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शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

गिरगिट !

                                               कमला बड़बड़ाती  हुई घर में घुसी और तेजी से काम करने में जुट गयी लेकिन उसका बड़बड़ाना  बंद नहीं था। 

"अरे कमला क्या हुआ ? क्यों गुस्सा में हो?"

"कुछ नहीं दीदी, मैं तो छिपकली और गिरगिट से परेशान हूँ। "

"ये कहाँ से आ गए ?"

" ये तो मेरे घर में हमेशा से थे, मैं अपने कमरे में बात करूँ तो ननद हर वक्त कान लगाए रहती है और घर से वह कहीं चली जाए तो ससुर का रंग दूसरा होता है और उसके होने पर दूसरा।"

"सही है न, काम निकलना चाहिए। "

"आप भी न , उनकी ही बता सही बताएंगी। "

"देख ये छिपकली तेरे ही घर में नहीं है , हर घर में होती हैं।  बड़े घरों में बड़े घर जैसी और छोटे में छोटे जैसी। "

"और गिरगिट ?"

"वो भी तो होते हैं , वक्त पर गधे को भी बाप बनाने वाले ऐसे ही होते हैं।" निशा ने बात बढ़ाना उचित न समझा। 

लेकिन वह अपने ही अतीत में खो गयी  - 

                          उसकी जिठानी पढ़ी लिखी होने के बाद भी किसी का फ़ोन आये या कोई मायके से आ जाय तो दरवाजे के बाहर ओट में , या फिर कमरे के आस पास ही मंडराती रहती थी।  बच्चों के आने पर भी क्या बात हो रही है ? फ़ोन आने पर भी किससे क्या बात हो रही है,  उसकी बुराइयां तो नहीं की जा रही हैं।  कई लोगों ने बताया भी लेकिन उससे क्या फायदा ? कभी न टोका और न सवाल किया कि इस तरह से बातेन क्यों सुनती हो ?

                         और जेठ तो उनके भी दो कदम आगे , संयुक्त परिवार और पैतृक मकान के चलते रहना तो वहीँ था और तब घर भी ऐसे ही बने होते थे. एक महिला अगर घर से गयी तो दूसरी सबके लिए रसोई और  सारे काम करने के लिए होती ही थी।  वह भी इस घर में भी था।  निशा की जिठानी बाहर गयीं और फिर जेठ जी गिरगिट की तरह से रंग बदल लेते चाहे घर के बच्चों हों या फिर वह स्वयं।  जेठ जी की वाणी में चाशनी टपकने लगती।  बड़े मधुर शब्दों में बोलने लगते।  'आप' के नीचे बात न होती और जेठानी के आते ही वह एक शुष्क  इंसान की तरह व्यवहार करते और व्यंग्यबाण चलने लगते।  उनकी इच्छा होती कि उनकी पत्नी किसी  के पास न बैठे और बात न करे।  खुद भी नहीं करता था। 

                                      ये रोग तो बड़े घरों में या इन काम वालों सब जगह पाया जाता है।

"

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शनिवार, 31 जुलाई 2021

अपनी अपनी किस्मत !

