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शनिवार, 31 मार्च 2012

पैसा नहीं दिल चाहिए !

कल एक प्रोग्राम देखा प्रोग्राम न कहें उसे एक समाचार के रूप में यथार्थ को दर्शा रहे थे। वैसे हर इंसान इस दुनियाँ में कुछ बन कर आता है और कुछ बन कर जाता है लेकिन उसके भावनाएं और संस्कार कब कैसे बदल जाते हें? ये हम सोच नहीं पाते हें।
किस्सा एक फिल्मी दुनियाँ के एक्स्ट्रा कलाकार का है । जो कम से कम एक हजार फिल्मों में काम करने के बाद आज लखनऊ में भीख मांग कर अपना गुजारा कर रहा है। सुरेन्द्र खरे नाम के इस इंसान ने जीवन में खुद शादी नहीं की। परिवार में बहने और भाई है (भाई रेलवे में एकाउंट ऑफिसर है) । लेकिन रिश्ते अब कोई मतलब नहीं रखते हें। ऐसा नहीं कि इस इंसान ने जीवन में बहुत कमाया और सारा का सारा दूसरों की सहायता में खर्च किया और अपने लिए सोचा था कि सारी दुनियाँ के काम आ रहा हूँ तो मुझसे कौन मुँह मोड़ेगा? इस दिन की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। साथ ही बताती चलूँ कि इस इंसान ने मदर इण्डिया , मुगले आजम, यहूदी की बेटी और पाकीजा जैसी हिट फिल्मों में काम किया था।
इस किस्से को एक दूसरे घटना से जोड़ना चाहती हूँ। मेरी काम करने वाली जिसकी उम्र ६० साल से काम नहीं होगी ने कहलाया कि वह आगे १५ नहीं आ पायेगी क्योंकि उसके जेठ जी का निधन हो गया है। वह विधवा औरत ६ बेटों की माँ है और अपने खर्च के लिए खुद काम करती है साथ ही एक बहू के न रहने के कारण उसकी बेटी को रखती है और अपने बेटों के द्वारा घर से निकाले गए जेठ को भी रखती थी।
उसके पास सिर्फ एक कमरा है बाकी बेटों में ले रखा है। उसके बाहर चबूतरे पर उसने एक हाथ ठेला लगा कर और बाहर से तिरपाल डाल कर जेठ को लिटा रखा था क्योंकि अब वह चलने फिरने में भी असमर्थ था। उसने जेठ के निधन पर उनके बेटों को खबर भेजी तो उन लोगों ने कहला दिया कि जब उनकी अर्थी उठे तो हमारे घर हो कर ही ले जाना हम भी साथ हो लेंगे। अपने पिता को उन्होंने यह कह कर घर से निकाल दिया था कि जीवन भर खाया उड़ाया है हमारे रहने के लिए जगह भी नहीं की। चाचा अपने बेटों के लिए रहने की जगह तो कर गए। फिर पिता भीख मांगने लगे और इसको पता चला तो वह अपने घर ले आई कि मेरे पास चलो आखिर अगर आपका भाई होता तो इस तरह तो भीख न माँगने देता। मैं जो भी कमाती हूँ उससे पेट तो भर ही सकती हूँ।
कई जगह काम करती है और घर जाकर चाहे खुद खाना न खाए लेकिन जेठ के लिए कुछ बना कर जरूर दे आती और दूसरे घरों में निकल जाती। कभी किसी भी घर से उसने कभी खाने को नहीं माँगा और न खाती है। अपनी कमाई का ही खाती है।
जेठ की अंतिम क्रिया से लेकर उसकी त्रयोदशी तक के सारे काम उसने किया । जेठ के बेटों ने श्मशान जाने तक की जहमत नहीं उठाई क्योंकि उनके घर से शव ले ही नहीं जाया गया। भतीजों ने स्पष्ट मना कर दिया कि अब जब वे अंतिम समय में हमारे घर में रहे तो काम भी हम ही कर देंगे। यद्यपि उसके बेटे भी बहुत समर्थ नहीं है कोई कबाड़ का काम करता है कोई कहीं फैक्ट्री में काम करता है और कोई फेरी लगता है। लेकिन माँ के इस कदम को उन्होंने इतना सहारा दिया कि अगर उसने रखा तो शेष काम हम कर ही लेंगे।
कहाँ तो आफिसर होकर अपने भाई को भीख माँगते हुए देख कर भी आत्मा कांपी नहीं । हो सकता है कि टीवी पर आने के बाद कुछ शर्म आये लेकिन किसी को क्या पता कि ये हें कौन।
दूसरे घर घर काम करने वाली ने अपने पति के भाई गर्त से निकल कर अपनी सामर्थ्य के अनुसार रखा खिलाया पिलाया और उसके अंतिम काम भी कर डाले। यहाँ खून के रिश्ते काम नहीं आते बल्कि संवेदनाएं होनी चाहिए जो आज अपनों में ही क्या अपने अंशों में भी ख़त्म होती चली जा रही हें।

