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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

जद्दोजहद भरी यात्रा !

                     घर से कहीं बाहर जाने के लिए निकलते हैं तो सोचते हैं कि यात्रा सुखद ही होगी. लेकिन हम ये नहीं सोच पाते हैं कि ये कैसे किसकी कृपा से जद्दोजहद में बदल जाती है. इस बार तो हमारे रेलवे के भेंट ही चढ़ गयी हमारी यात्रा और हम जिन्दगी भर नहीं भूल पायेंगे. किसी खेल के तरीके से या मैच के दौरान जब हमारी जीत और हार कुछ ही रनों के ऊपर निर्भर होती है और हम सब खेल प्रेमी हाथ जोड़ कर भगवान से मनाते हैं कि ये मैच हम जीत जाएँ. उनका हो तो उनका ये विकेट जल्दी से गिरे और हमारा हो तो बचा रहे. बस एक छक्का लग जाये . रन और बाल के बीच के अंतर को तौलते हुए चलते रहते हैं ठीक वैसे ही हम भी दो ट्रेनों के बीच के अंतर को तौलते हुए चल रहे थे.
                    हम कानपुर से चले कि किसी भी ट्रेन से झाँसी पहुँच जायेंगे और वहाँ से हमारा रिजर्वेशन गौंडवाना एक्सप्रेस में था, जो कि रात ९:५७ पर नागपुर के लिए जाती है. हम १ बजे स्टेशन पहुंचे तो पता चला कि झाँसी के लिए ८ बजे से कोई ट्रेन नहीं आई. राप्ती-सागर आने वाली है लेकिन वह भी ३ घंटे लेट है. हम ने बीच का अंतर निकल कर मन को समझा लिया कि अगर ५ घंटे में भी पहुंचा दिया तो हम समय से पहुँच जायेंगे. किसी तरह से राप्ती-सागर आई और हम उसमें बैठे. अभी तक तो निश्चिन्त थे कि हमारी ट्रेन मिल ही जाएगी. अब गाड़ी कि गति धीरे धीरे कम होने लगी . कानपुर से उरई के बीच के लड़के जहाँ उतरना हुआ आराम से चेन खींची  और उतर गए. हम अभी भी मन में समय का तालमेल बैठाये दिल को तसल्ली दे रहे थे कि ट्रेन तो हमको मिल ही जाएगी. हम झाँसी के किनारे तक पहुँच गए और हमें आशा थी कि अभी भी हमें दस मिनट  का समय मिल जायेगा और हम ट्रेन पकड़ ही लेंगे लेकिन ये क्या? ट्रेन एक नए बने स्टेशन पर खड़ी हो गयी और हमारे दिल की धडकनें भी तेज हो गयीं किअब हमें हमारी ट्रेन नहीं मिल पायेगी. पता नहीं कितने सारे भगवान याद कर लिए कि किसी तरह से ये ट्रेन समय से पहुँच जाये नहीं तो हम क्या करेंगे? वैसे भी तत्काल में लिया हुआ रिजर्वेशन उसके बाद कोई और सूरत नहीं होगी. लेकिन अब भगवान भी कोई सहायता नहीं कर सकता था क्योंकि झाँसी outar पर आ कर ट्रेन खड़ी हो गयी. अब हम कोई और सूरत तो सोच ही नहीं पा रहे थे. हमारी ट्रेन जो ६:४५ पर झाँसी स्टेशन आनी थी ठीक ९:५६ पर आ कर खड़ी हुई और हमारी ट्रेन का समय था ९:५७. दो प्लेटफार्म पार करके ट्रेन पकड़ना आसान नहीं था. फिर कोशिश कर ली जाये और हम लोग भागे. जब प्लेटफार्म की सीढियां उतर रहे थे तो सामने ट्रेन खिसकने लगी और B1 कोच एकदम सामने थी. पतिदेव बोले कि अपनी कोच सामने है जल्दी से चढ़ लो. हम दोनों ही गिरते पड़ते उसमें चढ़ गए. उसमें खड़े लोगों ने पूछा कि कहाँ जाना है? हमने बता दिया कि इस कोच में हमारा रिजर्वेशन है और हमें नागपुर जाना है.
"ये तो जबलपुर जा रही है."  उनमें से एक ने बताया. हमें तो काटो खून नहीं.
"लेकिन ये गोंडवाना एक्सप्रेस है न."
"जी, लेकिन ये आगे दो भागों में बाँट जायेगी और आगे वाला नागपुर जाएगा और ये जबलपुर. "
 अब समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें? ट्रेन पूरी गति पर थी. और उन लोगों ने ये भी बताया कि ये ट्रेन ठीक समय से चल दी थी लेकिन पता नहीं क्यों २ मिनट के बाद रुक गयी नहीं तो आप को मिल ही नहीं सकती थी.
             अब ट्रेन आगे बीना में ही रुकेगी तब ही कुछ हो सकता है, अब ये डर कि हमारे न पहुँचने पर TT हमारी सीट किसी और को न दे दे. खैर AC   का टिकेट लेकर हम दरवाजे के पास दो घंटे खड़े रहे. बीना में हम १२ बोगी पार करके अपनी कोच में पहुंचे तो TT महाशय हमारे ही इन्तजार में खड़े थे क्योंकि वे तो रोज ही हम जैसे गलती करने वालों से दो चार होते होंगे.
"आपको कहाँ जहाँ है? " उन्होंने हमें देखते ही सवाल दगा.
"हमें नागपुर जाना है और हमारा इसी में रिजर्वेशन है." हमने बताया.
"आप दो स्टेशन तक नहीं आये तो हमने वो सीट RAC वालों को दे दी. अब ये तो नियम है तो हम कुछ नहीं कर सकते हैं.