    मेरी यह बहुत ही बुरी आदत है कि मैं अपने उम्र वालों के साथ ही नहीं बल्कि अपने से बड़ों और छोटों के साथ भी उतनी ही घुली मिली रहती हूँ कि वे अपनी समस्याएं और तकलीफें बयां कर देते है।
                              ऐसी ही घटना  दिनों सामने आई की इंसान के जीवन में कभी कभी इंसान से जानवर अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। वैसे तो ये आम बात है कि  बड़े घरों में कुत्ते नौकरों से बेहतर जीवन जीते हैं।   वह बड़े घरों की बाते हैं लेकिन ये बात अब हमें अपने  मध्यम वर्गीय परिवारों में  भी देखने को मिलने लगी है। माताजी के घर में उनका बेटा और बहू  और एक कुत्ता है। उनके दोनों बच्चे बाहर  रहते हैं सो वह कुत्ता ही उनके लिए बेटा बन चुका  है। पत्नी के मायके में शादी थी सो वह पति पत्नी ससुराल चले गए . घर में माँ  और कुत्ता बचा . बहू रानी सास के लिए तीन दिन के लिए रोटियां कैसरोल में सेंक कर रख गयीं क्योंकि उनको कुछ कम दिखलाई देता है और सब्जी भी बना कर फ्रिज  में  रख गयी लेकिन कुत्ते के लिए काम करने वाली से कह कर गयी कि  ये गरम रोटी ही खाता है सो जब वह काम करने आये तो इसको गरम रोटी बना कर खिला दे और सास से कह दिया कि  जब इसका दूध का बरतन खाली  हो जाए तो उसमें दूध भर दिया करें .  इस घर में सास को एक कप दूध नसीब नहीं है और कुत्ते के लिए 1 किलो   दूध आता है . पति प्राइवेट नौकरी में थे फंड मिला  था बच्चे के लिए घर बनवा दिया और पत्नी के लिए जो कुछ छोड़ा था वह बेटे ने समय समय पर निकाल  लिया ।
                एकांत पाकर माताजी ने दिल और मुंह दोनों खोल कर हलके होना चाहा क्योंकि उनकी उम्र के लोग अब कम ही बचे हैं सो वह किसके पास जाएँ और कहाँ जाकर बैठें सो अपने कमरे में चुपचाप लेटी  रहती हैं। आँखें कमजोर हैं तो टीवी भी नहीं देख पाती। कई कई दिन हो जाते हैं - बगैर किसी से बात किये। बहू बेटा अपने कमरे में उस कुत्ते के साथ बातें करते रहते हैं . जितना समय वह कुत्ते के साथ गुजरते हैं उसका अगर एक  प्रतिशत भी उनके  पास बैठ कर गुजारें  तो उनको भी लगे कि  वह इसी घर का सदस्य हैं।

सवा महीना !

 सवा महीना !


        इस त्रासदी के कठिन काल ने सबकी सोच बदल दी लेकिन वे नहीं बदले जो खुद इसे झेल चुके हों । रीना का बेटा कोरोना में चल बसा । उस कठिन  काल में भी उर्मिला बराबर आकर काम करती रही । जबकि और काम वालियों ने उसे जाने से मना भी किया था ।

  "दीदी मैं नहीं मानती , ये भाग्य का खेल है। कोई मनहूस नहीं हो जाता। इसमें बहू का क्या दोष ।"

       भाग्य ने उसके साथ भी खेल कर दिया , उसका पति कोरोना में  चल बसा । तीन लड़कियाँ है , कमाने वाला तो गया । सवाल रोजी पर भी आ गया । किसी तरह सवा महीना गुजारा । ये अंधविश्वास हमारे समाज में सदियों से पलता चला आ रहा है कि  हाल में हुई विधवा का मुँह देखना अशुभ माना जाता है ।

         पेट नहीं मानता , जमा पूँजी इलाज में लगा दी । काम अब कैसे करने जाय ? कोई बुलाए तब न । 

         उसने फोन किया - "दीदी बहू की जचगी हो गई होगी, अब खाना बनाने आने लगूँ ।"

    "न न अभी न आ , अभी तो सवा महीना भी न हुआ होगा ।"

   " हो गया दीदी , घर में बैठकर खाऊँगी क्या ?

     " अभी न आओ, दीपा भी अपना बच्चा लेकर आ रही है ....।"

           "बहूरानी से न कोई परहेज है , हमसे परहेज कर रही हैं ।"

"उसे मैंने जब तक दीपा रहेगी मायके भेज दिया है ।" 

"क्या ?"  उर्मिला मुँह खुला रह गया।

सोमवार, 19 जुलाई 2021

एक अनमोल भाव!