शनिवार, 24 मार्च 2012

बदलते लोग !

आज डॉ मोनिका शर्मा का लेख पढ़ा तो उससे निकल कर एक घटना मेरे जेहन में उभरने लगी - जिसने मुझे उस परिवार से दूर कर दिया

मेरी शादी जब हुए तो मेरा परिवार कानपुर विश्वविद्यालय परिसर में रहता थावहाँ की डिस्पेंसरी मेरे ससुर जी चलाते थेउस समय कालोनी बहुत बड़ी थीएक रजिस्ट्रार का परिवार का था - उनके परिवार में बेटियाँ और बेटा थाउनकी बड़ी बेटी मेरी हमउम्र थी सो मेरी अच्छी दोस्त बन गयीमैं बहू थी सो वह मेरे पास जाती थीहमारे बीच अच्छी अंतरंगता थी और बाद में वह मेरे पति को राखी बांधने लगी और उससे ये सम्बन्ध आज भी जारी है
उसकी शादी हो गयी और हमने विश्वविद्यालय छोड़ दिया लेकिन सम्बन्ध ख़त्म नहीं हुए थेउनकी चौथी नंबर की बेटी जहाँ मैं प्रिंसिपल थी उसी स्कूल में पढ़ाने लगी थी लेकिन उससे हमारे सम्बन्ध बड़ी बहन के अनुसार ही थेमेरी बेटी का मुंडन था और मैं इसका निमंत्रण देने के लिए उनके घर गयी तो घर में उनकी दूसरे नंबर की बेटी मिलीअब उनकी दो बेटियों की शादी हो चुकी थी और बाकी नौकरी करने लगी थींस्थिति में बहुत फर्क गया थावह मुझे देखते ही बोली 'कहिये भाभी कोई काम है क्या?'
मुझे सुनकर बहुत बुरा लगामैंने कहा कि नहीं ऐसा कुछ नहीं मीनू से मिलने आई थी कि सोनू का मुंडन है
'अच्छा मैं तो समझी कि यूनिवर्सिटी का कोई काम होगा यहाँ कोई बिना काम के तो आता नहीं है। '
मुझे सुनकर बड़ा आश्चर्य लगा कि ये लड़कियाँ जब इन्हें कॉलेज जाना होता था तो मेरे पति के घर से निकलने के समय पहले से जाती - 'भाई साहब के साथ निकल जाऊँगी।'
उनको तो शहर जाना ही होता था सो साथ ले जाते और कॉलेज छोड़ देते थेये वही लड़की है जो संबंधों को अब सिर्फ अपने पापा और अपनी हैसियत से तौलने लगी थीअपने पद पर रहते हुए उनके पिता ने अपने बच्चों को विश्वविद्यालय या डिग्री कॉलेज में लगा दिया और देखते देखते ही वे बहुत पैसे वाले हो गए

सोमवार, 12 मार्च 2012

पूत न भये सपूत !

