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रविवार, 26 फ़रवरी 2012

एक दिन बिक जाएगा......!

एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल ,
जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल .


इन पंक्तियों में छिपा सच एक दिन दिखाई ही दे गया और दो चार हुई इस घटना से .

जीवन में इंसान अहम् से भरा मदमस्त हाथी की तरह से होता है , जिसको अपने सामने कोई और नजर ही नहीं आता है कौन सामने पड़ा और किसको कुचल दिया इससे कोई सरोकार नहीं होता है लेकिन कब तक ? जब तक कि उसको अंकुश करने वाला नहीं मिल जाता लेकिन मनुष्य का अहम् तो इससे भी अधिक खतरनाक होता है अपने इस अहंकार के चलते हम अपनी शक्ति और धन के सामने किसी को कुछ भी नहीं समझते हें चाहे ये इंसान की क्षुद्र बुद्धि हो या फिर मदान्धता
उन्हें मैं मिस्टर जज ही कहूँगी वे सेशन कोर्ट के जज थेपद, सम्मान और पद के अनुरुप सफेद और काले धन की दीवारों ने उनको मानसिक तौर पर अपने में ही कैद कर दिया थाघर में किसी का भी आना जाना उन्हें पसंद था और ही किसी रिश्तेदार या सम्बन्ध रखनाउन्हें शक था कि लोग मेरे पैसे के पीछे मुझसे रिश्ता रखना चाहते हेंउनकी पत्नी चाहकर भी रिश्ते निभा पाती थीं और जोड़ पाती थीउनको अपने स्तर के लोगों से ही मिलने जुलने की हिदायत थी और जीवन भर ऐसे रहते रहते उनकी दुनियाँ भी उन्हीं लोगों के बीच रह गयी थी। ।अपने बच्चों तक उनकी दुनियाँ सीमित थी और उनमें से उन बच्चों से कोई रिश्ता था जिन्होंने उनके अहंकार को चोट पहुंचा कर खुद किसी साधारण परिवार के सदस्य से शादी कर ली थीबच्चे उनकी अनुपस्थिति में माँ से मिलने आते रहते
एक दिन ईश्वर ने उस अहंकार की सजा उन्हें ऐसे दी कि देखने वाले कह उठे सामान सौ बरस का पल की खबर नहींइंसान अगर पैसे और पद के साथ विनम्र और व्यवहार कुशल भी तो उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता लेकिन इन जैसे..........। आलीशान बंगला और गाड़ियों की फौज ने उनका साथ देने से इनकार कर दिया क्योंकि उनके पास सब कुछ था बस नहीं थी तो इंसानियत और रिश्तों को निभाने की चाहत
जज साहब कोर्ट से आये उनके रिटायर होने के कुछ ही महीने बाकी थे कि अचानक उन्हें सीने में दर्द हुआ और किसी भी तरह की सहायता मिलने से पूर्व ही चल बसेउनकी पत्नी तो हतप्रभ हो गयी लेकिन क्या करती? नौकरों से कहा कि रिश्तेदारों को फ़ोन कर दोकुछ त्रासदी ऐसी थी कि उनके बच्चे भी उस शहर में नहीं थे और उनके बच्चे उनकी तरह इज्जतदार होने का तमगा नहीं लगा पाए थेवे अपने परिवार के साथ खुश थेरात भर पत्नी अपने नौकरों के साथ जज साहब के शव के साथ बैठी रहींखुद किसी से रिश्ता रखने के कारण उनकी हिम्मत ही नहीं हुई कि वे किसी को खबर करके बुला लेंसुबह नौकर तो उनके नौकर थे उन लोगों ने जिन्हें बता दिया उन्हें खबर कर दी गयी और कुछ रिश्तेदार मृतक से अब क्या बैर - सोच कर गए लेकिन उनकी प्रथा के अनुसार कुछ रिश्तेदार शव को हाथ नहीं लगा सकते थे और जो लगा सकते थे वे लगाने को तैयार नहीं थेवैसे इस जगह इंसानियत का वास्ता देकर उन्हें भी ऐसा नहीं करना चाहिए था लेकिन इंसान के लिए एक सबकबाजार से चार लेबर बुलाये गए और उनके शव को उन लोगों ने ही शव वहाँ में रखा और फिर श्मशान के लिए रवाना किया गया
लोग अपने घरों को वापस, कितने ही सगे रिश्ते होने के बाद भी वे आगे नहीं बढेपत्नी को क्लब और पार्टियों में जाने की पूरी अनुमति थी लेकिन रिश्तेदार के नाम पर नहीं शायद उन्हें लगता था कि हर रिश्तेदार उनके पैसे और पद से लाभ उठाने के लिए ही जुड़ना चाहता है इसी लिए किसी से भी नहीं सम्बन्ध रखने की सख्त हिदायत थीक्लब और पार्टी वाले मिलने वाले कुछ समय के लिए आये और चले गएशाम को कुछ रिश्तेदार खाना लेकर पहुंचे तो उनके पास सिर्फ उनकी बेटी थीपति के अहंकार के रंग में रंग कर शायद अनजाने में उन्होंने भी बहुत कुछ खो दिया था
ऐसी घटनाओं को देख कर बस यही कहा जा सकता है कि बेशक आप अपने पैसे और पद से किसी को लाभान्वित मत कीजिये लेकिन ये बोल ऐसे हें कि इससे तो इंसान को अपनी ही तरह इंसान समझते रहिये , वे आपको इंसान होने का सबूत आपको अवश्य ही देंगेसमाज के सदस्य होने के नाते उससे काट कर आप अपनी दुनियाँ में जी तो सकते हें और खुश भी रह सकते हें लेकिन सामाजिक सरोकार के वक़्त आप अकेले ही खड़े होंगे

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

खून के रिश्ते !