 घर में कैद करके रख.दिया इस कोरोना न । यही एक भाई ऐसा था जो चक्कर लगा ही जाता । 

        उस दिन रति ने उसे बहुत डाँटा - "क्यों निकलते हो बाहर धूप में , घर में नहीं रहा जाता ।"

    "क्या करूँ सबकी खोज खबर रखनी पड़ती है ।" कहते हुए बेफिक्री से हँस दिया ।

" इस समय जैसे तुमने ही सारा ठेका ले रखा है । इतनी तेज धूप पड़ रही है , ऊपर से बाइक से चलना ।"

"चिंता मत करो बड़ी कड़ी जान हूँ , मुझे कुछ नहीं होनेवाला ।"

           बस उससे रति की वही आखिरी मुलाकात थी । उसी दिन घर पहुँचकर  उसे बुखार हुआ । फिर टेस्टिंग में पॉजिटिव निकला और कोरोना की जद्दोजेहद शुरू ।

      बस चार दिन-  अस्पताल में एडमिट होना , ऑक्सीजन की कमी, आईसीयू और फिर वेंटीलेटर पर जाना और रात भतीजे का फोन आना - "बुआ पापा नहीं रहे।"

           आधी रात वह बैठी रोती रही , उसके बाद मिलना ही न हो सका । शाम तक सब खत्म ।

            भाभी से मुलाकात भी चार महीने पहले भतीजे की शादी में हुई थी , उसका वही खिलखिलाता चेहरा सामने घूमता है। अब फोन करके वह क्या समझाये? खुद धैर्य नहीं रख पा रही थी तो जिसकी दुनिया ही उजड़ गई हो ?

              अचानक आज कॉल आई, नाम भाई का ही आया , एकदम धक से रह गई । दूसरी तरफ भाभी थी । रति तो हैलो कहते ही रो पड़ी । दूसरी तरफ से आवाज आने लगी - "दीदी रोओ मत , आपका भाई गया है न , भाभी अभी जिंदा है । उनके जितना तो नहीं कर पाऊँगी, लेकिन आपका मायका तो रहेगा सदा ।"

              रति भाभी के धैर्य और प्यार से कही बात को सुनकर फफक फफक कर रो पड़ी।

बुधवार, 16 जून 2021

जिन्दगी के वह 82 दिन !


    
                                                                                                                                                                                                                                 जिन्दगी वैसे तो संघर्ष का दूसरा नाम है और मैंने किया भी है , दूसरे शब्दों में कहें तो अपने लिए कम जिए दूसरों के लिए ज्यादा जिए।  रिश्ते मेरे लिए चाहे रक्त के हों या फिर मानस  सब प्रिय हैं और ऐसा नहीं है मेरे बड़े दायरे में मैं भी सबको प्रिय होऊं लेकिन फर्ज के लिए कभी अपने प्रयासों को कम नहीं किया। इस काम के लिए सिर्फ मैं नहीं बल्कि मेरे पतिदेव भी पूरी तरह से समर्पित हैं।  

                 यह दौर शुरू होता है 9 मार्च की सुबह से, उरई से भाभी का फ़ोन और वह अनापेक्षित , मन सशंकित हो उठा और पता चला कि  भाई साहब रात में फिसल कर गिर गए और रात में ठीक रहे , उठकर अपने बिस्तर में गये और दवा आदि खाकर सो गये लेकिन सुबह नहीं उठे हैं ।

                    मैने उन्हें एंबुलेंस से कानपुर लाने को कहा । नर्सिंग होम निश्चित था । वहाँ भी फोन कर दिया कि हमारा पेशेंट इस नाम का आ रहा है । जब तक हम पहुँचे तो भाभी ही मिली , भाई साहब तो सीटी स्कैन के लिए जा चुके थे और वहाँ से आईसीयू में। उनके डीप ब्रेन में क्लॉटिंग थी, जहाँ पर ऑपरेशन भी संभव नहीं था। वहाँ से जो भी जरूरत होती उसकी सूचना प्रसारित कर दी जाती लेकिन उनके बारे में कुछ भी नहीं पता चलता।  हम विजिटिंग एरिया में पड़ी कुर्सियों पर बैठे रहते सारा दिन।  शाम को भतीजे रुचिर को नर्सिंग होम में छोड़ कर भाभी को लेकर घर आ जाते।  यही क्रम चलता रहा न कोई प्रगति पता चल पाती और एक दिन उन्हें एम आर आई के लिए दूसरे सेंटर ले जाना था।  उन्हें स्ट्रेचर पर नीचे लाया गया, एम्बुलेंस से ले जाना था ।  हम लोग वहीँ खड़े होकर देखते रहे और उनकी हालत देख कर आँखों में आँसूं छलक पड़े। इस दौरान मेरे बुआ का बेटा गुड्डू (संजय) हमारे साथ रहता था। वह किदवई नगर से स्कूटर से  आता और शाम सात बजे मेरे साथ ही निकल जाता।

