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मंगलवार, 23 अगस्त 2011

कल जो हम थे !

aन्ना के भ्रष्टाचार विरोध में पूरे देश को जागृत कर दिया तो कुछ वे भी जाग कर गुहार लगाने लगे जो कल दूसरों को चूस रहे थे। मैंने ये बात इस लिए कह सकती हूँ कि गुहार लगाने वाले को व्यक्तिगत तौर पर और एक कैम्पस में रहने के नाते पूरी तरह से जानती हूँ। २८ साल पहले हम भी विश्वविद्यालय कैम्पस में ही रहते थे। हमारे ससुर जी वहाँ की डिस्पेंसरी के इंचार्ज थे। अपने सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद वह चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े रहना चाहते सो उन्होंने यहाँ पर ज्वाइन कर लिया। विश्वविद्यालय के बाबुओं के जीवन स्तर को देख लें तो लगता था कि क्या आई ए एस का स्तर होगा?
ये सज्जन भी वहाँ पर रहते थे। एक बाबू होने के बाद भी उस समय वे कार के मालिक थे और बच्चों के कपड़े कोई देख ले तो निश्चित तौर पर उनकी ड्रेस बहुत महँगी होती थी। कमाई का कोई अंत तो था नहीं। चूंकि डिस्पेंसरी से सबको ही काम पड़ता था तो सबको जानती भी थी । अब दुर्भाग्य वश इनको वी आर एस लेना पड़ गया तो फिर वहाँ पर इनके जगह पर कोई और आ कर बैठ गया और इनसे खाने की जुगाड़ करने लगा तो इनका खून खौल उठा कि ये मुझसे भी खाने वाले आ गए लेकिन ये भूल गए कि इस पौध को पानी तो इन्होने ही दिया था। हो सकता है कि इनमें से किसी व्यक्ति से इन्हीं ने पैसा खा कर काम किया हो और अपनी बारी आई तो भ्रष्ट तंत्र के नाम पर अखबार में गुहार लगा दी। ये भूल गए कि इनके जानने वाले अभी कुछ लोग तो बाकी हैं कि इनका अपना चरित्र क्या रहा है? जब खुद थे तो तंत्र भ्रष्ट नहीं था और अब भ्रष्ट हो गया है।

जीवन भर खूब ऐश की। अब वे अपना कल भूल गये। शायद ये भूल गए कि तुम जोंक बन कर कल दूसरों का खून पीकर अपनी कार में पेट्रोल डलवा रहे थे तो यह नहीं सोचा होगा तुम्हारी जगह कोई और भी तो आएगा और अब तो पेट्रोल काफी महंगा cहुका है तो फिर वो जो आज तुम्हारी जगह पर बैठा है उसको भी तो कार में पेट्रोल डलवाना होगा। वैसे भी अब बच्चों की पढ़ाई बहुत महंगी हो चुकी है। ab रोना क्यों रो रहे हैं , जब खुद थे तो भ्रष्ट तंत्र नहीं था अब उसको ही भ्रष्ट कहते हुए गुहार लगा रहे हो। एक यही नहीं बल्कि जो भी इसका इस तरह से कमाई कर रहे हैं , कल वे भी इसका खामियाजा भुगतेंगे जब भ्रष्टाचार नहीं होगा तब भी उन्हें अपने काली कमाई को सहेजना मुश्किल पड़ जाएगा।

रविवार, 21 अगस्त 2011

अन्ना को अंगूठा !

