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सोमवार, 23 अप्रैल 2012

vah bhalai samane aayi!

                    बचपन से यही सुनती चली आ रही थी की जीवन में किये गए भले कामों का फल जरूर मिलता है और कल कुछ तो ऐसा देखने को मिला तो लगा की  ऐसे गुण और संस्कार हमें सिर्फ अपने से मिलते हैं और वे भी सिखाये नहीं जाते बल्कि हम खुद सीखते हैं .
                   कल मैं अपनी बहन के यहाँ से शादी के बाद अपने शेष भाई बहनों के साथ वापस आ रही थी. झाँसी के बाद उरई और कानपूर आने के लिए हमारे पास कोई रिजर्वेशन नहीं था. क्योंकि जहाँ से हम आ रहे थे वहां से झाँसी तक ही सीधी ट्रेन थी  और वह झाँसी पहुँचने  में एक घंटे लेट हो गयी और हमारी लिंक ट्रेन जा चुकी थी. अब हमारे सामने और कोई चारा न था की हम किसी दूसरी ट्रेन में टिकट लेकर बैठ जाएँ.  हम सभी जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहते थे. झाँसी हम सुबह सात बजे पहुंचे और फिर पता किया तो हमें ९ बजे ट्रेन मिलनी थी जो की मुंबई से आ रही थी. हमने  टिकट  लिया  और ट्रेन आने पर  एक   बोगी में घुस  गए. उस  बोगी  में तिल  धरने  की  जगह नहीं थी लेकिन  क्या  करते  पहुँचाना जरूरी  था. उसी  में घुस गए की खड़े  खड़े ही सही  पहुँच  तो जायेंगे  ही. वहां पहले  से बैठे  लोग  किसी  भी तरह  से सहयोग  करने  को तैयार  नहीं थे. अपनी अपनी  सीट  पर पालथी  मार  कर बैठे हुए  थे . अगर  उनसे  अनुरोध  भी किया गया  तो उन  लोगों  ने बड़े  ही बेरुखे  ढंग  से उत्तर  दिया  की हम सीट रिजर्व आपके  लिए नहीं करवा कर  आ रहे हैं. बात  भी ठीक  थी.
                       वाही पर मैं , मेरे पति , मेरे बड़े भाई साहब  और bhabhi  जी  हमारे साथ थे. हम सभी किसी तरह खड़े होने  का प्रयास  कर वहां टिके  हुए थे. अचानक  सामने  की सीट पर बैठे हुए एक युवा  ने  मेरे  भाई साहब को देखा  कर पूछा  - 'आप  डी ए वी  कॉलेज  में पढ़ाते  हैं न ? '
'हाँ  वही पढाता  था, अब  रिटायर्मेंट  ले  लिया है.'
'सर  आप मुझे  नहीं पहचान  पाए  होंगे , लेकिन मैं आपको  पहचानता   हूँ . ' वह  यह  कहते  हुए अपनी बर्थ  छोड़ कर उठ खड़ा हुआ और बोला  'सर आप बैठ  जाइए  मैं खड़ा हो जाता  हूँ. भाई साहब ने उसको  बहुत  मना किया लेकिन वह अपनी जगह छोड़ कर उठ कर खड़ा हो गया.
                    फिर उसने अपनी सीट पर बैठे अन्य लोगों से थोडा थोडा खिसकने की बात कह कर हम सभी को बिठा लिया. 
                     फिर वह बातें करने लगा और अपने बारे में बताने लगा की वह अब क्या कर रहा है? भाई साहब से फिर बताने लगा की आप तो हमें जीवन भर याद  रहेंगे   क्योंकि जब  वह हाई स्कूल  में था तो उसके गाँव  में प्रेक्टिकल   लेने  गए थे और उसी दिन   मेरे पिताजी  का निधन  हो गया था मेरा प्रेक्टिकल  छूट   गया था. मैं तीन  दिन बाद आपके  पास पहुंचा था तो अपने घर पर ही मेरी  प्रेक्टिकल  की कॉपी  लिखवा  कर मेरा प्रेक्टिकल  ले लिया था. अगर आप ऐसा न करते तो फिर मैं अपने घर को संभालने   के लिए एक साल बाद तैयार हो पाता.
                       उसके  इतना कहने  पर मुझे वह घटना  याद  आ गयी. मैं उस समय  उरई में ही थी. एक लड़का  ऊपर  चढ़  कर आया  और पूछा मास्साब  घर में हैं क्योंकि प्रेक्टिकल  लेने  के बाद  भाई साहब घर पर ही थे . घर आकर  उसने बताया  था की उसके  पिताजी  का निधन  हो गया था और वह इसा  कारण   वह प्रेक्टिकल देने नहीं आ सका. साब आप अगर मेरा प्रेक्टिकल ले लें तो मेरा साल बच जाएगा.
                       भाई साहब ने उससे  घर पर ही कॉपी  लिखवा  ली  और प्रेक्टिकल की सारी  औपचारिकता  नियमपूर्वक  पूरी  करवाई  और उससे उसकी  उपस्थिति  दर्ज  कर ली. जब वह जाने  लगा तो मेरा भतीजा दो  साल का था वह वही खेल  रहा था. उसने दो रुपये  का नोट  निकल  कर उसको देने का प्रयास किया तो भाई साहब ने कहा की इसकी  कोई जरूरत  नहीं है. वह रुआंसा   हो गया - साब हम बहुत गरीब  हैं , हमारे पास आपको देने के लिए कुछ भी नहीं है. ये  बच्चे  को दे  रहा हूँ. इससे  ज्यादा  मेरे पास नहीं हैं मैं गाँव से यहाँ तक पैदल आया हूँ.
                       भाई साहब ने उससे कहा - 'बेटा  इसकी कोई जरूरत नहीं है, मैं ये सब  नहीं लेता , मैंने  तुम्हारी  परेशानी  देख  कर जो कर सकता  था वह किया. तुम  परेशान मत  हो. '
                  फिर उस लडके  से कभी मिलने  का कोई सवाल  ही नहीं था और आज  वही फिर सामने  आ गया तो लगा की आज  भी लोग किये गए किसी भी भलाई  को सम्मान  देते  हैं.

