रुचि बहुत दिनों से सोच रही थी कि कभी किसी वृद्धाश्रम में जाऊं और वहाँ रहने वाले बुजुर्गों से मिलूँ - कुछ पल उनके साथ बैठ कर शायद कुछ पा सकूं और कुछ दे सकूं। पता चला कि घर से कुछ ही किलोमीटर की दूर पर एक वृद्धाश्रम है। उस दिन निकल ही ली। वृद्धाश्रम के परिसर में गुट बनाकर बैठे बुजुर्ग हँस रहे थे , बातें कर रहे थे पुरुष और महिलायें दोनों ही थे। लग रहा था कि जैसे एक परिवार जैसा हो।
वही देखा दूर बेंच पर एक माई खामोश और अकेली बैठी थीं। गयी तो ये सोच कर थी कि हो सका तो सबसे परिचय करके और कभी कभी उनके बीच बैठ कर , कभी किसी कि पसंद जान कर उनके लिए कुछ बना कर ले जाऊँगी । उनको अच्छा लगेगा तो उसे भी अच्छा लगेगा। लेकिन अकेली बैठी माई ने मुझे अपनी ओर खींच लिया। वह उनके पास पहुंची तो देख कर उन्होंने उसे अपने पास बेंच पर बैठने के लिए इशारा किया और वह उनके पास ही बैठ गयी। अभी सोच ही रही थी कि उनसे बात कहाँ से शुरू करे ? उन्होंने पहले ही बोलना शुरू कर मुश्किल आसान कर दी।
"तुम भी यहाँ रहने आई हो?"
"नहीं, मैं तो आप सबसे मिलने आई हूँ।"
"कहीं नौकरी करती हो?
"हाँ ।"
"कितने बच्चे हैं?"
"दो बेटे हैं ।"
"शादी कर दी।"
"अभी नहीं, बड़े की जल्दी ही होने वाली है। "
"फिर मेरी एक बात मानो - अपना पैसा अपने पास ही रखना, ताकि किसी पर कभी भी आश्रित न होना पड़े। बहुत मुश्किल है दूसरों की रोटियों पर जीना।"
बिना परिचय इतनी बड़ी नसीहत देने वाली वह माई क्या क्या सह कर यहाँ आई उसे नहीं पता था, लेकिन अर्थमय जीवन में हो रहे अर्थहीन रिश्तों की कहानी तो बयान कर ही दी।
फिर उस दिन और कुछ जानने की या किसी और से मिलने कि इच्छा हुई ही नहीं। वह घर वापस आ गयीऔर सोचती रही उस मर्म को - क्या वाकई ऐसा ही है?
लेकिन कुछ हद तक ये सच होता दिख रहा है ।
वही देखा दूर बेंच पर एक माई खामोश और अकेली बैठी थीं। गयी तो ये सोच कर थी कि हो सका तो सबसे परिचय करके और कभी कभी उनके बीच बैठ कर , कभी किसी कि पसंद जान कर उनके लिए कुछ बना कर ले जाऊँगी । उनको अच्छा लगेगा तो उसे भी अच्छा लगेगा। लेकिन अकेली बैठी माई ने मुझे अपनी ओर खींच लिया। वह उनके पास पहुंची तो देख कर उन्होंने उसे अपने पास बेंच पर बैठने के लिए इशारा किया और वह उनके पास ही बैठ गयी। अभी सोच ही रही थी कि उनसे बात कहाँ से शुरू करे ? उन्होंने पहले ही बोलना शुरू कर मुश्किल आसान कर दी।
"तुम भी यहाँ रहने आई हो?"
"नहीं, मैं तो आप सबसे मिलने आई हूँ।"
"कहीं नौकरी करती हो?
"हाँ ।"
"कितने बच्चे हैं?"
"दो बेटे हैं ।"
"शादी कर दी।"
"अभी नहीं, बड़े की जल्दी ही होने वाली है। "
"फिर मेरी एक बात मानो - अपना पैसा अपने पास ही रखना, ताकि किसी पर कभी भी आश्रित न होना पड़े। बहुत मुश्किल है दूसरों की रोटियों पर जीना।"
बिना परिचय इतनी बड़ी नसीहत देने वाली वह माई क्या क्या सह कर यहाँ आई उसे नहीं पता था, लेकिन अर्थमय जीवन में हो रहे अर्थहीन रिश्तों की कहानी तो बयान कर ही दी।
फिर उस दिन और कुछ जानने की या किसी और से मिलने कि इच्छा हुई ही नहीं। वह घर वापस आ गयीऔर सोचती रही उस मर्म को - क्या वाकई ऐसा ही है?
लेकिन कुछ हद तक ये सच होता दिख रहा है ।
9 टिप्पणियां:
jivan ki ek sachayi bayan ki aapne
बहुत भयानक सच्चाई है यह।
वाकई ऐसा ही है-sach kah rahi hain vo!!
बहुत अच्छा प्रेरक आलेख!
बहुत बड़ी नसीहत।
Bechari ko sayad uski santan ne dukh pahunchaya hai....
Jsai hind jai bharat
मैंने भी बहुत बार वृद्धआश्रम के बारे में सुना है ...क्या सच में आज के बच्चे ...अपने माँ बाबा को अपने पास नहीं रखना चाहते ....क्यों ये दुनिया ....हमारे संस्कार इतने बदल गए है इस भौतिकवाद के दुनिया में ...
आपका लेख बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है दीदी
हाँ अनु, ये प्रतिशत अब बढ़ाता चला जा रहा है. अब जगह जगह ये आश्रम खुलते जा रहे हैं - अपने माता पिता को इस तरह छोड़ने वाले अपनी जगह भी तो इन आश्रमों में सुरक्षित करवा लें. इस अर्थपूर्ण जीवन में रिश्ते अबअर्थहीन हो रहे हैं.
बिलकुल ऐसा ही है रेखा जी !मैं उन माई जितनी अनुभवी नहीं फिर भी जितना देखा है.नसीहत मेरी भी यही होगी.
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