर अचानक एक दिन पत्नी बेहोश हो गयीं और उनकी चेकअप हुआ तो पता चला कि उनको ब्रेन ट्यूमर है। उनका ऑपरेशन किया गया वह कैंसर बन चूका था। कल जब उनको देखने हॉस्पिटल गयी तो उनके पास किराए की एक नर्स थी और दूसरी रात में रहती है। बेटा दिन में एक दो बार आ जाता है। बताते चले की उनके परिवार में उनकी ही कमाई से पलने वाले दो बेटे बहुएं , एक युवा पोता , पोती हैं लेकिन माँ के लिए किसी के पास वक़्त नहीं है। किराए की नर्सों के सहारे अपने दिन पूरे कर रही हैं। अब इस समय में पति घर में नौकर के सहारे और पत्नी अस्पताल में दूसरों के सहारे।करोड़ों रुपये कमाए , एक प्लाट दो दो लोगों को बेच कर जालसाजी की। सब कुछ ख़त्म हो रहा है। हाँ इतना जरूर है कि बेटों के लिए इतना कमा कर रख दिया कि वे जीवन ऐसे ही गुजार सकते हैं। उनके हिस्से में क्या आया ? अपने बेटे भी तो नहीं आये।
यही तो कहा जाएगा -- 'जो औरों की खातिर जिए मर मिटे पूछती हूँ उन्हें क्या मिला ?'
हमारे परिवार से जुड़ा एक परिवार , आज से नहीं बल्कि हमारे ससुर जी के ज़माने से - मुखिया उम्र में बहुत बड़े हैं लेकिन कुछ ऐसा है कि हम उन्हें बड़े भाई की तरह मानते हैं और उनके बच्चे हमें भाई तरह। जीवन तो उन्होंने गाँव से निकल कर एक स्कूल टीचर की तरह शुरू किया और ख़त्म भी किया लेकिन बीच में जो रास्ते दूसरी और मुड़ गए तो फिर पलट कर नहीं देखा। वे भाग्यवश एक हाउसिंग सोसायटी के सचिव बन बैठे और फिर वारे न्यारे होने दीजिये। करोड़ों की कमाई तीन बेटे अच्छी शिक्षा का प्रयास किया लेकिन कोई कुछ कर नहीं नहीं पाया जरूरत भी नहीं थी। करोड़ों की कमाई आखिर थी किसके लिए ? हर एक का ये प्रयास की पिताजी हमें ज्यादा दें। खैर सबके खर्चे वह उठाते रहे और बेटे दलाली में फंसे कारनामे करते रहे। फिर भी घर में आने वाले किसी भी रिश्तेदार को उस कोठी में रहने की जगह तो दूर एक कप चाय भी नसीब नहीं थी। बेचारे सड़क से ढाबे से चाय माँगा कर पिलाते और खाने के लिए होटल ले जाते।
सारे भाई इस बात में उसको ज्यादा देते हो , एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगते रहते और इसके बाद भी खाना उन लोगों को कौन दे? या फिर एक माँ को दे और दूसरा उनको दे , जबकि सबकी घर गृहस्थी का इंतजाम वह ही करते थे . उनका ये सफर उस समय ठिठक गया जब एक दिन कहीं जाते वक़्त उनको ब्रेन हैमरेज हो गया और वह भी किसी नर्सिंग होम के करीब। खैर पैसे की कमी न थी या फिर कर्मों के कुछ फल देखने बाकि रहे होंगे - चार महीने कोमा में रहने के बाद भी वह बच गए और घर आ गए। पिछले तीन साल से बिस्तर पर हैं। पैसे ख़त्म होते चले जा रहे हैं फिर भी कहते हैं न कि मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है। पत्नी और एक नौकर के सहारे गुजर रहे थे दिन - इसी बीच एक बेटा अचानक कैंसर के शिकार हुआ और चल बसा। पत्नी के लिए तो सदमा सहन करने के काबिल न था और फिर पति की हालत से चिंतित रहती। वह आधी स्मरण शक्ति खो चुके हैं लेकिन फिर भी बेटों की चिंता रहती है।
फिर अचानक एक दिन पत्नी बेहोश हो गयीं और उनकी चेकअप हुआ तो पता चला कि उनको ब्रेन ट्यूमर है। उनका ऑपरेशन किया गया वह कैंसर बन चूका था। कल जब उनको देखने हॉस्पिटल गयी तो उनके पास किराए की एक नर्स थी और दूसरी रात में रहती है। बेटा दिन में एक दो बार आ जाता है। बताते चले की उनके परिवार में उनकी ही कमाई से पलने वाले दो बेटे बहुएं , एक युवा पोता , पोती हैं लेकिन माँ के लिए किसी के पास वक़्त नहीं है। किराए की नर्सों के सहारे अपने दिन पूरे कर रही हैं। अब इस समय में पति घर में नौकर के सहारे और पत्नी अस्पताल में दूसरों के सहारे।करोड़ों रुपये कमाए , एक प्लाट दो दो लोगों को बेच कर जालसाजी की। सब कुछ ख़त्म हो रहा है। हाँ इतना जरूर है कि बेटों के लिए इतना कमा कर रख दिया कि वे जीवन ऐसे ही गुजार सकते हैं। उनके हिस्से में क्या आया ? अपने बेटे भी तो नहीं आये।
यही तो कहा जाएगा -- 'जो औरों की खातिर जिए मर मिटे पूछती हूँ उन्हें क्या मिला ?'
5 टिप्पणियां:
ब्लॉग बुलेटिन आज की बुलेटिन, ईश्वर करता क्या है - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
कर्मों का लेखा जोखा ।
दुखद !
मार्मिक कथा! स्वार्थपरक जीवन अब ऐसी ही विडम्बनाओं से चहू-ओर ग्रसित है.
सब और स्वार्थ का ही बोलबाला है ...
मार्मिक कथा ...
एक टिप्पणी भेजें