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गुरुवार, 28 जून 2012

क्या चाहता है समाज ?

                    इस समाज का यह स्वरूप आज नहीं बना है बल्कि सदियों से बना हुआ है , उसे नारी सदैव बेचारी के रूप में ही देख कर खुश होने की आदत पड़  चुकी है। उसका मन कैसे रोता है?  कुर्बान होने पर ये दर्द किसी को नहीं दिखाई देता है? वह उसके उस रूप को देख कर वाह वाह करने में उन्हें मजा आता है। 
                    पिछले दिनों में विश्वविद्यालय गयी ( बताती चलूँ कि मेरी शादी के समय हमारा परिवार विश्वविद्यालय परिसर में ही रहता था।)   मेरी मुलाकात मिसेज यादव से हो गयी . पके हुए बाल हलके रंग की साड़ी  में वे घर से ऑफिस आ रही थी। मैं ठिठक गई क्योंकि वे मुझे शायद न पहचान पाती क्योंकि हम दोनों की शादी सिर्फ कुछ ही महीने के अंतर से हुई थी। मेरे घर के सामने वाले ब्लाक में यादव जी रहते थे जिनकी पत्नी का निधन कुछ साल पहले हो चुका  था और उनके एक बेटा था। अपनी शादी के कुछ दिनों बाद सुना कि  यादव जी की शादी हो रही है और वह मंदिर में शादी करके आये घर में उन्होंने सत्यनारायण की कथा रखी . मैं नयी बहू थी सो जाने का कोई सवाल ही नहीं था। उनसे परिचय का एक अवसर था वह भी चला गया। नयी बहू का अपने जैसी बहू से परिचय का शौक जो होता है। 
                 सिर्फ 6 महीने बाद  यादव जी का  निधन हो गया। पूरे परिसर में कितनी तेजी से अफवाहें और चर्चाएँ  फैलने लगीं --
--कैसी अभागन आई है आते ही पति को खा गयी। 
--अब ये यहाँ टिकने वाली नहीं , सब लेकर चलती बनेगी ।
--यादव जी के बेटे का क्या होगा ? 
--इसका बाप बहुत चालू है ,  कुछ न कुछ तो चाल  चलेगा ही। 
--अरे विश्वविद्यालय की नौकरी नहीं छोड़ने वाला , खुद ले लेगा। 
--पढ़ी लिखी है क्या पता यही  नौकरी करने लगे? 
                   कुछ दिनों के बाद विश्वविद्यालय में उसको नौकरी दे दी गयी। वह अपने सौतेले बेटे के साथ वही रहने लगी और साथ में उनके पिता भी क्योंकि यादव जी के बेटे को टी बी की बीमारी थी और उसको देखभाल की जरूरत थी। उसने उस बेटे की देखभाल अपने बच्चे की तरह की क्योंकि उसके आगे इस बेटे के सिवा कोई और विकल्प था ही  नहीं।  उसके बाद मैं तीन साल तक उस परिसर में रही और वो भी उसी मकान  में रही . मेरी उनसे मिलने की इच्छा थी लेकिन पता नहीं क्यों? कौन सा पूर्वाग्रह था कि वहां की औरतों ने मुझे उससे मिलने नहीं दिया . उनका कहना था कि  किसी नवविवाहिता को ऐसी विधवा स्त्री से नहीं मिलाना चाहिए . मैं खिड़की से उसको ऑफिस जाते  हुए देखा करती थी और मुझे उनके साथ बहुत ही सहानुभूति थी।
               इतने साल बाद उन्हें उसी विधवा के वेश में देखा तो लगा कि  ये समाज कितना निष्ठुर है? उस बेचारी ने देखा क्या था?  किस पाप का दंड उसने भोगा ? न वैवाहिक जीवन का सुख , न परिवार का सुख और न दुनियादारी। इतने साल बाद परिसर के लोगों में से अधिकतर रिटायर्ड होकर जा चुके हैं लेकिन जब मिल जाते हैं तो जिक्र होने पर उनकी प्रशंसा करते हैं। 
            ये प्रशंसा किस बात की - इस बात की कि  उसने अपना पूरा जीवन एक विधवा का जीवन जीते हुए गुजार  दिया. हंसने  और बोलने तक पर पहरे लगे रहे क्योंकि ऑफिस का जीवन भी ऐसी औरतों के लिए आसान  नहीं होता है। फिर वह उस समय विश्वविद्यालय का माहौल जहाँ सिर्फ औरतें ही नहीं बल्कि पुरुष भी प्रपंच किया करते थे। करते तो आज भी हैं लेकिन उस समय के लोगों की सोच कुछ और ही होती थी। मिसेज यादव का जीवन इस समाज और सोच की बलि चढ़ ही गया । 


शनिवार, 9 जून 2012

परदेश की कमाई !

