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शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

33 वर्ष का सफर !

          26  जनवरी 1980 यही वह दिन था जब की देश में गणतंत्र दिवस मन रहे थे सब और मेरे जीवन में एक संविधान की भूमिका ख़त्म होकर दूसरे संविधान की भूमिका रची गयी थी .          
                                                              


                 कब और कैसे 33 साल गुजर गए पता ही नहीं चला , दिन और रात गुजरते रहे , हम सुबह शाम दौड़ते रहे जिन्दगी के रास्तों पर और कंटकाकीर्ण रास्तों पर भी चलते रहे क्योंकि हमारी जिन्दगी कभी भी अपने लिए जीने वाली रही ही नहीं .शायद सुनने में कोई विश्वास न करे लेकिन ये सच है कि  हम इन 33 सालों  में से 31 साल तक ( इसलिए क्योंकि 2 साल पहले हमारी सासु माँ के निधन तक ) तो हम कहीं भी परिवार के साथ घूमने तक नहीं जा पाए . आश्चर्य लग रहा होगा लेकिन सच यही है। शादी के समय बाबू जी के पैर में डिसलोकेशन हो गया था , इसलिए कोई सवाल नहीं उठता था और अम्मा तो 8 साल पहले से दुर्घटना का शिकार होने के कारण सामान्य थी हीं  नहीं।
                  हम जीवन में कभी भी घूमने गए ही नहीं , हाँ हमारी सीमायें इतनी सीमित थी की अगर अपने परिवार में किसी समारोह में शामिल होना हुआ तो मैं दो दिन पहले और ये उसी दिन और दूसरे दिन वापस . उनकी अम्मा को लगता था कि  अगर उनका बेटा उनके पास रहेगा तो उन्हें कोई भी तक्लीफ होती है तो वे सुरक्षित रहेंगी . लोग परिवार के साथ हिल स्टेशन , तीर्थ स्थान और पर्यटन स्थल घूमने जाते हैं लेकिन ऐसा मेरी जिन्दगी में कुछ भी नहीं हुआ। लेकिन मुझे कोई शिकायत भी नहीं रही  क्योंकि मेरी दुनियां घर , नौकरी और परिजनों तक ही सीमित रही।
                  मैं तो फिर भी अपने ऑफिसियल मीटिंग्स एक लिए बहुत जगह गयी लेकिन घर में इनको रहना होता था . वही होटल में रहते हुए कई बार ये बात मन को लग जाती थी कि  काश मैं बच्चों और इनके साथ यहाँ आई होती और इतना सारा घूमते तो कितना अच्छा होता लेकिन फिर थोड़ी देर बाद सब ख़त्म क्योंकि अम्मा को यह नहीं बताया जाता था कि  रेखा कोलकाता  त्रिवेंद्रम या फिर नॉएडा गयी हैं क्योंकि उन्हें बहुत डर  लगता था सो उनसे कह दिया जाता था कि  ऑफिस के काम से लखनऊ गयी है। अब दो साल से वे भी नहीं रहीं लेकिन अब जिन्दगी उसी ढर्रे से जीने की आदी  हो चुकी है और मैं भी। अब कोई शिकायत नहीं क्योंकि अब पीछे देखकर अफसोस करने का समय ही नहीं रहा और बस अतीत पर एक नजर डाल  कर सबके साथ बांटने का मन करता है तो उसे उठा कर बाँट लेती हूँ .
                       अब जब  की शादी करके दामाद जी भी आ चुके हैं तो विश करने पर कहेंगे 'पापाजी आज क्या प्रोग्राम है?' तो हंसी आती है . हाँ अब छोटी बेटी जरूर इस दिन आ जाती है या फिर हम लोगों को दिल्ली बुलाती है  और फिर जो उन्हें करना होता है बच्चे कर डालते हैं . हम तो अब चीफ गेस्ट बन चुके हैं। सच कहूं विश्वास ही नहीं होता है कि जिन्दगी के इतने वर्ष हम साथ गुजर चुके  हैं। अभी कल की ही बात  लगती है।

बुधवार, 2 जनवरी 2013

अम्मा को गए हुए दो साल ....!