शनिवार, 7 अप्रैल 2012

यथार्थ का शतक !

कहीं पढ़ा था इसको और इसके यथार्थ पक्ष को देखा भी है और समझा भी हैकुछ सन्देश देती है ये कथा सो इसको यथार्थ की सौवीं रचना के रूप में आपके नजर कर रही हूँ

एक क्रोधी व्यक्ति एक संत की शरण में आया और कहने लगा कि मुझे बहुत क्रोध आता है और पता नहीं मैं किसको क्या क्या कह जाता हूँ?मुझको इससे निजात चाहिए
साधू ने कहा कि क्रोध पर नियंत्रण इंसान खुद ही कर सकता है ऐसा कोई मंत्र नहीं है कि जिससे आप इससे मुक्त हो जाएँ फिर भी आप को एक बात बताता हूँ जिससे अगर आप प्रयास करें तो शायद कुछ अच्छा प्रतिफल मिल सके
"आप बतलाइये मैं वो करूंगा जो आप बताएँगे।" क्रोधी व्यक्ति ने आतुर हो पूछा
"तुम्हें जब क्रोध आये तो तुम दीवार पर एक कील गाड़ दिया करना , जितनी बार भी क्रोध आये उतनी ही कीलें।" साधू ने उसको रास्ता बताया
"जैसी आपकी आज्ञा " कह कर क्रोधी व्यक्ति अपने घर लौट आया
जैसा साधू ने कहा था उसने वैसे ही वैसे करना आरम्भ कर दियापहले दिन उसको दिन में १५ बार क्रोध आया और उसने कीलें गाड़ दींउसने दस दिन तक ये काम किया और धीरे धीरे कीलों की संख्या अपने आप ही काम होने लगीएक दिन वह भी आया जब कि उसको क्रोध बिल्कुल भी नहीं आयावह उस दिन साधू के पास गया और हाथ जोड़ कर बोला , 'स्वामी जी कल मुझे क्रोध बिल्कुल भी नहीं आया और मैंने दीवार पर एक भी कील नहीं गाड़ी।"
संत ने उससे कहा कि अब तुम ऐसा करो कि अब जिस दिन तुमको बिल्कुल भी क्रोध आये तो उसमें से एक कील रोज उखाड़ते जानाजब सारी कीलें उखड जाएँ तो फिर मेरे पास आना
करीब एक महीने में उसने सारी कीलें उखड डाली और फिर आया तो बोला - "स्वामी जी अब मुझे बिल्कुल भी क्रोध नहीं आता है । "
"ये तो ठीक है लेकिन तुम्हारी दीवार पर जो कीलें गाडीं थी उसके निशान मिट गए या नहीं। "
"स्वामी जी निशान कैसे मिट सकते हें? कीलें निकल लीं लेकिन दीवार पर निशान तो रहेंगे ही।"
"हाँ अब सुनों तुम जो दीवार पर निशान देखते हो , उससे याद करो कि तुमने अपने क्रोध में एक कील गाड़ी और ख़त्म होने पर उखाड़ भी दी लेकिन क्या निशान ख़त्म हुआ ? नहीं, फिर सोचो तुमने क्रोध में कितने लोगों को अपशब्द कहे होंगे, किसी को मारा भी होगा और कितना अपना नुक्सान किया होगाक्रोध समाप्त होने पर सब भूल गए होगे लेकिन जब एक निर्जीव दीवार तुम्हारे क्रोध के कहर के अपने सीने में निशान की तरह संजोये हुए है फिर कोई इंसान जिसमें आत्मा होती है, कितना आहत किया होगा और फिर भूल गएउनके कष्ट का अनुमान तुम इसी से लगा सकते होवे सजीव प्राणी कभी इसको भूल सकते हें शायद नहींकितने शत्रु तुमने अपने पैदा कर लिए होंगे
इसी लिए कहा जाता है कि आदमी का क्रोध उसका सबसे बड़ा शत्रु होता हैअगर चाहते हो कि तुम्हारा कोई शत्रु हो तो सबसे पहले अपने क्रोध पर नियंत्रण पाना चाहिए