                      फिर उसके अनुसार उनका इलाज चलने लगा।  हम १८ दिन उसी तरह सुबह से शाम तक कुर्सियों पर बैठे रहते और शाम को घर चल देते , इस आशा के साथ शायद कल कोई प्रगति हो।  फिर एक दिन मैंने डॉक्टर  शुक्ला से कहा कि हमें एक रूम तो दे दीजिये और फिर उसी दिन हमें रूम अलॉट हो गया और भाई साहब को वहां शिफ्ट कर दिया गया। अब हमको थोड़ा संतोष मिला कि हम उन्हें देख सकते हैं और अगर कोई प्रगति भी होती है तो हम देख सकते हैं। अब भाभी और रुचिर  नर्सिंग होम में रहते और हम दोनों लोग वापस आ जाते।  सुबह सबके लिए खाना और पानी लेकर हम दोनों ही पहुँच जाते। धीरे धीरे उन्होंने आँखें खोलना शुरू कर दिया और स्थिर रहते थे।  बहुत धीमी सही प्रगति होने लगी।  अभी आवाज नहीं आयी थे लेकिन वे सब सुन रहे थे।  भाभी सामने जाती  में आँसूं आ जाते। अब हम सिर्फ उनको सांत्वना ही दे सकते थे।  डॉक्टर ने कहा कि  हम उनके पास खड़े होकर उन्हें स्पर्श थेरेपी दें तो वह जल्दी प्रतिक्रिया करने लगेंगे।  वह सब सुन रहे थे और फिर हाथ में भी हरकत होने लगी।  

                      दवा के साथ पूजा पाठ , जप , हवन सब चल रहे थे।  हर नयी प्रगति से मन खुश हो जाता।  लखनऊ से हमारे चाचा जी का निर्देश था कि मुझे रोज बताओ कि  भैयाजी (हम सब घर में उन्हें इसी नाम से पुकारते थे। वे बहुत ही सामाजिक और व्यवहार कुशल व्यक्ति थे।  घर हो या बाहर उनका व्यवहार सराहनीय रहा।  उरई में खासे लोकप्रिय भी थे।  डीएवी इंटर कॉलेज के रिटायर्ड प्रिंसिपल थे।  क्रिकेट के लिए भी जाने जाते थे। 

                         फिर उन्होंने सबसे पहले अपने बेटे का निकनेम  डब्बू बुलाया।  हम सबकी बांछें खिल गयीं।  अब उनको नाम लेने के लिए कहा जाने लगा।  और फिर धीरे धीरे हम सबके नाम लेने लगे और स्मरण शक्ति  भी उनकी वापस आनी शुरू हो गयी। सबको देख कर पहचानने लगे थे।  

                       संजय (गुड्डू) मेरी बुआ का बेटा जो मेरे हर सुख - दुःख में हम लोगों के कंधे से कन्धा मिला कर खड़ा रहता था।  भैयाजी के हॉस्पिटल आने के साथ ही वह नियम से आ रहा था और हम सबके साथ बैठा रहता। वह मुझसे कुछ ही छोटा था।   एक दिन वह मुझसे बोला कि मैं आज ११ बजे का निकला हूँ और अब यहाँ पहुंचा हूँ।  मैं उससे थोड़ी ही बड़ी थी लेकिन मैंने उसको बहुत तेज डाँटा कि इस लू धूप में स्कूटर से घूमते हो कहीं लू लग गयी तो ? आज के बाद धूप में  नहीं निकलोगे। ' और उसने वादा भी किया कि अब वह शाम को ही निकल कर आएगा।   वह हमारे परिवार का सबसे ज्यादा सबके सुख और दुःख में साथ देने वाला था।  हमारे लिए तो वह एक ऐसा इंसान था कि अगर कभी मुसीबत आई तो सबसे पहले आने वाला वही था।  रात में घर पहुंची तो गुड्डू का फ़ोन आया - "रेखा मुझे बुखार आ गया। "

