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सोमवार, 15 दिसंबर 2008

पुत्र ऋण !

मैं उनकी नर्स थी, क्योंकि बेटे की पत्नी को ससुर की सेवा में कोई रूचि नहीं थी और बेटे के पास समय नहीं था। इसलिए उन्होंने मुझे रख लिया और मैं सुबह आठ बजे से रात आठ बड़े तक उनकी देखभाल करती थी। वे बहुत गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे।

एक दिन उनके बेटे ने मुझे एक केले का पैकेट लाकर दिया और अपने कमरे में चले गए। उनके साले बैठे थे सो उनसे ही बोले , 'उनके लिए तो केले ही ठीक हैं, यह सेब बच्चों के लिए लाया हूँ, उनको खिलने से तो अब कोई फायदा नहीं है। सेब बच्चों को खिलाऊंगा तो आगे मेरे काम आयेंगे। मैं सोच रही थी की शायद इस पिता ने भी इतने ही प्यार से अपने बच्चों के लिए यह सब किया होगा की आगे मेरे काम आयेंगे किंतु क्या हुआ? पितृ ऋण की किसी ने सोची ही नहीं है। सब अपने भविष्य के लिए पुत्र ऋण को ही चुकाते रहे और फिर सब ने वही किया न - पुत्र ऋण ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण नजर आता है और इस अवस्था में आकर लगता है कि नहीं कि यह तो इतिहास अपने को दुहरा रहा है।
अब पितृ ऋण तो सिर्फ धार्मिक किताबों का विषय रह गया है। या फिर पितृ पक्ष के १५ दिनों में ही जीवन भर का पितृ ऋण चुकाने कि जो शार्टकट व्यवस्था हमारे शास्त्रों में कि गई है वह ही ठीक है। बड़े नियम धर्म से १५ दिन गुजार कर अपनी कई पीढियों के पूर्वजों को सम्मान देकर हम अपनी आत्मा को संतुष्ट कर लेते हैं।
शायद इसी के लिए कहा गया है -- जियत न दीने कौरा, मरे उठाये चौरा।

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

पहले मेरी माँ है!

आज मेरी माँ ने अंतिम साँस ली, फिर तो सारा घर दौड़ने लगा यह क्या हो गया? वह दादी माँ जिसने हमेशा उसको दुत्कारा था, पास बैठी रोने का नाटक कर रही थी। वह ताई जिसने उसको कभी चैन से रहने नहीं दिया। मेरे सर पर हाथ फिरा रही थी और वह हाथ मुझे हथोडे की तरह लग रहा था। मेरी बुआ तो मुझे लगता है की अब कभी डांटेगी ही नहीं और माँ की सारी चीजें जो कभी उसकी नहीं रहने दी, अब कभी उन पर नजर नहीं डालेगी।
सारे माहौल में गामी नजर आ रही थी और मेरे पिता तो कुर्सी पर मुंह लटकाए बैठे थे, लोग उनको सांत्वना दे रहे थे।
यह वही पिता हैं जिन्होंने मेरी माँ को कभी इज्जत दी ही नहीं, एक नौकरानी की तरह उसको इस्तेमाल करते रहे और कभी उसने अपनी बात करने की कोशिश की तो एक ही जवाब था , तुमसे पहले मेरी माँ है, मेरी भाभी है और मेरी बहन है। तुम बहुत बाद में आई हो और इस लिए अपनी जगह वही रखो जहाँ पर मैं रखता हूँ।
ये शब्द मेरी कानों में हमेशा पिघले हुए शीशे की तरह जाते रहे , जब से समझ आई है दिन में एक या दो बार यह शब्द सुनता ही रहा हूँ। मेरी माँ ने इसको कितना सुना होगा इसका हिसाब मेरे पास नहीं है। वो निर्दोष और निश्छल भाव से सबकी सेवा ही करती रही और उसको क्या मिला? आज इस उम्र में ही अपनी जिन्दगी पूरी करके और मुझे छोड़ कर चल दी।
सब मुझे प्यार करते हैं। इनका अगर बस चलता तो और वे एक नौकरानी की कमी पूरी न कर रही होती तो कब की घर से धक्के मारकर निकाल दी जाती।
सब सामन इकठ्ठा हो चुका है , उनको अब ले जाना है। उनको बढ़िया साड़ी पहने गई और सजाया भी जा रहा है। इतनी सुंदर लगते तो मैंने अपनी माँ को कभी नहीं देखा। कई कई दिन तक बाल बनाने का समय ही नहीं मिलता था। एक की फरमाइश पूरी कर रही है तो दूसरे ने अपनी फरमाइश उछाल दी । जल्दी जल्दी हाथ चला रही है और सबके ताने भी सुन रही है। माँ के घर कुछ किया भी था की बस बैठी ही रही, हरामखोरी की आदत पड़ गई है।
सब लोग उनको उठा कर जाने लगे, मुझे जाना है, यह सोच कर मैं सबके आते ही आगे चल दिया। उनकी चिता सजा रहे थे सब, उस पर लिटा दिया गया । अब सब कहने लगे की पिताजी मुखाग्नि दें। चल दिए अपने फर्ज को पूरा करने लेकिन पहले मेरी माँ हैं न। मुझमें न जाने कहाँ से साहस आ गया और मैं उनकी तरफ बढ़ा और आग से जलती हुई लकडी उससे ले ली,
'अरे यह क्या करते हो? वह तो अब चली गई यह तो सिर्फ मिटटी रह गई है।' बड़े बूढे मुझे समझाने लगे लेकिन मेरी आंखों में अंगारे निकल रहे थे।
'मैंने पिताजी को पीछे करते हुए कहा - 'यह पहले मेरी माँ है और इसको मैं ही भस्म करूंगा। आपकी माँ हमेशा आपके लिए पहले रही है तो आप उसके लिए बचे रहिए।
मैंने सच ही तो कहा है, यह सच मैं बचपन से आज तक सुनता रहा वही तो मैंने दुहराया है और अपनी माँ के आसुंओं और सिसकियों का गवाह में ही तो था। सो उसकी इस पीड़ा के अंत भी मैं ही करूगा। अलविदा मेरी माँ।