"ठीक है, फिर हमें क्या करना होगा? हम नीचे उतर जाएँ." मैं पहले से ही मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार थी कि ये स्थिति जरूर आएगी क्योंकि TT महोदय हमारी सीट किसी और के बेच चुके होंगे.
"ठीक है, आप हमारे टिकेट पर लिख दीजिये कि हमारी सीट नियमानुसार दूसरे को दे दी गयीं हैं और हमारी टिकेट अब अवैध है." मैंने उनसे कहा.
"जी, ये तो मैं लिख कर नहीं दे सकता हूँ."
"फिर हम क्या करें? नीचे उतर जाएँ या फिर इतने पैसे खर्च करने के बाद जमीन पर बैठ कर जाएँ."  मामला बिगड़ता देख कर उन्होंने इसी में भलाई समझी कि हमें कुछ व्यवस्था करके बैठा दिया जाय. फिर उन्होंने हमें दूसरी सीट पर जाने की व्यवस्था की और हम रात १२:३० पर किसी भी सीट पर जाकर लेट सकें.
                रेलवे कि ये सौगात जीवन में पहली और आखिरी सौगात बन गयी. लेकिन एक प्रश्न जरूर छोड़ गयी कि अगर रेलवे की गलती से लिंक ट्रेन देरी से आती है या उसके ३-४ घंटे देरी से आने पर अगर किसी कि ट्रेन छूट जाती है तो रेलवे को इसके लिए कोई विकल्प सोचना होगा. फिर ऐसे यात्रियों का टिकट दूसरी ट्रेन में वैध मान कर उनको यात्रा करने की अनुमति प्रदान की जानी चाहिए. उस समय जब कि यात्री कि कोई भी गलती न हो.

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

'फंसा लिया होगा'!