बहुत दिनों से व्यस्त थी, पहले एक बेटी (जेठ जी की बेटी) की शादी ११ फरवरी को सम्पन्न हुई और फिर सम्पन्न हुए मेरी बेटी प्रज्ञा की सहेली और मेरी मानस पुत्री कल्पना की। पहली शादी में पूरा परिवार साथ था और काफी लोगों ने शिरकत की भी लेकिन दूसरी बेटी की शादी में तो जन्मदात्री माँ के बिना दूसरे स्वभाव से बागी पिता और उनसे रुष्ट रिश्तेदार और घर वालों के सहयोग और असहयोग ने कुछ जिम्मेदारियों को बढ़ा दिया था लेकिन मैं तो उस माँ से वचनबद्ध थी जिसे मैंने उसके अंतिम समय वचन दिया था।
कल
उसकी विदाई के बाद जब घर आई तो फिर तुरंत ही प्रज्ञा की विदाई करनी थी और रात में सोनू की। सब करके जब रात में सोने चली तो नींद नहीं आई क्योंकि कल्पना का रिसेप्शन था और उसमें हमारे लिए कोई जगह नहीं थी। मुझे बुरा नहीं लगा लेकिन फिर सोचा कि अगर ये अगर खून के रिश्ते होते तो जरूर निमंत्रण मिलता। असहयोगी पिता और गैर जिम्मेदार भाई और भाभी की जगह थी और वे गये और उससे भी बड़ी बात कि वे मेरा दिया हुआ उपहार ही लेकर उसके घर पहुचे मेरे पति बोले कि 'अब भूल जाओ कल्पना को, तुम्हारा काम पूरा हुआ।'
मैं
इसे सोचती रही लेकिन कैसे भूल जाऊं? वो बच्ची जिसे मैंने पिछले दस साल से अपना अंश मना है , वह दिल्ली से कानपुर आई तो उनके पिता को ये चिंता नहीं होती कि वो स्टेशन से घर कैसे आएगी? अगर रात या सुबह की ट्रेन से जाना है तो कैसे जायेगी? ये चिंता हम करते थे और उसको घर हम लाते थे हाँ इतना जरूर कि घर आने के पहले से उसके पिता के फ़ोन आने शुरू हो जाते कि उसको घर पहुंचा दो या फिर घर कब रहीहै?
इसे
मैंने उसी तरह से पूरा किया जैसे अपनी बेटी के लिए करते थे क्योंकि दोनों साथ ही आती और जाती थीं लेकिन जब वह अकेले भी आई तब भी ये काम हम करते रहे क्योंकि वो मेरी बेटी हें।
सगाई
हुई और फिर शादी भी हो गयी लेकिन हम अपना परिचय उसके भावी परिवार को क्या दें? क्योंकि उनकी नजर में मित्रता सिर्फ मित्रता होती है उसके परिवार से इतनी प्रगाढ़ता उनके समझ नहीं आती। ऐसा नहीं है कि वो परिवार पढ़ा लिखा हो लेकिन वो ठाकुर परिवार से हें और उनकी सोच खून से अधिक कुछ सोच ही नहीं सकते हें। पिछले एक हफ्ते से सारे दिन और रात उसके सारे काम पूरे करवाने में बीत गए कैसे घर में व्यवस्था होगी और कैसे उसकी रस्मों के लिए तैयारी करनी होगी? सब कुछ कर लिया और विवाह के सम्पन्न होते ही सब कुछ जैसे सपना सा हो चुका है।
मैं
उसके सामने नहीं रोई लेकिन अब सोचती हूँ कि ये आंसूं क्यों बह रहे हें? शायद एक अंश के छूट जाने का दर्द है लेकिन इंसान इन रिश्तों के लिए सार्थक क्यों नहीं सोच सकता है? क्या इस रिश्ते में भी किसी को कोई स्वार्थ दिख सकता है। नहीं जानती लेकिन ये जरूर लग रहा है कि अब तक तो ये ही सोचा था कि खून के रिश्ते कभी कभी रिश्तों को झुठला देते हें लेकिन ये आत्मा और स्नेह के रिश्ते तो सबसे गहरे होते हें। इनके लिए कोई कैसे ऐसा सोच सकता है?
अब
मेरे इस रिश्ते का भविष्य कल ही पता चलेगा , जब वो इसके लिए सबको तैयार करेगी कि ये रिश्ता कितना अहम् है? नहीं भी स्वीकारा तो भी वो मेरी बेटी तो रहेगी ही। लेकिन ये खालीपण और उदासी कब मेरा साथ छोड़ेगी ये नहीं जानती। इतना कष्ट जो मैंने प्रज्ञा के विवाह के बाद भी नहीं सहा। आज से महीने पहले लिखा "ख़ुशी मिली इतनी ...." और आज ये लिख रही हूँ। सब कुछ बांटती रही तो ये भी बाँट लिया। मन हल्का हो गया