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गुरुवार, 5 नवंबर 2015

सिर्फ एक बच्चा !

                            जीवन में एक बच्चे का होना बहुत जरूरी है लेकिन अगर इसके  हम पीछे झांक कर देखें तो सिर्फ एक बच्चे का होना और न होना किसी की जिंदगी को बदल कर रख देता है।  ये हमारी अपरिपक्वता की निशानी ही कही जायेगी। जीवन में सिर्फ बच्चों के लिए रिश्तों की सारी  मर्यादा और गाम्भीर्य को हम कैसे नकार सकते हैं? वैसे तो हम पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने के लिए बिना सोचे समझे लग जाते हैं चाहे हम उसके पीछे की पृष्ठभूमि से अवगत हों या न हों लेकिन जहाँ हम अपने दकियानूसी विचारधारा के चलते इतना गंभीर फैसला कैसे ले सकता है ? 
                               कुछ दिन पहले की बात है वो मेरी परिचित की बेटी है।  उसको शादी के कई साल तक बच्चे नहीं हुए तो सब तरह की दवा और दुआ की गयी और तब भी सफलता न मिली तो बच्चे को गोद लेने की बात सोची।  यहाँ तक तो हम उनके व्यवहार को उचित दृष्टि से देख सकते हैं लेकिन गोद मिलना और न मिलने में उस लड़की का कोई अपराध तो नहीं है, फिर उनको पहली पसंद के अनुसार लड़का ही चाहिए था और न हो तो बहुत मजबूरी में लड़की भी ली जा सकती है।  ये उनकी प्राथमिकताएं थी।  उन्हें एक बच्ची की गोद देने वाले के विषय में ज्ञात हुआ और उससे संपर्क किया गया और वह महिला ६ लाख में बच्ची गोद देने के लिए राजी हो गयी लेकिन उसके परिवार को जैसे ही पता चला कि ये लोग बच्चे के लिए बहुत उत्सुक है तो उन लोगों ने अपनी मांग १२ लाख कर दी।  ६ लाख तक तो गोद लेने वाला परिवार तैयार था लेकिन १२ लाख की मांग पूरी करना शायद उनके वश की बात न थी तो उन्होंने मना कर दिया लेकिन सबसे बुरा उन्होंने ये किया कि उन्होंने अपनी बहू को मायके भेज दिया हमेशा के लिए।
                 मुझे जब ये ज्ञात हुए तो बहुत ही कष्ट हुआ लेकिन उन लोगों की सोच पर भी बहुत क्रोध आ रहा है कि क्या बच्चे न होने के बाद जीवन की इति है अगर नहीं तो कोई कैसे १२ साल तक किसी को घर में बहू और पत्नी के साथ रहने के बाद इस तरह से त्याग सकता है। हम किसी मुद्दों पर अभी भी इतने ही पिछड़े हुए हैं ? अगर नहीं तो उस लड़की का भविष्य क्या है ? नौकरी वह नहीं करती है और आत्मनिर्भर भी नहीं है।  घर में रखने को तैयार नहीं , उससे पहले भी उसको इतना प्रताड़ित किया जा चूका है कि वह खामोश हो चुकी है।  वह किसी से बोलने , मिलने या कहीं भी जाने में कोई रूचि नहीं रखती है। धीरे धीरे वह अवसाद की स्थिति में जा रही है। 
                                  उसकी काउंसलिंग करना भी आसान नहीं है क्योंकि वह किसी से भी मिलना ही नहीं चाहती है।  मैं तो समझती हूँ कि  काउंसलिंग की  जरूरत उस लड़की को नहीं बल्कि उसके पतिऔर घर   वालों को है। हम प्रगतिशील होने का दावा तो करते हैं लेकिन अगर ऊपरी आवरण उतार कर देखें तो हम आज भी सदियों पुराने मिथकों को अपने जीवन में गहराई से जड़ें जमाये हुए पाते हैं।  
                          

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

अजय ब्रह्मात्मज :जन्मदिन का तोहफा !