                     क्या आर्थिक दृष्टि से कमजोर कहे जाने वाले लोग (ये दृष्टिकोण है तथाकथित पैसे वाले होने का दंभ रखने वालों का ) लोगों को एक सुखद और सुंदर भविष्य का सपना देखने का भी हक़ नहीं है और अगर वे बेहतर जीवन   की ओर कदम बढ़ाते हैं तो लोगों को लगता है कि 'फंसा लिया होगा'!
           पिछले हफ्ते मेरी एक परिचित अपनी बेटी कि शादी का कार्ड लेकर आयीं , शादी उन्होंने काफी महंगे होटल से करने का संकेत दिया था. अन्दर जब कार्ड में पढ़ा तो पता चला कि वे लड़की की शादी अंतरजातीय कर रही थीं. लड़की उनकी एक बैंक में नौकरी कर रही थी. पहले तो लोगों ने कार्ड देख कर ही कहा - ' इनकी तो औकात नहीं कि इस होटल से शादी करें. जरूर लड़के वालों ने पूरा खर्चा उठाया होगा. अच्छे घर का लड़का फंसा लिया होगा. '
                      अभी तक न लड़का सामने था और न ही उसका घर,  लेकिन लोगों के व्यंग्य चलने लगे थे. ऐसा नहीं ये सिर्फ लड़की के लिए ही व्यंग्य चलता है , इसके विपरीत भी होता है अगर लड़की पैसे वाले परिवार की या फिर अच्छी नौकरी वाली हुई तब भी लोग ऐसे ही बोलते हैं. खुद मैंने कई बार सुना है. इस बार तो सुन कर लगा कि क्या दो लोगों का आपसी सामंजस्य की धुरी पैसा ही होता है. अगर आज लड़के और लड़की अपनी रूचि या फिर अपने जॉब के अनुरुप लड़के देख रहे हैं तो बुरा क्या है? जीवन उनको बिताना होता है और ये तो अभिभावकों कि समझदारी होती है कि वे बच्चों कि पसंद पर अपनी स्वीकृति कि मुहर लगा देते हैं. ऐसा नहीं पहले भी ऐसा ही होता था हाँ बहुत अधिक न था किन्तु गुण और रूप के कद्रदान लड़की या लड़के के घरवालों के पैसे को नहीं बल्कि उस व्यक्तित्व को महत्व देते थे. वही आज भी है. घर वाले चाहे इस बात को न सोचें लेकिन ये तथाकथित शुभचिंतक जरूर ऐसे संबंधों को शोध विषय बना देते हैं. मैंने  तो  इस  विषय  में  भी  लड़के के घर वालों कि विनम्रता देखी कि वे कह रहे थे कि हम नहीं आप अधिक बड़ी हैं क्योंकि आप हमें अपनी बेटी दे रहे हैं. लेने वाला कभी बड़ा हो ही नहीं सकता है.
                     तब लगा कि बेकार में लोगों के पेट में दर्द होने लगता है कि अगर शादी अंतरजातीय है तो जरूर किसी ने किसी को फंसाया ही होगा.

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

मुँह छिपाना पड़ता है!