                   



                        2 जनवरी 2011 का   सर्द दिन जब अम्मा  हमें छोड़ कर चली  थी . अम्मा सिर्फ हमारी अम्मा नहीं थी बल्कि आस पास हमलोगों के मिलने वाले सभी लोग उनके "भैया" थे ( अपने बेटों को यही कहा करती थी ) . सबके लिए अपार  स्नेह उनके दिल में था . अधिकतर लोग यहाँ पर डिफेन्स की फैक्ट्री में काम करने वाले सुबह जल्दी जाना  शाम को आना . हाँ इतवार को वे जाकर जरूर मिलने जाती . आज भैया घर पर होंगे।                     
             कितना शौक था उनको बनाने और खिलाने  का,  80 साल की उम्र में भी जब कि  वे अपने एक्सीडेंट के कारण  जमीन में तो बैठ ही नहीं सकती थी . अपने बिस्तर के सामने एक मेज रखवा ली थी , किसी पर निर्भरता नहीं चाहिए थी . चाहे उन्हें मेवे का हलुवा  बनाना हो या फिर अचार . उन्हें मिक्सी की पीसी न चटनी पसंद थी न ही कोई और चीज . सारे  मेवे खुद भिगो कर सिल बट्टे पर पीसती , गैस उसी मेज पर रखनी होती अपने हाथ से खूब भून भून कर मेवे तैयार करके हलुवा तैयार करती और वह ख़राब होने  वाला नहीं होता था . अपने पास डिब्बे में भर कर रखती और सुबह  जेठ जी के फैक्ट्री निकलने से पहले कटोरी मंगवाती उसमें हलुवा निकल कर देती - 'ये बड़े भैया को दे देना, चाय के साथ खा लेंगे " और जब पतिदेव के नाश्ते का समय होता तो दूसरी कटोरी लेती और इनके लिए देती - 'ये छोटे भैया के लिए ."  ऐसा नहीं कि  वे हम लोगों के नहीं देती लेकिन मानी  हुई बात है कि  अपने  बेटों को सुबह शाम चाय के साथ जरूर देती .                                  
      'इतनी मेहनत करते हैं ,तुम  लोगों से तो कुछ होगा नहीं मैं बना देती हूँ तो खिला लो। फिर मेरे बाद कौन खिलायेगा ? " शायद वह सच ही कहती थीं क्योंकि अब न तो उनके बेटे शुगर के कारण  इतना मीठा नहीं खा सकते और न ही अब हममें में इतनी दम है कि  उनकी तरह से घंटों भिगो कर और पीस कर छुहारा, बादाम , काजू , किशमिश  , गोंद और मूंगफली को घंटों बैठ कर भूने फिर उसको चाशनी में पकाएं  . सिर्फ अपने बेटों को ही नहीं बल्कि घर में जो आ गया उसको भी वह हलुवा जरूर  खा कर जाता और आज जब वह नहीं है तब भी सभी लोग जब भी आते हैं माताजी की याद जरूर करते हैं और उनके प्रेम और खिलाने पिलाने के शौक को भी जरूर याद  करते हैं।                                                                                                                             
                       अम्मा नहीं है लेकिन उनकी बातें और उनकी अहमियत हम सबके लिए उतनी है आज सुबह इतनी व्यस्तता के बाद भी प्रियंका का फ़ोन आता है --" मम्मी आज दादी की पुण्यतिथि है आप कुछ करेंगी न  ? जाकर मंदिर में गरीबो को समोसे  बाँट आना क्योंकि दादी को समोसे बहुत पसंद थे और वे खुद भी कोई भी आता था तो यही मांगने के लिए पैसे देती थीं। "                                                                                                                  
                          अम्मा का प्यार और दूसरों की सेवा का भाव हमारी सबसे बड़ी अमानत है और हो सका तो हम इसको कायम रखेंगे यही उनका हमारे लिए सबसे बड़ा आशीर्वाद होगा।  हमारा आज के दिन  उनको शत शत नमन !