                  इसे मजाक न समझिएगा , एक यथार्थ है ऐसा जिसे अपनी आँखों से देख रही हूँ और हमारे समाज की दकियानूसीपन के मुँह पर एक करारा तमाचा भी। हमारे समाज में एक पुत्र होने पर वंश का नाम चलता रहेगा ये अवधारणा आज भी पूरे जोर शोर से बाकी है। फिर हमसे एक पिछली पीढ़ी भी इससे कहीं अधिक सोचती रही है कि वंश का नाम न डूब जाए भले ही वंशज कहीं और जाकर रहें और यहाँ कोई नाम लेवा न रहे।
मेरी एक सहेजी जो उरई में मेरे साथ १९६९ में ग्यारहवीं तक ही पढ़ी
फिर उसके बाद उसके पापा का ट्रान्सफर इटावा हो गया और वह चली गयी। उस समय उसके पापा कोर्ट में किसी अच्छी पोस्ट पर थे। हमारे बीच १९७२ तक ही संपर्क रहा और उसके बाद उसकी शादी जल्दी कर दी गयी और हम अलग हो गए कोई खोज खबर नहीं रही। जब वह उरई से गयी थी उसके दो भाई और दो बहन थी। पिता कई भाई थे सो उन्हें दो बेटों में संतोष न हुआ और उसकी शादी के बाद उनके घर में दो बेटे और दो बेटियाँ और हुईं। अपने रिटायरमेंट के बाद तक उन्होंने बेटों की इच्छा पूरी की। चार सपूत हुए। लेकिन सपूत तो क्या कोई पूत भी न निकल पाया।
              कुछ इत्तेफाक ऐसा था कि जब मेरी सहेली का उसका बेटा पढ़ लिख कर इंजीनियर बन गया तो उसने मेरे बारे में बताया और कहा कि नेट पर खोजो शायद कहीं मिल जाए और इत्तेफाक से वाकई मैं उसको मिल गयी और फिर मेल के जरिये ३३ साल बाद हम एक दूसरे की खबर ले सके और फिर मिल भी सके क्योंकि उसकी मम्मी कानपुर में ही रहती थीं।
           जब उससे मुलाकात हुई तो पता चला कि हमारे अलग होने के बाद उसके पापा ने और परिवार बढाया था कि उसका नाम दूर दूर चलता रहेगा। लेकिन अफसोस उनके चारों बेटों में कोई इतना भी नहीं पढ़ा कि वे कहीं नौकरी कर लेते। माँ जीवित थीं तो उनको पेंशन मिलती थी और एक बहन तलाकशुदा थी जो सबके लिए खाना बनाया करती थी और माँ की सेवा करती थी। बेटे अपने जेब खर्च भर के लिए इधर उधर करके कुछ कमा लेते थे लेकिन रोटियां तो माँ को ही खिलानी पड़ती हें।
फिर एक साल के अन्दर उसकी माँ का स्वर्गवास होगया और बहन तो जैसे उनके लिए ही जी रही थी। माँ के १५ दिन बाद बहन चल बसी। घर में कोई रोटी बनाने वाला न था। चार बेटे उनकी किसी की भी शादी न हुई थी। सिर छुपाने के लिए घर माँ के नाम था सो सब रह भर सकते थे। पिता परिवार तो बढ़ाते रहे कि वंश चलता रहे लेकिन उन वंश चलाने वालों के लिए कुछ भी न सोचा कि इनका भविष्य न बनाया तो क्या होगा? बेटियाँ तो उन्होंने अपने जीवन में ही ब्याह दी थी , उसमें से भी एक का तलाक हो गया था।
                  एक दिन   उसका फ़ोन आया कि उसके चाचा का निधन हो गया है और वह नागपुर से सीधे मेरे पास ही आएगी उसके बाद वह उनके घर जायेगी। आने पर उसने बताया कि अब घर में कोई इतना भी नहीं है कि जाकर वहाँ इंसान बैठ कर नाश्ता करके निकल जाए। अब ऐसे भाइयों के बारे में मैंने सोचना छोड़ दिया क्योंकि ये नाकारा लोगों को कौन अपनी बेटी देगा और किस मुँह से किसी को बताऊँ कि मेरे भाई से अपनी बेटी की शादी कर दीजिये। वे करते कुछ ही नहीं है। बस अपने अपने पेट भरने का इंतजाम भर किसी तरह से कर लेते हें।
बस यही कहते बनता है कि चिराग तले अँधेरा ऐसे ही होता है कि पिता ने तो चार बेटे पैदा किये कि वंश का नाम चलेगा और बेटों ने नाम जीते जी डुबो दिया।