                       अब उसको डांटने  का मन नहीं कर रहा था तो मैंने समझाया -  "अब तुम धूप में बिलकुल नहीं निकलना।  मैं भैयाजी का अपडेट देती रहूंगी। आराम  करो और दवा लेते रहो।  लू लगी है ठीक हो जायेगी। "

                    हम तो अपने काम में लगे ही थे। 22 अप्रैल को रुचिर की शादी होनी थी , सारी व्यवस्था हो चुकी थी , यहाँ तक कि होटल  से लेकर मैरिज हाल तक बुक थे और भी सारी तैयारियाँ  हो चुकी थीं।  हम ये सोच रहे थे कि भाई साहब बस इतना हो जाए कि व्हील चेयर में बैठ सकें तो हम उनको उरई ले जाएंगे और सब मैनेज हो जाएगा। उनमें सुधार बराबर हो रहा था और डॉक्टर भी कह रहे थे कि आप ले जा सकते हैं,  लेकिन हमारी तरफ से उन्हें अभी हॉस्पिटल में रखना जरूरी था।  प्रगति धीमी हो रही थी और उससे  संतुष्ट नहीं थे। फ़िज़ियोथेरेपिस्ट भी अपना काम बखूबी कर रहे थे।

                हमारे लखनऊ वाले चाचा जी हमारे सबसे ज्यादा शुभचिंतक थे।  वह भैयाजी की रोज के समाचार हमसे लेते रहते थे कि कितनी प्रगति है।  उन्होंने यहाँ तक मान्यता की कि भैयाजी ठीक हो जाएगा तो हम सब गाँव चल कर कुलदेवता का हवन करेंगे।  

                               चाचा जी का फ़ोन आया कि अगर भैयाजी जा  न सकें तब भी शादी मत रोकना। तुम दोनों यहाँ पर उसके पास रहना और वहां सादे समारोह में शादी करवा दी जाय। हम इसके लिए तैयार थे। हमने भाभी को 14 अप्रैल को उरई भेज दिया कि वे वहां सबके साथ काम शुरू करें और भतीजी भी पहुँच जायेगी। शादी की घर की पहली रस्म शुरू हो गयी। उसी रात लड़की वालों के यहाँ से खबर आयी कि उनके समधी (बड़ी बेटी के ससुर जी ) का कोरोना से निधन हो गया। शादी का कार्यक्रम निरस्त कर दिया गया। 

                       इधर गुड्डू का RTPCR  नेगेटिव आया तो  कुछ राहत मिली।  बुखार आ जा रहा था कि एक रात 12 :30 पर गुड्डू का फ़ोन आया कि ऑक्सीजन लेवल 87 आ गया है क्या करूँ  ? इनको जानकारी थी और उससे कहा कि नारायणा हॉस्पिटल में बेड खाली है , तुरंत एडमिट हो जाओ। उसका बेटा लेकर आया और एडमिट करवा दिया। ऑक्सीजन लगा दी गयी। फिर रेमिडसिविर की जरूरत पड़ी वह  कहीं भी नहीं मिला।  दो दिन बाद मिला और लगना शुरू हुआ और फिर आईसीयू में ले जाने के लिए जद्दोजहद शुरू हो गयी किसी तरह आईसीयू में बेड मिला। उसका वहां इलाज  शुरू हुआ। लेकिन नहीं दुर्भाग्य मेरे साथ खड़ा था। गुड्डू को वेंटीलेटर पर रखा गया। उनका सीटी स्कोर ख़राब था। रात को नींद नहीं आयी और डेढ़ बजे भतीजे का फ़ोन आया कि बुआ पापा नहीं रहे। मुझे लगा कि मेरे दोनों हाथ आज कट गए। वह भाई से साथ साथ दोस्त ,  सुख - दुःख में साथ देने वाला और सबसे अजीज भाई था। जब  इनका गॉलब्लेडर का ऑपरेशन होना था। हम दोनों अकेले थे , बच्चे बाहर , जेठ - जेठानी बेंगलोर अपनी बेटियों के पास। वह ऑपरेशन तक साथ रहा। फिर वह अपनी नौकरी के लिए स्कूटर इंडिया , लखनऊ के लिए सुबह पाँच बजे घर से निकलता , आठ बजे ऑफिस रिपोर्ट करना होता था , वहां से पांच बजे निकल कर आठ बजे कानपुर। दिसंबर का महीना था स्टेशन से सीधे नर्सिंग होम आता और हमारे पास दो घंटे रुकता और रात दस बजे घर के लिए निकलता। जब तक वहां रही उसका यही क्रम रहा।मेरे लिए वह बहुत बड़ा सहारा था और मैं असहाय हो चुकी हूँ।  

