आज अम्मा की तृतीय पुण्यतिथि है लेकिन लगता है कि कल तक तो अम्मा हमारे साथ थी। वह नहीं हैं तो क्या कुछ बातें ऐसी हैं जो हमें उनकी याद उस अवसर पर जरूर ही दिला जाती है।
नए नोटों को रखने की आदत थी पुराने नोट उनके पर्स में जा ही नहीं सकते थे अगर कभी पेंशन में पुराने नोट आ गए तो वह उन्हें अपने तकिये के नीचे रख लेती और जब जेठ जी की तनख्वाह मिलती तो उनसे खरे खरे नोटों में बदलवा लेती थी। एक नयें नोटों का पर्स और दूसरा रेजगारी का। उन्हें बड़ी ख़ुशी होती जब वह किसी को भी अपने पर्स से नए नोट निकल कर देती।
जब हमारी बेटियां घर से बाहर पढने के लिए गयी तो उनके जाने से पहले दादी टीका जरूर करती और उनको नोट देती और साथ ही कुछ रेजगारी भी देती कि रास्ते में चाय पी लेना ये पैसे काम आयेंगे। उनके सामने हमारी पाँचों बेटियां घर से बाहर पढने के लिए जा चुकी थी। मजाल है कि कोई भी बेटी आये और दादी उसके जाने के पहले टीका न करें। अगर लेट नाइट की ट्रेन है तो वह बैठी रहती जब जायेगी तब टीका करेंगी उसके बिना तो जाना सम्भव ही नहीं था। जब उनकी उम्र नब्बे के ऊपर हो गयी तो बेटियां कहतीं कि दादी आप टीका कर दीजिये हम अभी जा रहे हैं ताकि उन्हें बहुत रात तक बैठ कर इन्तजार न करना पड़े।
हमारी कोई भी बेटी घर से बाहर बगैर टीके के तो गयी ही नहीं। अब जब भी बेटियां आती हैं और जाती हैं तो हमारी टीका करने की हिम्मत ही नहीं होती है कि ये काम तो अम्मा ही करती थी। फिर ये ख़त्म ही हो गया। उन्हें अपनी पोतियों की शादी देखने का बड़ा शौक था लेकिन उनके सामने सिर्फ एक बेटी की शादी हो पायी और वह भी हमने बेंगलोर जा कर की थी तो अम्मा उतने दूर नहीं जा सकती थीं और उसके एक साल बाद वो चली गयीं। लेकिन वो हमारे साथ आज भी हैं यादों में - अपनी आदतों के साथ और आशीर्वाद के साथ। आज उन्हें अपने श्रद्धा सुमन इसी तरह अर्पित करती हूँ।
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