जब पूरा देश एकजुट होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है और इस समय भी जो तस्वीर मैंने देखी वो लगा कि पूरा तंत्र इतना सुदृढ़ किले की तरह से बना है कि इसको तोड़ना बहुत मुश्किल है।
अभी दो दिन पहले ही की बात है, एक बेटी का गरीब पिता उसकी शादी के लिए जद्दोजहद कर रहा था क्योंकि दिन बा दिन बढती मंहगाई ने उसके शादी के बजट को फेल कर दिया। बारात बुलाएगा तो कहाँ से खिलायेगा? उसे याद आया कि उसके पिता जो सरकारी मुलाजिम थे , दो महीने पहले गुजर गए और उनकी पेंशन अशक्त होने के कारण जीवित प्रमाण पत्र न देने के कारण ट्रेजरी में ही पड़ी है। कुछ लोगों ने सलाह दी कि उनका मृत्यु प्रमाण पत्र लेकर जाओ कुछ रास्ता वह लोग सुझा देंगे और अगर कुछ पैसा मिल गया तो इस समय तुम्हारे लिए संजीवनी बूटी की तरह से होगी।
मरता क्या न करता?रोजी रोटी के धंधे को बंद कर ट्रेजरी गया, वहाँ पता किया तो पता चला कि अमुक बाबू ये काम करवा सकते हैं। खोजते हुए उनके पास गया, उन्होंने हिसाब लगाकर बता दिया कि आपको १ लाख रूपया मिल सकता है। उस बेचारे की तो लाटरी निकल आई या कहो उसने बिटिया के भाग्य को खूब सराहा।
लेकिन उसको पाने के लिए उसके २५ हजार घूस भी देनी पड़ रही है लेकिन वह लाये कहाँ से? उसके जितने भी स्रोत थे सारे टटोल डाले लेकिन वे न काम आ सके। आखिर उसके लिए किसी तरह से इंतजाम इस विश्वास पर कर दिया गया कि जैसे ही पैसा मिलेगा वह इस राशि को चुका देगा। अब उस १ लाख की राशि उसको कितने दिन में मिलेगी ये नहीं पता है लेकिन २५ हजार के कर्ज में वह फँस चुका है। आप और हम क्या समझते है कि ये सरकारी मुलाजिम खुद को बदल पायेंगे।
ऐसे लोग ही अन्ना और हमारे संघर्ष को अंगूठा दिखा रहे हैं। देखते हैं कि ये कब गिरफ्त में आते हैं?

सोमवार, 8 अगस्त 2011

फायदे के लिए !

एक कहावत है न कि मौके को देखते हुए 'गधे को लोग बाप बना लेते हैं.' वह तो बात अलग हो गयी लेकिन ऐसा किस्सा अभी तक तो सामने नहीं आया है ( मैं सिर्फ अपनी बात कर रही हूँ, आप लोगों ने देखा या सुना हो तो बताएं) कानपुर में एक रिटायर्ड डॉक्टर जो कि उच्चतम पद से सेवा निवृत हुए । कुछ सामाजिक सरोकार के तहत पता चला कि उन्होंने जीवन भर सवर्ण बन कर नौकरी की और वह भी ब्राह्मण पिता की संतान थे। उनका नाम है डॉ राम बाबू।
अपने सेवानिवृत होने के पांच साल पहले उन्होंने कोर्ट में ये दावा किया कि उनकी माँ अनुसूचित जाति की थी , इस लिए उनको अनुसूचित जाति का घोषित किया जाय। अदालत ने उनको पांच साल पहले अनुसूचित घोषित कर दिया और वे ताबड़तोड़ पदोन्नति लेते हुए उच्चतम पद पर पहुँच गए।
वैसे तो अभी तक यही प्रावधान सुना है कि बच्चे के नाम के आगे पिता की जाति का उल्लेख होता है । यहाँ तक कि शादी के बाद पत्नी के नाम के साथ भी पति कि जाति जोड़ी जाने लगती है। वैसे अब एक विकल्प यह भी देखा जा रहा है कि लड़कियाँ अपनी जाति को हटाने के स्थान पर पति के नाम के अंतिम हिस्से को साथ में जोड़ लेती हैं।
लेकिन किसी ने माँ की जाति या उसके उपनाम को अपने साथ जोड़ा हो ऐसा नहीं मिला है क्योंकि अभी भी हमारे समाज में पितृसत्तात्मक परिवार ही पाए जाते हैं। वैसे तो यह एक अच्छा दृष्टिकोण है कि माँ को प्रमुखता देते हुए उनकी जाति का उल्लेख किया जाय लेकिन अपने जीवन के पूरे सेवा काल में ये बात डॉ राम बाबू को समझ क्यों नहीं आई? सिर्फ इस लिए कि अब उनके सेवानिवृत्ति के दिन करीब आ रहे थे और सवर्ण होते हुए उन्हें पदोन्नति की ये सीमा प्राप्त नहीं हो सकती थी तो पदोन्नति का शार्टकट उन्होंने खोज लिया। हमारी अदालत ने भी इस पर कोई सवाल नहीं किया कि अपने जीवन के ५५ साल उन्होंने ब्राह्मण बनकर काटे अब अचानक ये माँ के प्रति प्रेम उनमें कहाँ से जाग आया है ? सिर्फ निजी स्वार्थ के लिए सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए इस तरह से जाति परिवर्तन की आज्ञा अदालत को भी नहीं देनी चाहिए। वैसे ये डॉ रामबाबू अब पूरी तरह से अनुसूचित जाति के हो चुके हैं क्योंकि अब वह अनुसूचित जाति के लिए किसी संस्था के पदाधिकारी भी हैं।
ये हमारी आरक्षण नीति के गलत रवैये को ही दिखाता है क्योंकि आगे डॉ रामबाबू के सभी बेटे इस आरक्षण के अधिकारी हो चुके हैं और आगे आने वाली पीढ़ी भी। ये पढ़े लिखे लोग अपनी मेधा का प्रयोग इसी लिए कर रहे हैं कि कैसे वे अधिक से अधिक इस सरकार की गलत नीतियों का फायदा उठा कर आगे बढ़ते रहें.इस आरक्षण ने समाज के बीच में ऐसी खाई खोद रखी है कि इससे समाज का हित नहीं बल्कि अहित हो रहा है या फिर डॉ रामबाबू जैसे लोग उसके लिए तिकड़म खोज कर अपने लिए मार्ग बनाते जा रहे हैं। यह न सरकार की और न ही अदालत के द्वारा अपनाये गए रवैये को स्वस्थ मानसिकता का प्रतीक नहीं कहा जा सकता है।