                                 संजय (गुड्डू)


                 कोरोना ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए थे  और शहर में इतनी मारामारी पड़ रही थी।  बेड नहीं , ऑक्सीजन नहीं  और जरूरत होने पर आईसीयू में भी जगह नहीं। जहाँ भाईसाहब थे , उनके फ़िज़ियोथेरेपिस्ट को कोरोना हो गया।  वह हमारे संपर्क में आता ही था क्योंकि हम दिन भर उसी कमरे में रहते थे। वहां डॉक्टर और स्टाफ ने हमारा हॉस्पिटल आना बंद करवा दिया कि अब आप लोग न आएं। सिर्फ रुचिर को रहने दीजिये ।  रुचिर भी डरा हुआ था तो बोला - " बुआ आप और फूफा जी यहाँ मत आइये क्योंकि अगर आप दोनों को कुछ हुआ तो मैं नहीं सँभाल पाऊंगा और  अगर मुझे कुछ हुआ तो आप लोग सँभाल लेंगे। "

                         आखिर हमने जाना बंद कर दिया।  बस ये खाना और पानी उसको दे आते।   

                      इधर मेरे जेठ जी जिनको कई दिन से बुखार आ रहा था, लेकिन हम दोनों ही भाईसाहब , गुड्डू के लिए परेशान  थे, संयुक्त परिवार में रहते हैं तो चिंता  भी थी। उसी  सुबह  जेठानी जी ने कहा कि बुखार नहीं उतर रहा है , टेस्टिंग करवा दीजिये। तुरंत ही एंटीबाडी टेस्ट करवाया जो पॉजिटिव था लेकिन ऑक्सीजन लेवल ठीक था और उनकी दवा डॉक्टर की सलाह पर चलने लगी। दो दिन लेवल सही रहा और फिर एक दिन  87 आ गया। ये उनको लेकर भागे। करीब 5 - 6 नर्सिंग होम में जगह न मिलने पर एक नर्सिंग होम के आईसीयू में जगह मिली और उन्हें  एडमिट करवा दिया। कुछ राहत मिली।

                       सुबह उठी तो जेठ जी की भी चिंता लगी थी लेकिन वहां   परिचित आईसीयू  स्टॉफ था। इन्हें उम्र के कारण वहाँ न रुकने की सख्त हिदायत थी। फ़ोन से ही इनको तबियत के बारे में अवगत कराया जा रहा था।  दोपहर जेठ जी की हालत गंभीर हुई तो पूछा गया कि अंकल जी  वेंटिलेटर पर डालने की जरूरत है।  इनका दिमाग ठनका लेकिन फिर भी अनुमति दी और वेंटिलेटर पर डालने से पहले ही वहां से आवाज आयी - 'अंकल जी चले गए। ' और ये तुरंत गाड़ी लेकर निकल गए।  शाम पांच बजे वह भी साथ छोड़ गए।  मेरी एक पड़ोसन मित्र वो भी अचानक ही चली गयीं।  कोरोना तीन तीन मेरे अपने लोगों को एक दिन में ही लील गया।  रोऊँ भी तो कैसे ? जेठानी  को नहीं बताया और उनकी बॉडी भी सुबह लेने का आग्रह किया।  उनकी बेटी को झाँसी से आना था।  दो बेटियाँ आस्ट्रेलिया और यू एस में हैं तो आना संभव ही नहीं था। ये दो भाई थे और अकेले रह गए। मेरे पति से सात साल बड़े थे और जन्म से लेकर उस दिन तक कभी अलग नहीं रहे। 41 साल तो मेरी शादी को हो चुके हैं।

                                                                     