                   अजय की इच्छा है कि इस जन्मदिन पर कुछ अलग तरह से उनको जन्मदिन की शुभकामनाएं मिलें और उसको संचित कर रखा जा सके लेकिन यह जिन पलों को मैं यहाँ अंकित करने जा रही हूँ वह सिर्फ अजय के लिए नहीं मेरे लिए भी बहुत ही आत्मिक और अभिभूत  करने वाले पल थे. 
                          सबसे पहले मैं बता दूँ कि मेरा और अजय का रिश्ता जब बना था तो हम दोनों उस दौर से गुजर रहे थे जब पत्र ही संपर्क के साधन थे।  मीनाकुमारी के निधन पर एक फिल्मी पत्रिका "माधुरी" में मेरा संवेदना पत्र प्रकाशित हुआ और वहां से पता लेकर अजय ने मुझे पत्र लिखा था और फिर ये भाई बहन का रिश्ता बना और उस समय जब कि वह किशोर था तब भी उसमें फिल्मी दुनियां में रूचि थी और आज नहीं याद है कि  मैंने उसे कैसे और क्या समझाया होगा ? फिर भी मेरे उन और उस उम्र के सुझावों को कितना महत्व अजय देते  है ये मेरे लिए गर्व की नहीं बल्कि बहुत अधिक अभिभूत करने वाली बात है। अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अपनी एक पहचान रखने वाला इंसान कितना सहज और शालीन है ये मैं बताती हूँ। 
                           मैं जून २०१३ में उनकी बेटी विधा सौम्या की शादी के अवसर पर मुंबई गयी थी।  उससे पहले शादी में आने के लिए अजय और विभा के असीम आग्रह को मैं ठुकरा तो नहीं सकती थी। मुझे जो सम्मान  और प्यार विभा और अजय से मिला वह अवर्णनीय है। जब मैं स्टेशन पर उतरी तो मुझे रिसीव करने अजय खुद आये थे।  जिसकी बेटी की शादी हो और वह खुद मुझे लेने आया हो समझने वाली बात है और ये बात बाद में मुझसे रश्मि रविजा ने कही भी। 
 
                          शादी में तो आने वाले मुंबई से थे या फिर अजय या विभा के रिश्तेदार और घर वाले थे। मैं सबसे अलग थी बस रश्मि रविजा से मेरी मित्रता थी। उससे भी मेरी वहाँ मुलाकात पहली थी। 
                               शादी के दूसरे दिन की बात है नाश्ते के समय सिर्फ सारे घर वाले रह गए थे जो आपस में परिचित थे और मैं सबसे अलग थी।  उनमें से कुछ लोगों ने सवाल किया कि ये (मैं) किस की तरफ से हैं , (क्योंकि पहले मुझे किसी ने देखा नहीं था) , यानि कि विभा की तरफ से या फिर अजय की तरफ से ? इस प्रश्न ने मुझे  असहज कर दिया था क्योंकि हमारे समाज में  रिश्तों की यही  परिभाषा है और  उसको मैं कहीं भी पूरा नहीं कर रही थी कि तभी तुरंत अजय बोले  -- 'मैं बताता हूँ सही अर्थों में ये मेरी प्रेरणा स्रोत हैं।  जब मैं बसंतपुर (अजय का घर )  पढता था।  उस समय अजय नवीं  कक्षा में थे।  तब मेरा परिचय दीदी से हुआ था और उन्होंने ही मुझे दिशा दिखाई थी जिस पर मैं आज चल रहा हूँ।'  
                              उस क्षण मुझे लगा कि रिश्ते बनाये और निभाए इस तरीके से जाते हैं। मेरी छोटी बेटी की शादी में जब विभा कीमो थेरेपी के दौर  गुजर रही थी , मैंने  अजय को मना किया था कि विभा को इस समय तुम्हारी ज्यादा जरूरत है , तब भी अजय कानपुर शादी में शामिल हुए थे , जितने घंटों की सफर करके आये थे उतने घंटे रुकना भी नहीं हुआ लेकिन मुझे कितना अच्छा लगा ये मैं व्यक्त नहीं कर सकती।  


       अजय मुझसे छोटे हैं लेकिन मैं उसकी बहुत इज्जत करती हूँ।
                      

बुधवार, 6 मई 2015

बोध कथा का असर !

