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शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

भीख नहीं लेंगे!

मैं झाँसी स्टेशन पर उरई आने के लिए बैठी ट्रेन का इन्तजार कर रही थी की करीब आठ और दस वर्ष उम्र के दो बच्चे मेरे पास आए।
उनमें से एक बोला - 'मैं आपके पैर दबा दूँ।'
मैं कुछ समझी नहीं कि इन बच्चों का इरादा क्या है? मैंने उन्हें मना कर दिया तो थोडी दूर जाकर छोटा बच्चा रोने लगा और बड़ा उसको चुप करा रहा था।
मन में कुतूहल हुआ और मैंने बच्चों को अपने पास बुलाया और उनसे पूछा, 'तुम पैर क्यों दबाना चाहते हो?'
' हमें पैसे चाहिए', उनसे हम 'लाइ-चना' लेकर बेचेंगे। हमारे पास तराजू और बाँट तो है।' बड़े बच्चे ने मुझे बताया और कंधे पर लटके झोले से मुझे तराजू और बाँट दिखलाये।
'तुम्हारे माँ-बाप नहीं है क्या?' मैंने उनसे जानना चाहा।
'माँ बीमार पड़ी है घर में, पिताजी कुछ दिन हुए नहीं रहे हैं, वे लाई-चना बेचते थे तो यह बाँट और तराजू हमारे पास है।'
उन बच्चों पर बड़ा तरस आया तो मैंने उनसे कहा, 'लो पैसे मैं तुमको देती हूँ, तुम 'लाई-चना' लेकर बेचना।'
मैंने पर्श खोलकर जब उन्हें रुपये निकल कर देने को हुई , तो वे बच्चे पीछे हट गए और बड़ा बच्चा बोला --'मैं भीख नहीं लेता, माँ ने हमें मना किया है। आपके पैर दबा देता तो इन्हें ले लेता, नहीं तो आपका सामन ट्रेन तक पहुँचा दूँ, तो ले लूँगा।'
बाद में उन बच्चों ने मेरा बैग लाकर ट्रेन में रखा तब ही पैसे लिए।

क्या इससे कुछ सिखा जा सकता है? शायद वक़्त के साथ यह ईमानदारी के मानदंड भी बदल गए हैं। बच्चे क्या अबा तो बड़े भी भीख माँगने के नए नए तरीके इजाद करके व्यापार बना चुके हैं।

***प्रकाशित 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' 1978