उस दिन एक मेल मिली कि प्रो. साहब की माँ का निधन हो गया. जो उनसे परिचित थे सब ने कहा - 'बहुत अच्छा हुआ , अब प्रो. साहब को अपने जीवन में चैन मिलेगा.' वैसे तो बेटे और बहुओं का माँ बाप के प्रति दुर्व्यवहार अब समाज में स्वीकार्य हो चुका है. कोई बात नहीं ऐसा अब हर दूसरे घर में होता है. पहले कहा जाता था कि पैसा बुढ़ापे का सहारा होता है , न होने पर बहू बेटे दुर्व्यवहार करते हैं लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है. पैसे से इंसान सब कुछ नहीं कर सकता है. सुख और शांति पैसे नहीं खरीद सकते हैं.
६ कमरों के बड़े मकान में प्रो. साहब , उनकी पत्नी और माताजी रहती थी. पता नहीं क्या बात थी? उनकी पत्नी को माताजी की शक्ल देखना तक गवारा नहीं था. माताजी का सारा काम वे खुद करते थे. जब क्लास के लिए जाते तो एक नर्स की भी व्यवस्था कर रखी थी. अपने घर पर होने पर वे ही सब करते . माँ को खाना खिलाने से लेकर उनको व्हील चेयर पर लेकर बाहर बिठाना और अन्दर करना वे खुद ही करते थे. इस उम्र में कई बार उनको अस्पताल में भर्ती भी करना पड़ा तो प्रो. साहब के छात्र उनका पूरा पूरा साथ देते रहे. पर पत्नी से इस बारे में उन्हें कभी कोई सहयोग नहीं मिला. उन्होंने कभी किसी से कोई शिकायत भी नहीं की.
उनके पड़ोसी उनके प्रति पत्नी के व्यवहार के साक्षी थे और माताजी के प्रति भी. पड़ोसी इस बात के गवाह थे कि जो समर्पण, सेवा और श्रद्धा प्रो. साहब में थी ठीक इसके विपरीत उनकी श्रीमती जी थी.
उनके निधन के बाद विभाग के लोग और उनकी पत्नियाँ प्रो. साहब के घर गयीं तो मिसेज प्रो. सफेद साड़ी में बैठी थीं. माताजी की तस्वीर पर फूल मालाएं चढ़ी हुई थी. उनके घर में उनकी देवरानी और जेठानी भी आई हुईं थी. आने वाले में कैम्पस के तमाम लोग , उनके अगल बगल के पड़ोसी जो गवाह थे सब लोग मौजूद थे. और वे अपनी लम्बी चौड़ी बातें सुना रहीं थी.
-सारे दिन मुझे ही बुलाया करती थीं.
- उन्हें मुझसे बहुत प्यार था, लाडली बहू जो थी , उन्होंने मुझे हमेशा बेटी समझा -और मैंने माँ.
--माताजी सारे दिन मेरे बिना रहती ही नहीं थी.
--सभी भाइयों में उन्हें प्रो. साहब से बहुत प्यार था.
--खाली घर अब खाने को दौड़ता है.
--घर में बुजुर्गों से रौनक रहती है. आदि आदि ....
सब लोगों के बीच उनकी ऐसी बातें सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था क्योंकि पड़ोसी होने के नाते मैं बहुत सी बातों की मूक गवाह थी किन्तु कोई इंसान इतना बड़ा नाटक कर सकता है ऐसा मैंने अपने जीवन में नहीं देखा था. वैसे भी जमाना ऐसे ही लोगों का है. चिल्ला चिल्ला कर गलत को भी सच साबित करने वाले लोग ऐसे ही होते हैं और उनकी बेहतरीन अदाकारी के लिए वे पुरुस्कृत भी किये जाने चाहिए.