                  पिछली पोस्ट में तो अपने बीच रहने वाले कुछ अनजाने चेहरे की छवि को देखा लेकिन ऐसे काम हमें तब शर्मिंदा कर देते हैं जब कि हम उसमें कोई भागीदारी  नहीं रखते हैं. पर अपना चेहरा नहीं दिखा पाते हैं दूसरों के कर्मों से. जिनसे हमारा कोई लेना देना नहीं है लेकिन वे हमारे भाई हैं इसलिए और सिर्फ इसलिए शर्मिंदगी हमें घेर लेती है.
                         कुछ साल पहले तक कानपुर में दंगे हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी. इधर कुछ वर्षों से शांति है और ईश्वर करे कि ये शांति हमेशा बरक़रार रहे. एक बार के दंगों के बाद की बात है - दंगे ख़त्म हो गए लेकिन मेरे पति के एक बचपन के दोस्त है - जावेद हुसैन वारसी. वे बैंक में काम करते हैं . मैंने तो अपनी शादी के बाद ही जाना कि ऐसी दोस्ती होती है, जावेद भाई की अम्मी जब तक रही मुझे बहू माना (जावेद भाई की शादी काफी बाद में हुई) . हर सुख दुःख बाँटते रहे हैं. अम्मी को कैंसर हुआ तो जावेद भाई को चिंता नहीं थी सब आदित्य देख लेंगे दिन में कुछ घंटे मुक़र्रर थे कि इनको अम्मी  के पास रहना ही है. कभी तकलीफ बढ़ी तो फ़ोन आ जाता और फिर हम लोग हाजिर. अगर मेरे ससुर जी अस्पताल में हैं तो फिर खाना घर से नहीं बल्कि जावेद भाई के घर से आता. बाकी सारी चीजें भी वही से. ऐसा नहीं  जावेद भाई भी मेरी सास के दुलारे हैं और अब जब कि उनको दिखाई कम देता है सुनाई भी नहीं देता लेकिन अगर जावेद भाई आ कर खड़े हो जाएँ तो तुरंत पहचान लेंगी.
                    कोई भी सुख दुःख हो रिश्तेदारों को बाद में पहले इधर की खब़र जावेद भाई को और वहाँ की खबर हमारे घर आती है.
               एक बार दंगों के बाद बहुत दिनों तक जावेद भाई का कोई फ़ोन नहीं कोई खबर नहीं. मेरे पतिदेव को अधिकारवश गुस्सा जल्दी आता है तो कहने लगे कि इसने इतने दिनों से कोई खबर नहीं ली. मैं भी नहीं करूंगा फ़ोन. मुझे लगा कि हो सकता है  कुछ गड़बड़ न हो.
                मैंने इनसे चुपचाप जावेद भाई को फ़ोन किया तो पता चला कि बेटे कि तबियत ख़राब है और हम लोगों को खबर नहीं , ये पूरी दोस्ती में पहली बार हुआ और वह भी तब जब कि उनका बेटा इनका बहुत दुलारा है.  मैंने इनको बताया. हम दोनों जावेद भाई के घर पहुंचे. इनकी तो गुस्सा काबू में नहीं - 'तुमने समझ क्या रखा है. ताबिश की इतनी तबियत ख़राब और मुझे खबर तक नहीं दी. तुमने क्या सोचा? क्यों नहीं दी मुझको खबर अगर इसके तकलीफ होती है तो मुझे नहीं होती. ये तुम्हें पता है कि मेरा बेटा है. ( जावेद भाई का बेटा उनकी बड़ी बेटी के १४ साल बाद हुआ और उनकी पत्नी की बीमारी के लिए उन्हें मेरे पति के सहयोग से ही रोग का पता चला और उसके बाद बेटा हुआ सो वह इनका बेटा कहा जाता है.)
                 जावेद भाई सिर झुकाए कुछ बोले नहीं, फिर हिम्मत करके बोले - 'आदित्य इस दौरान जो हादसे हुए उसके बाद मेरी हिम्मत तुमसे बात करने की नहीं हुई , पता नहीं तुम क्या सोचो मेरे बारे में.' उनका गला भर्रा गया था. ' और फिर दोनों मित्र गले लग कर रो पड़े.
                'अरे , तुमने  ये सोचा भी कैसे ? हम दो कब हैं, फिछले ५० साल की दोस्ती में बस इतना ही समझा तुमने.'
             उन लोगों कि प्यार भरी लड़ाई और रोना देख कर हमारी भी आँखें भर आयीं थी. तब से आज तक चाहे कुछ भी हो, उनकी दोस्ती वहीं है. बस एक बार कैसे जावेद भाई को ये अहसास हुआ? ये मैं नहीं जानती लेकिन ईश्वर ये प्रार्थना है की ऐसा प्यार सभी दोस्तों में हो.

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

मैं भी थी उनके बीच .....