रविवार, 7 अगस्त 2011

ये दोस्ती हम नहीं ..........!

           बहुत सोचने पर ये घटना याद आई कि ऐसे भी दोस्त होते हैं जिन्हें अपने दोस्त के लिए कुछ भी कर गुज़रने में सोचने की जरूरत नहीं होती      
          विजय बहुत दिनों के बाद अपने कस्बे लौटा था क्योंकि अब उसके पिता या और घर वाले यहाँ पर नहीं रह गए थेबस एक दोस्त था और उसकी माँ थी जिसने अपनी माँ के मरने पर उसे दीपक की तरह ही प्यार दिया थास्टेशन पर लेने के लिए विजय को दीपक ही आया था क्योंकि उसे विजय से मिले हुए बहुत वर्ष बीत गए थेअब दोनों ही रिटायर्ड हो चुके हैंविजय ने ट्रेन से उतरते ही दोनों हाथ फैला दिए गले लगाने के लिए और यह भूल गया कि दीपक का एक हाथ कटे हुए तो वर्षों बीत चुके हैंएक पल में दीपक की कमीज की झूलती हुई आस्तीन ने उसको जमीन कर लेकर खड़ा कर दिया


       बीस साल से पहले की बात है दीपक ट्रेन से गिरा और उसका हाथ काट गयातब छोटी जगह में बहुत अधिक सुविधाएँ नहीं हुआ करती थीं और ही हर आदमी में इतनी जागरूकता थीवह कई महीने अस्पताल में पड़ा रहा और उसका इलाज चलता रहा घाव भरा नहीं रहा था । फिर पता चला कि सेप्टिक हो गया है। तब जाकर डॉक्टर सचेत हुए लेकिन उस कस्बे में वह इंजेक्शन नहीं मिल रहा था बल्कि कहो पास के शहर में भी उपलब्ध नहीं था। उस समय फ़ोन अधिक नहीं होते थे। विजय दूर कहीं चीफ इंजीनियर था , खबर उसके पास ट्रंक कॉल बुक करके भेजी गयी शायद वह वहाँ से कुछ कर सके। बस वही एक आशा बची थी। विजय ने खबर सुनते ही अपने एक मित्र को बम्बई में फ़ोन करके उस इंजेक्शन को हवाई जहाज से भेजने को कहा। जैसे ही उसे इंजेक्शन मिला वह अपनी गाड़ी और एक ड्राइवर लेकर निकल पड़ा। सफर बहुत लम्बा था इसलिए एक ड्राइवर साथ लिया था। १४ घंटे की सफर के बाद विजय दीपक के पास पहुंचा था।

            "डॉक्टर इसको कुछ नहीं होना चाहिए। अगर आप कुछ न कर सकें तो अभी बताएं मैं इसको बाहर ले जाता हूँ।"


         "नहीं, इस इंजेक्शन से हम कंट्रोल कर लेंगे। अगर ये अभी भी न मिलता तो हम नहीं बचा पाते।"
     
        दीपक बेहोशी में जा चुका था। दो दिन बाद वह होश में आया तब खतरे से बाहर घोषित किया गया। होश में आने पर उसने विजय को देखा - 


"अरे तू कब आया।"दो दिन पहले, तू अब ठीक है ?"

"अरे मैं तो तुझे आज ही देख रहा हूँ।"


"तूने इससे पहले आँखें कब खोली थीं।"  विजय उसका हाथ पकड़ कर बैठ गया था।

         विजय को दीपक की पत्नी , बच्चे और माँ ने दिल से दुआएं दी कि अगर उसने इतना न किया होता तो शायद दीपक????????।


ये भी यथार्थ सच है कि मित्र वही है, जो अपनी मित्रता को धन और स्तर से न आंके।