६ कमरों के बड़े मकान में प्रो. साहब , उनकी पत्नी और माताजी रहती थी. पता नहीं क्या बात थी? उनकी पत्नी को माताजी की शक्ल देखना तक गवारा नहीं था. माताजी का सारा काम वे खुद करते थे. जब क्लास के लिए जाते तो एक नर्स की भी व्यवस्था कर रखी थी. अपने घर पर होने पर वे ही सब करते . माँ को खाना खिलाने से लेकर उनको व्हील चेयर पर लेकर बाहर बिठाना और अन्दर करना वे खुद ही करते थे. इस उम्र में कई बार उनको अस्पताल में भर्ती भी करना पड़ा तो प्रो. साहब के छात्र उनका पूरा पूरा साथ देते रहे. पर पत्नी से इस बारे में उन्हें कभी कोई सहयोग नहीं मिला. उन्होंने कभी किसी से कोई शिकायत भी नहीं की.
उनके पड़ोसी उनके प्रति पत्नी के व्यवहार के साक्षी थे और माताजी के प्रति भी. पड़ोसी इस बात के गवाह थे कि जो समर्पण, सेवा और श्रद्धा प्रो. साहब में थी ठीक इसके विपरीत उनकी श्रीमती जी थी.
उनके निधन के बाद विभाग के लोग और उनकी पत्नियाँ प्रो. साहब के घर गयीं तो मिसेज प्रो. सफेद साड़ी में बैठी थीं. माताजी की तस्वीर पर फूल मालाएं चढ़ी हुई थी. उनके घर में उनकी देवरानी और जेठानी भी आई हुईं थी. आने वाले में कैम्पस के तमाम लोग , उनके अगल बगल के पड़ोसी जो गवाह थे सब लोग मौजूद थे. और वे अपनी लम्बी चौड़ी बातें सुना रहीं थी.
-सारे दिन मुझे ही बुलाया करती थीं.
- उन्हें मुझसे बहुत प्यार था, लाडली बहू जो थी , उन्होंने मुझे हमेशा बेटी समझा -और मैंने माँ.
--माताजी सारे दिन मेरे बिना रहती ही नहीं थी.
--सभी भाइयों में उन्हें प्रो. साहब से बहुत प्यार था.
--खाली घर अब खाने को दौड़ता है.
--घर में बुजुर्गों से रौनक रहती है. आदि आदि ....
सब लोगों के बीच उनकी ऐसी बातें सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था क्योंकि पड़ोसी होने के नाते मैं बहुत सी बातों की मूक गवाह थी किन्तु कोई इंसान इतना बड़ा नाटक कर सकता है ऐसा मैंने अपने जीवन में नहीं देखा था. वैसे भी जमाना ऐसे ही लोगों का है. चिल्ला चिल्ला कर गलत को भी सच साबित करने वाले लोग ऐसे ही होते हैं और उनकी बेहतरीन अदाकारी के लिए वे पुरुस्कृत भी किये जाने चाहिए.
19 टिप्पणियां:
बहुत सच्ची बात कही है आपने...आजकल हम नौटंकी करने में माहिर हो गए हैं,...मन में होता कुछ है और कहते कुछ और हैं...बहुत शशक्त ढंग से बयाँ किया किया इंसां की फितरत को आपने...बधाई
नीरज
चिल्ला चिल्ला कर झूठ को भी सच बनाया जा सकता है...ऐसा ही है जमाना..
सच कहा आपने.
सच कहा आज तो यही ज़माना आ गया है …………ज्यादातर भुक्तभोगी मिलेंगे लोगो के ऐसे बनावटी व्यवहार से त्रस्त्।
सचमुच में बनावटी व्यवहार सभ्य समाज के लिया घातक है .
बिलकुल सही कहा है आपने हर चेहरा मुखौटा लगाये बैठा है अपना अंतर छुपाने के लिए |आज हर गलत बात समाज के द्वारा आसानी से ग्राह्य होती जा रही है \
bahut se log hain jo is baat ki gawahi denge.
बहुत से लोग हैं ऐसे. लेकिन कोई कुछ नहीं कर सकता इनका.
ऐसे बनाबटी कैरेक्टेर्स की कमी नहीं है, हर एक के पड़ोस में ऐसे लोग आसानी से मिल जायेंगे.