                     सब कहते हैं कि आतंकवादियों  का कोई मजहब या ईमान नहीं होता. हम पहचान भी नहीं पाते हैं उनको और वे हमारे साथ रहते हैं. ऐसे ही लोगों के बीच में भी रही और नहीं पहचान पाई. पहचानने की कोई  गुंजाईश भी नहीं थी क्योंकि पढ़े लिखे इंजीनियर आप उनसे क्या उम्मीद कर सकते हैं?
                                  आई आई टी में भी २००२ की बात हम सब अपने लैब में काम कर रहे थे कि हमारे साथियों में से एक बोला - 'आज शहर में कुछ होने वाला है.'
"क्या होने वाला है?" सबने पूछा.
"कुछ गड़बड़ हो सकती है."
           उस समय बात आई गयी हो गयी और हमने अधिक ध्यान भी नहीं दिया.  दिन में २:३० पर शहर से उसके पास फ़ोन आया कि शहर में दंगा हो गया  और कर्फ्यू  लगा दिया गया है. शहर के कुछ इलाके बेहद संवेदनशील हैं. उनमें से एक उसी इलाके में रहता था. सभी जगह ये होने लगा कि किस तरह से सुरक्षित घर पहुंचा जा सकता है. मेरे भतीजी की एक सहेली उस समय आई आई टी में प्रोजेक्ट कर रही थी. उसकी माँ ने फ़ोन किया कि आप इंदु को अपने साथ घर लेती जाएँ क्योंकि मेरा घर आई आई टी से पास भी था और सुरक्षित रास्ते थे. उसका घर बहुत दूर था.
                  मैं उसके साथ बस स्टॉप पर खड़ी थी कि किसी तरह यहाँ से निकला जाय. तभी मेरे साथ काम करने वाले एक युवक जो कि इंदु के इलाके में ही रहता था. अपनी गाड़ी से निकला. दरअसल कर्फ्यू के बाद उसका मित्र उसको लेने आ गया था. चूँकि इंदु उसी बस से आती थे जिससे वह आता था. मुझसे बोला कि आप इनको मेरे साथ भेज दीजिये. फिक्र न करें मैं इसको सुरक्षित घर पहुंचा दूंगा. उसने गाड़ी रोक दी . मैं संशय में पड़ी कि दो लड़को और वे भी दूसरे संप्रदाय से जुड़े क्या अकेली लड़की को उनके साथ भेजना उचित है? मुझे तुरंत निर्णय लेना था क्योंकि उसने गाड़ी रोक रखी थी.
"नहीं, इसको मैं अपने घर ले जा रही हूँ, सुबह इसको घर भेज दूँगी या फिर मेरे घर पर ही एक दो दिन बनी रहेगी. "
"नहीं , आप परेशान न हों, मैं सुरक्षित पहुंचा दूंगा."
                 मैंने उसको मना कर दिया और वह चला गया. उसको लेकर मैं घर आ गयी और दूसरे दिन उसका भाई आकर ले गया.
             चार दिन तक कर्फ्यू लगा रहा. बहुत बवाल शहर में मचा रहा कितनी जाने गयीं और कितना नुक्सान हुआ. शांति होने बाद ऑफिस खुला और हम सब लोग पहुंचें. उनमें से करीब सभी आई आई टी के रहने वाले या फिर होस्टल के रहने वाले थे. मैं और वे दोनों शहर से आते थे. अपना लंच साथ लाते थे. इसलिए हम लोग लैब में ही रहते थे. लंच लेने के बाद मैंने अपनी टेबल पर सिर रख कर रेस्ट करती थी.
                        शायद उन लोगों में से एक ने सोचा कि मैं  सो गयी हूँ. कहने लगा - 'तीन दिन बाद हमारे पास सारी बारूद ख़त्म हो चुकी थी और हम पैसे लिए घूम रहे थे लेकिन हमें न बम मिले और न बारूद. नहीं तो ये लड़ाई अभी कई दिन तक चलती. '
                         मेरा दिमाग तेजी से काम करने लगा कि कितना अच्छा हुआ उसदिन मैं इंदु को इन लोगों के कहने पर नहीं भेजा. नहीं तो कुछ भी संभव था. उस दिन मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रही थी कि उसने ऐन वक्त पर मुझे संशय से बाहर निकल लिया और मैं किसी के विश्वास की रक्षा कर सकी.
                        इस तरह से हम नहीं पहचान पाते हैं ऐसे लोगों के असली चेहरे. वे हमारे बीच ही रहते हैं और हमें सोया  समझ कर सामने आ जाते हैं.