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शुक्रवार, 17 जून 2022

घड़ी की सुइयों पर दौड़ती जिंदगी ! (संस्मरण)

 घड़ी पर दौड़ती जिंदगी!


                  अभी तो जिंदगी बाबूजी को लेकर दौड़ी थी लेकिन धीरे धीरे कैंसर अंदर पैर पसारने लगा था और उनको उर्सला अस्पताल में एडमिट कराया गया , बताते चलें वह वहीं से फार्मासिस्ट के पद से रिटायर्ड थे। परिचित डॉक्टर, दायरा कुछ तो सुविधाजनक बन रहा था।

              हम दो ही दौड़ने वाले थे। जेठजी रक्षा मंत्रालय की फैक्ट्री में कार्यरत थे, इसलिए वे अपने कार्य के प्रति ईमानदार रहे। 

बाबूजी के पास पतिदेव रहते थे और मैं सुबह सात बजे घर से निकलती, आठ बजे तक अस्पताल पहुँचती और इन्हें छोड़ देती कि ये इस बीच इन्हें अपने मित्र के यहाँ जाकर नित्य क्रिया और नाश्ता करके दस बजे तक आना होता और मुझे ऑफिस की बस ठीक दस बजे पकड़ कर आइआइटी पहुँचना होता । दिन में जो समय मिलता काम करती और फिर छुट्टी से पहले ही चार बजे की बस पकड़ कर अस्पताल पहुँच जाती और इन्हें अपना काम करने का समय मिलता। 

          छः बजे हमें निर्देश था कि हम दोनों इनके मित्र डॉ. तिवारी के यहाँ चाय नाश्ता करेंगे और तब घर जायेंगे। मैं घर के लिए रवाना हो जाती और ये बाबूजी के पास। वही एक घंटे वाहन बदलते हुए घर आती। घर के काम, खाना, कपड़े और बर्तन आदि, इंतजार में होते और सब निबटाते हुए रात को दस बज जाता, फिर इसी तरह से घड़ी की सुइयों पर नया दिन शुरू होता। 

           कब दिन शुरू होता और कब खत्म पता ही नहीं चलता , मशीन की तरह जिंदगी चलती रही करीब दस दिनों तक और फिर बाबूजी बोले कि मैं अब बच्चों के साथ ही रहना चाहता हूँ । हम उनको लेकर घर आ गये।

गुरुवार, 16 जून 2022

वो दिन भी क्या थे! (संस्मरण)


वो दिन भी क्या थे!

                               जिंदगी  एक इम्तिहान है और किसी  की जिंदगी तो पूरी की पूरी इस इम्तिहान को देती ही रहती है और कुछ की नज़र में हम पास होते हैं और कुछ की नज़र में कभी पास होते ही नहीं है। जो दिखावा कर ही नहीं पाते हैं और समर्पित होकर भी फेल का तमगा लगाए घूमते रहते हैं। 

                               बात 1990 की है, हम इंदिरा नगर की कॉलोनी छोड़ कर इस नए बसे इलाके में अपने बनाये हुए घर में 11 सदस्यों के साथ आ गए थे।  जहाँ न सहायिका मिलनी थी और न ही कोई यातायात का साधन था कि हम आईआईटी के लिए उससे  जा सकें।  तब पतिदेव का टूरिंग जॉब था ।  करीब पांच किमी मीटर पैदल चल कर आना जाना पड़ता था और फिर संयुक्त परिवार के हिस्से में आये काम भी तो करने होते थे। हिम्मत बहुत थी , दो बुज़ुर्गों का साथ भी था। 

                परीक्षा की घड़ी तब शुरू हुई जब उसी साल दिसम्बर में  ससुर जी को मुँह का कैंसर पता चला। जब पतिदेव कानपुर में होते तो स्कूटर से ले जाते , लेकिन जब टूर पर होते तो मैं एक किमी पैदल जाकर स्टॉप से रिक्शा लेकर आती और फिर ससुर जी को रेडिएशन के लिए जे के कैंसर इंस्टिट्यूट ले जाती।  रेडिएशन करवा कर वापस रिक्शे से लेकर घर लाती और घर छोड़ कर अपना बैग उठा कर आईआईटी के लिए पैदल निकल जाती क्योंकि कैंसर इंस्टिट्यूट और हमारा ऑफिस विपरीत दिशा में थे। 

                              शाम को ऑफिस से लौट कर फिर अपने हिस्से के काम करती। बेटियाँ इतनी समझदार थी कि मैंने कभी उनका होमवर्क नहीं देखा और वे अपनी बड़ी दीदियों के साथ सब पूरा कर लेती।  मेरे घर में पाँच बेटियाँ थी।  तीन मेरे जेठ जी की  और दो मेरी , लेकिन उनके बीच गजब का सामंजस्य था। 

             रात में भी बार बार उनको देखना पड़ता, जब भी आवाज देते। आलम यह होता कि दिन में ऑफिस में सो जाती , मेरी पूरी टीम एक लैब में ही काम करती थी। इस बीच अगर हमारे प्रोजेक्ट डायरेक्टर आ जाते तो सबसे इशारे से मना कर देते कि डिस्टर्ब मत करें। बाद में बताते सब लोग। उनके प्रति मेरे मन में आज भी अथाह श्रद्धा है।