रेखा श्रीवास्तव जी मैने भी ऎसी डायन को बहुत नजदीक से देखा हे कभी इस पर भी पोस्ट लिखूंगा,यह लोगो से झूठ तो बोल लेगी लेकिन अपने आप से, अपने बच्चो से, अपने पति से ओर उस ऊपर वाले से केसे झूठ बोलेगी.... समय बहुत बलवान हे... हम जेसा बोते हे वेसा ही हमे मिलता हे,धन्यवाद
एक गाना था न,
क्या कहिए ऐसे लोगों को जिनकी फ़ितरत छुपी रही, नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे।
अभी नहीं तो कभी न कभी इनका असली रूप उजागर होता ही है।
जहाँ नजर घुमाते हैं ऐसी ही अदाकाराएँ नजर आती है ...
संयुक्त परिवार में काम निकल जाने के बाद बुजुर्गों की ऐसी दुर्दशा आम है, और यही लोग एकल परिवार को बड़ी हिकारत भरी नजरों से देखते ठाठ है ...वो लोग कैसी सेवा करते हैं , हमें जान कर भी अनजान बन जाना पड़ता है !
इससे बेहतर क्या अदाकारी होगी ...बहुएँ शायद भूल जाती हैं कि एक दिन उनको भी सास बनना है ...
भले ही कोई चिल्ला चिल्ला कर झूठ बोले सच्चाई तो सबको पता रहती है
रेखा श्रीवास्तव जी!
आपने इस पोस्ट में जैसा वर्णन किया है उस प्रकार के नाटकबाजों से मेरा भी पाला पड़ चुका है। कई बार सच्चाई और शालीनता मात खा जाती है। नकली असली से ज्यादा चमकदार दिखता है। ऐसी दशा में सतोगुण की रक्षा के लिए तब तक सब्र से काम लेना पड़ता है जब तक नटवरलालों की पोल- पट्टी न खुल जाय। यह कटु यर्थाथ है।
प्रभावकारी लेखन के लिए बधाई।
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कृपया पर इस दोहे का रसास्वादन कीजिए।
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
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गाँव-गाँव घर-घ्रर मिलें, दो ही प्रमुख हकीम।
आँगन मिस तुलसी मिलें, बाहर मिस्टर नीम॥
जगजीत सिंह की गायी गजल का एक शेर याद आ रहा है:
नर्म आवाज, भली बात, मुहज्जब लहजा,
पहली बारिश में ये रंग उतर जाते हैं।
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पुत्र प्राप्ति के उपय।
क्या आप मॉं बनने वाली हैं ?
आद. रेखा जी,
दुनियाँ की सही तस्वीर पेश की है आपने !
आभार !
वास्तव में मिसेज़ प्रोफेसर तो अच्छी एक्टर निकली.
इनाम भी बनता है...
यथा नाम, तथा कथा. यथार्थ.
साधुवाद,
आशीष
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लम्हा!!!
आज मंगलवार 8 मार्च 2011 के
महत्वपूर्ण दिन "अन्त रार्ष्ट्रीय महिला दिवस" के मोके पर देश व दुनिया की समस्त महिला ब्लोगर्स को "सुगना फाऊंडेशन जोधपुर "और "आज का आगरा" की ओर हार्दिक शुभकामनाएँ.. आपका आपना
बहुत अच्छा लगा की अप्प दोबारा आये
शुक्रिया
मैं अपने ब्लॉग का निचे लिंक दे रहा हु आशा करता हु की आप ब्लॉग पे जरुर पधारेंगी
http://vangaydinesh.blogspot.com/
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http://dineshsgccpl.blogspot.com/
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यदि आप भारत माँ के सच्चे सपूत है. धर्म का पालन करने वाले हिन्दू हैं तो
आईये " हल्ला बोल" के समर्थक बनकर धर्म और देश की आवाज़ बुलंद कीजिये... ध्यान रखें धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कायरता दिखाने वाले दूर ही रहे,
अपने लेख को हिन्दुओ की आवाज़ बनायें.
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हमारा पता है.... hindukiawaz@gmail.com
समय मिले तो इस पोस्ट को देखकर अपने विचार अवश्य दे
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हल्ला बोल
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