                       परदेश में कमा  रहे हैं - हमारे पास में एक ब्राह्मण  परिवार रहता है . उस परिवार का मुखिया जब नहीं रहा तो उसके चार बच्चे थे छोटे छोटे - माँ अनपढ़ आमदनी का कोई सहारा नहीं क्योंकि गाँव में खेती के बल पर बिगड़े नवाब थे . हर दिल दुखी था  कि  इस कच्ची उम्र की महिला का क्या होगा ? वह क्या करेगी ? धीरे धीरे जैसे ही बच्चे बड़े हुए किसी को हलवाई की दुकान में लगा दिया और किसी को टेम्पो में लगा दिया और रोटी चलने लगी। फिर एक एक करके वे शहर से बाहर निकल गए। सब बाहर  कमाने चले गए। जब 4-6 महीने में आते पैसा भी लाते  और माँ - बहन के लिए कपडे और सामान लेकर आते। कुल मिलकर माँ खुश सब बेटे कमाने लगे और वह भी छोटी उम्र में। आजकल पड़े लिखों को तो नौकरी मिलती नहीं है और मेरे बेटे तो इतना कमाते हैं कि अपना खर्च चला लेते हैं और घर भेजते रहते हैं।   खुद कुछ भी खाकर गुजरा कर लेते हैं और घर के लिए कमी नहीं होने देते हैं।
                             पिछले दिनों दिल्ली जाना हुआ वैसे तो अगर ऑफिस के काम से जाती  तो कोई बात नहीं पहले से  वाहन  मिल जाता है लेकिन  ये मेरी व्यक्तिगत यात्रा थी और स्टेशन से पास ही विष्णु दिगंबर मार्ग तक बेटी के हॉस्टल जाना था। मैने सोचा कि  सुबह का सुहाना मौसम है तो रिक्शा से चला जाय , दिल्ली के दर्शन ऑटो में तो हो नहीं पते हैं। सर्र  से निकल गए। रिक्शा चला जा रहा था और सड़क के किनारे कहीं पार्क के बाहर  अपने रिक्शे को ही बेड बनायें , पीछे हुड का तकिया, सीट का गद्दा और  चालक सीट पर पैर फैलाये गहरी नीद में सो रहे थे . कुछ रात  भर सवारी ढोने  के बाद  तड़के 3 या 4 बजे आ कर सोये हैं। एक पार्क के किनारे से गुजरते हुए मेरे रिक्शा वाले ने आवाज दी - 'ओए गोपाल उठ अभी सफाई वाला आएगा तो डंडा चलाएगा।'
वह गोपाल आँखे मलते हुए उठा तो मेरी नजर उस पर पड़  गयी ये तो मेरे मोहल्ले वाला गोपाल है तिवारिन  का बेटा ।   मुझे देखते ही वह उठ कर दूसरी और मुड़  गया। जैसे मैं उसको बचपन से देख रही थी वैसे ही वह भी देख रहा था। रिक्शा वाला रिक्शा खड़ा  करके  पानी पीने  चला गया तो गोपाल मेरे पास आया - 'आंटी वहां किसी को मत बतलाइयेगा  कि  मैं यहाँ पर रिक्शा चलाता  हूँ , अभी बहन की शादी करनी है न उसी के लिए हम सब पैसा इकठ्ठा कर रहे हैं। अगर वहां पता चल गया कि  हम रिक्शा चलाते  हैं तो कोई अच्छा लड़का नहीं मिलेगा। उसको हम इसी लिए पढ़ा रहे हैं कि वह खुश रहे और अच्छे घर में चली जाय। '
                     एक कम पढ़े लिखे बच्चे से ऐसे सुनकर मन खुश हो गया क्योंकि आज के पढ़े लिखे बच्चे अपने घर और परिवार की कितनी जिम्मेदारी को समझते हैं और कितना औरों के लिए सोचते हैं ? उस की बात ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि  यही बाहर   रहकर इतनी मेहनत  करके औरों की तरह से अपनी कमाई  शराब और जुए में नहीं उड़ा  रहा है। बाकी  भाई भी उसके कहीं न कहीं कमा  ही रहे हैं . यही तो कमाई  सच्ची  कमाई और  सार्थक कमाई  है। उससे भी सच्ची और सार्थक है उसकी सोच की हम कुछ न कर सके लेकिन बहन का भविष्य तो हम बना ही सकते हैं।