                    मेरी काम वाली छुट्टी पर गयी तो एक दूसरी को अपनी जगह काम करने के लिए रखवा गयी। वह उसकी कोई रिश्तेदार थी. एक दिन सुबह आकर वह मुझसे बोली - 'दीदी आपके सामने वाले बड़े अच्छे बाबूजी है , मैं रोज गाय को सब्जी के छिलके और रोटी खिलाते हुए देखती हूँ.'
                   उसकी बात सुनकर मैं चुप  रह गयी क्योंकि मैं यहाँ पिछले २५ साल से रह रही हूँ और उस परिवार से हमारे औपचारिक सम्बन्ध भी हैं. लेकिन जिसके बारे में वो बात कर रही थी उनको मैं बहुत अच्छे से जानती हूँ. उनके माता-पिता से भी मैं मिली थी (दोनों ही नहीं रहे ).मैं किसी की आलोचना तो नहीं करती हूँ लेकिन आस पास रहने से उनके घर की आवाजें मेरे कमरे तक साफ साफ सुनाई देती थीं। माता पिता को एक स्टोर रूम जैसे कमरे में रखा हुआ था। वहीँ पर खाना पीना और रहना। सबके खाने के बाद खाना दिया जाता था क्योंकि खाना बनाते ही सबसे पहले पति और बच्चों को देती फिर बाद में उन बुजुर्गों को। ऐसा नहीं कि वे उन पर आश्रित हों , वे पेंशन पाते थे और उनकी बहूरानी उनसे खाने पीने के लिए बाकायदे पैसे लेती रही हैं। 
           एक बार मैं उनके यहाँ मौजूद थी शाम का समय था अचानक बिजली चली गयी , उनके कमरे में इन्वर्टर से रौशनी और पंखा चलता रहा लेकिन सामने उनके कमरे में अँधेरा हो चूका था। वे उठ कर चल नहीं सकती थीं। अधिकतर उनके कमरे का सामने का दरवाजा बंद करके ही रखा जाता था, पिछला दरवाजा, जो आँगन की और खुलता था, खुला रखा जाता था । माँ ने कमरे से चिल्लाना शुरू कर दिया -`अरे मोमबत्ती ही जला दो. ' 
'क्यों चिल्ला रही हो ? अभी आ जायेगी , कौन सी पढाई करनी है ?' उनकी पत्नी वहीँ से बैठे बैठे तेज आवाज में बोलीं. 
           मेरी समझ आ गया था कि  माताजी के कमरे में इन्वर्टर का कनेक्शन नहीं है। समय के साथ माताजी भी गुजर गयीं. वह खुद केंद्रीय सेवा में थे रिटायर हो गए। अब बहुत पूजापाठ करने लगे हैं। इधर एक दिन अख़बार में एक बोध कथा प्रकाशित हुई. जिसमे बताया गया था कि  कैसे एक पापी को नरक से स्वर्ग भेज दिया गया था क्योंकि लाख पापों के बाद भी वह नियमित गाय को रोटी दिया करता था। उसके बाद से वह यदा कदा गाय को सब्जी के छिलके या फिर रोटी आदि खिलाते हुए नजर आ जाते थे। 
                        लेकिन मैंने उससे कुछ नहीं कहा क्योंकि बोध कथा का असर तो हुआ लेकिन यही पहले हो जाता तो माता पिता की दुर्दशा न होती।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

शॉर्ट - कट ! ( लघु कथा)

                             ये कहानी कुछ समय पुरानी है , लेकिन सच है और पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि साल में एक बार पितृ पक्ष में इसको जरूर पब्लिश करूँ।