                                    जेठजी
                                                                     

                       हम चार लोग घर में थे ,  बेटियों की शादी हो चुकी है।  अब बस तीन रह गए थे।  

              भाई साहब ने भी उरई ले चलने की रट लगा रखी थी।  हम जेठजी के बाद घर में होने वाले संस्कारों को पूरा कर रहे थे और उनको नहीं बताया था। एक दिन वह रट लगा गए कि गुड्डू नहीं आ रहा है , मेरी उससे बात करवा दो। उनको ब्रेन पर कोई शॉक न लगे इसलिए उनको बताया नहीं गया कि गुड्डू अब नहीं रहा। उनको झूठा फ़ोन  लगा कर कह दिया कि मिल नहीं रहा है। जैसे ही मिलेगा तो बात करवा देंगे।

                            हम जेठ जी  तेरहवीं आदि के लिए घर पर ही थे। गुड्डू का सदमा हमारे चाचाजी भी सहन नहीं कर पाये और लखनऊ वाले चाचाजी भी कोरोना के कारण हमें अचानक ही छोड़ कर चल दिए। जो भाई साहब  के लिए इतना चिंतित थे कि  मुझसे रोज उनकी तबियत में होने वाली प्रगति लेते रहते थे और वो भी हमें छोड़ कर चले गए । एक के बाद एक सदमा लगता चला जा रहा था। चाचा जी के न रहने पर एक दिन भाई साहब ने जिद पकड ली कि आज मुझे चाचाजी से बात करनी है। किसी तरह से उनको बहला कर ध्यान वहां से हटाया। 

                                                                              


                        चाचाजी  (विजय कुमार श्रीवास्तव )

                        इसी बीच पता चला कि उनके अजीज मित्र अरुण भाई साहब भी कोरोना में चले गए।  वह भी उनको नहीं बताया गया। इतने सारे राज हम छिपा गए थे।एक दिन उन्होंने इनका सिर बिना बालों का देख लिया और  वह समझ गए कि जेठ जी नहीं रहे। अब उनका मन नहीं  लग रहा था क्योंकि भाभी को उरई भेज दिया गया था और मेरा भी जाना बंद कर दिया गया था। फ़ोन पर बात करती तो कहते - रेखा मुझे उरई ले चलो। मैं उन्हें आश्वासन दे देती कि बस चलते हैं। भाभी से बात होती तो कहते अब उरई आना है , यहाँ मन नहीं लग रहा है। 

                         हम पूरी तैयारी 15 मई को उनको उरई ले गए। उनके अनुरूप ही बिस्तर और गद्दे की व्यवस्था की गयी।  हम चार दिन रुके , उनके लिए फ़िज़ियोथेरेपिस्ट की व्यवस्था , ड्रेसिंग की व्यवस्था सब करके आना था।  एक दिन जब हम चलने को तैयार हुए तो कहने लगे आज मत जाओ , कल चले जाना। हम रुक गए और जितने दिन वहां रही उनको खाना खिलाना, दवा देना सब मैं करती थी। आखिर 18 मई को मैं वापस कानपूर आ गयी। एकदम स्वस्थ थे , हमारे और इनके पैर  विदा किया था और हम वादा करके आये थे कि हम फिर जल्दी ही आएंगे।  बीच बीच में  उनसे विडिओ कॉल से बात होती और फ़ोन पर भी।उन्हें सांत्वना देते कि  वह जल्दी ही पूरी तरह ठीक हो जायेगे 

                                                                                


                                                                                                          भाईसाहब (विनोद कुमार श्रीवास्तव )

                   उस सुबह रुचिर का फ़ोन आया तो मैंने समझा कि उसको कानपुर आना था तो कह रहा होगा कि आप लोग तैयार रहें।  हम दोनों को उसके साथ उरई जाना था।  जब फ़ोन उठाया तो उसने कहा - ' बुआ पापा नहीं रहे। " एक बार फिर वही वाक्य जो मैं एक बार सुन चुकी थी दुहराया जा रहा था।  मेरी हालत कोई और नहीं समझ सकता था और हम गाड़ी से उरई के लिए रवाना हो गए। रात में अच्छी तरह खाना खाकर सोये थे और फिर सुबह उठे ही नहीं। साइलेंट हार्ट अटैक ने मुझसे मेरा इकलौता बड़ा भाई छीन लिया।ये रहे मेरे जिंदगी के सबसे ज्यादा कष्टपूर्ण दिन।कौन कितना दिल पर लेता है नहीं जानती लेकिन मैं तो टूट सी गयी। 

                         यहाँ तक इति नहीं थी। इस  बीच कम से कम मेरे रिश्तों से जुड़े करीब २० लोग कोरोना का शिकार हो चुके थे।जीवन में इतने अपनों  साथ कभी नहीं खोया था। 


सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

पैसे के वास्ते !