पंडित जी श्राद्ध करवा रहे थे कि जजमान के बड़े भाई का नौकर आया और बोला,  "पंडित जी, साहब बुलाये है।"
"आवत हैं, जा  श्राद्ध तो पूरा करवाय दें।"
पंडित जी आश्चर्य में ! ‘आज तक तो कभी बड़े भाई ने कथा वार्ता भी नहीं करी, आज अचानक कौन सो काम आय गयो!’ 
पंडित जी तो इनके पिताजी के ज़माने से पूजा पाठ करवा रहे हैं सो सब जानते हैं। छोटे भाई और बड़े भाई दोनों विरोधाभासी है। एक सरकारी मुलाजिम - गाड़ी बंगले वाला और अमीर घराने की पत्नी वाला।  दूसरा अपने काम धंधे वाला - साधारण रहन सहन , पढ़ी लिखी पत्नी लेकिन बड़े घर की नहीं। सास ससुर के साथ ही रही और उनका बुढ़ापा संवार दिया।  दोनों में कोई मेल नहीं!
पंडित जी पहुंचे तो साहब ऑफिस के लिए तैयार।
"क्या पंडित जी, अब आये हैं आप मुझे तो ऑफिस कि जल्दी है।"
"श्राद्ध छोड़ कर तो आ नईं  सकत ते , खाना छोड़ कें  आय गए।"
"मैं भी श्राद्ध करवाना चाहता हूँ, बतलाइए कि क्या करना होगा?"
"जजमान श्राद्ध करवाओ नहीं जात, खुदई करने पड़त है। फिर जा साल तो हो नहीं सकत काये कि आजई तुम्हारे पिताजी के तिथि हती। माताजी की नवमी को होत है।"
"कोई ऐसा रास्ता नहीं कि सब की एक साथ ही हो जाए।"
"हाँ, अमावस है , वामें सबई पुरखा शामिल होत हैं।"
"उसी दिन सबकी करवा लूँगा एक साथ।"
"लेकिन व तो उनके लाने होत है , जिन्हें अपने पुरखन के तिथि न मालूम होय।"
"अरे एक ही दिन में निबटा दीजिये, ऑफिस वाले टोकने लगे हैं कि साहब आपके घर में श्राद्ध नहीं होता है। कुछ तो दिखाने के लिए भी करना पड़ता है। वैसे मैं इन सब चीजों को नहीं मानता।"
"पुरखन  में १५ दिन पानी दओ जात है , तब श्राद्ध होत है।"
"आप शॉर्ट कट बतलाइये, इतना समय मेरे पास  नहीं रहता है।"
"शॉर्ट कट ये का होत है?"
"देखिये मैं छोटे की तरह से सालों अम्मा बाबू को नहीं झेल सकता था इसी लिए उनको छोटे ने रखा। इतना मेरे पास समय नहीं है और न मेरी पत्नी के पास। इस लिए सिर्फ श्राद्ध करवाना है, वह भी इस लिए कि ऑफिस वालों का चक्कर है, थोड़ा बुरा लगता है कोई टोकता है तो।"
"सही है जजमान तुम तो वई काम कर रहे हौ जो बड़े जन कह गए --
                     जियत न दीनो कौरा , मरें  उठाये चौरा”।
"इसका मतलब?"
"कछु नईं जजमान, अब अगले साल करिओ तौ सबरे पितर प्रसन्न हो जैहें।"
"इसी को शॉर्ट कट कह रहा था, कि पितर भी खुश और काम भी जल्दी हो जाये. "
               अच्छा पंडित जी अब चलता हूँ. अगले साल बुलवा लूँगा.

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

फर्ज बेटे का !

           जीवन में बेटे अपना फर्ज निभाते है और अपने माता-पिता या फिर अपने पालने वाले की देखभाल करते हैं और हमारे सामाजिक मूल्यों के अंतर्गत यही न्यायसंगत माना जाता है. लेकिन बदलते हुए परिवेश और सामाजिक वातावरण में बेटे इस कार्य को न भी करें तो कोई अचरज की बात नहीं समझी जाती है. माता-पिता अगर सक्षम है तो अपने आप और नहीं हैं तो मेहनत करके अपना जीवनयापन कर ही लेते हैं। 

                                 हो सकता कि इस बात पर कोई विश्वास न करे लेकिन ये यथार्थ है - कानपुर में किसी किसी इलाकों में बंदरों का बड़ा आतंक है ऐसे ही इलाके में यहाँ का रीजेंसी अस्पताल है। यहाँ पर एक लंगूर का मालिक सुबह एक लम्बी रस्सी के साथ अपने लंगूर को बाँध जाता है और उसके डर से बंदरों का आतंक नहीं मचता। अस्पताल उसके मालिक को ८ हजार रुपये मासिक अदा करता है। अगर उस मालिक का कोई बेटा होता तो शायद इस फर्ज को नहीं भी निभाता लेकिन एक बेजुबान कैसे अपने मालिक का जीवनयापन का साधन बना हुआ है। 
                             कहते हैं कि कुछ कर्ज ऐसे होते हैं कि जिन्हें लेने के बाद इस जन्म न सही अगले जन्मों में चुकाना पड़ता है और शायद यही बात इस लंगूर पर लागू होती है।