                            ये बात मेरे घर  के ही जुड़े कुछ लोगों की है , इसमें संदेह के  कोई गुंजाइश नहीं है लेकिन अगर कोई ये कहे कि  इतना सब सुनकर मैं चुप कैसे रही ?  इसके लिए मैं कहूं कि अपनी सलाह वहीँ  दी जाती है जहाँ उसका मान हो,  नहीं तो दुनियां में बहुत से लोग हैं जो अपने को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं .

                      रीमा के संयुक्त परिवार में जुड़े कुछ रिश्तेदार एक कार्यक्रम में इकट्ठे थे . उनमें से एक परिवार का बेटा आई ए एस की  तैयारी कर रहा था . ये बात सभी को पता थी। उस समय सब रिश्तेदारों के  गोष्ठी  चल रही थी।बच्चों को लेकर  बाते हो रही थी कि किस बच्चे की पढाई अपनी मंजिल के करीब  आ चुकी है और कौन अभी भी  संघर्षरत है।
                       उनमें जिन  रिश्तेदार का बेटा आईएएस की तैयारी  कर रहा था , उसने प्री ही निकाला  था . वह गाँव से जुड़े एक परिवार से था और उसके पिता भी एक ईमानदार कृषक थे . जिन्होंने अपनी उसी मेहनत  की  कमाई  से ही अपने बच्चों को पढाया था . उसके मामाजी बोले -  '"बस तुम आईएएस  निकाल लो फिर देखो कैसे मैं पैसे बनाने की तरकीब सुझाता हूँ . तुम बस मुझे काम देते जाना और मैं करूंगा वो काम जिसको  तुमने सोचा भी नहीं होगा . बस दस साल में तुम्हारे घर और घर वालों की जिन्दगी बदल जायेगी . तुम्हारे पापा ने तो कभी कुछ कर नहीं पाया तुम्हें भी वही पाठ पढ़ाएंगे।"
                           ऐसे लोग ही  बर्बाद करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। बच्चे तो इस स्तर तक पहुँचते पहुँचते अपना रात दिन एक करके सब कुछ लगा देते हैं,   तब उन्हें मंजिल मिलती है लेकिन यहाँ पहुँच कर दिशा भटक जाने वाले ऐसे ही लोगों के संरक्षण में रहते होंगे।  तारीफ की बात ये है  कि उस परिवार से जुड़े किसी भी व्यक्ति ने इस बात पर कोई सकारात्मक या नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं जताई बल्कि हंस हंस कर उसको दुहरा  रहे थे।   बाकी लोगों को क्यों दोष दें ? यही लोग जब कहीं और जाते हैं तो फिर कहेंगे कि  वहां कोई काम ही बिना लिए दिए होता नहीं है।  आप पैसे दूसरे ढंग से कमाना चाहते हैं और उसी तरह से बच्चों को कमाने के नुस्खे सिखा रहे हैं फिर और जगह जाकर रोते क्यों है ?  अब इस बात को गलत भी नहीं समझा  जाता है क्योंकि  हमने इसको सामाजिक शिष्टाचार में शामिल कर लिया है .
                           एक सरकारी नौकरी के लिए लोग लाखों रुपये देने को तैयार रहते हैं , सबसे पहले कॉल आने से पहले ही जुगाड़ खोजने लगते हैं कि कहाँ पहुँच कर सौदा पटाया जा सकता है . जब वे पैसे भर कर वहां पहुँच जाते हैं तो फिर अपने पैसे को वसूल करके और अधिक कमाने के रास्ते खुद ही निकल आते है .