गणतंत्र दिवस हमें पूर्ण रूप से अपने देश को अपने शासन के लिए तैयार संविधान के लागू होने कि याद दिलाता है . इसके लिए सम्पूर्ण देशवासी आज के लिए शुभकामनायों के हक़दार हैं और मेरी भी हार्दिक शुभकामना.
लेकिन ऊपर लिखी गयी तिथि वाला गणतंत्र दिवस मेरे लिए कुछ और ही अर्थों में शुभकामनाएं देने वाला दिवस बना. इस दिन मेरे जीवन में एक नए परिवार और एक नए परिवेश में प्रविष्ट होने का अवसर मिला था, अर्थात इस लिए मेरा विवाह हुआ था. उस समय एक कस्बे और शहर की संस्कृति के बीच का द्वंद्व कैसे निबटाया गया अब याद करती हूँ तो हंसी आती है कि विकल्प खोज लिए जाते हैं और सामंजस्य बिठाया जाता है.
बारात कानपुर से आई थी और स्वाभाविक है कि उरई उस समय काफी पिछड़ा था खासतौर पर कानपुर की अपेक्षा , इसके साथ भी हमारा परिवार भी बहुत आधुनिक नहीं था या कहिये कि वहाँ कि संस्कृति के विपरीत कुछ करने में विश्वास नहीं रखता था. शायद उन लोगों को कुछ ऐसा आभास हो तो बारात के आते ही कहला दिया गया कि हम जयमाल कानपुर से लेकर आये हैं. इसका मतलब कि जयमाल की रस्म होनी चाहिए. हमारे यहाँ तो ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं था तो इस बारे में सोचा ही नहीं गया था. इसलिए खबर भेजी गयी कि हमारे यहाँ जयमाल नहीं होती. बस फिर क्या था? दुल्हे के दोस्त भड़क गए -
'ये क्या बात है, जयमाल नहीं होती हम बेकार ही यहाँ आये हैं.' क्योंकि दोस्तों को रात में भी वापस हो जाना था. उनको आश्वासन दिया गया कि इंतजाम करते हैं . उस समय आजकल की तरह से ब्यूटी पार्लर तो होते नहीं थे कि वहाँ से सारी व्यवस्था कर लेते . ज्यूलरी और लहंगे का इंतजाम कर लिया जाता. मेरे अधिकांश रिश्तेदार गाँव से थे. बस मेरी सहेली प्रतिमा का परिवार और मेरे फूफाजी कानपुर से थे, सो कानपुर वालों ने अपनी बुद्धि दौड़ाई कि क्या किया जा सकता है. स्टेज का काम मेरे फूफाजी और प्रतिमा के भाई जिन्हें हम दद्दा कहते थे उन लोगों ने लिया. बड़ी बड़ी तख़्त निकली गयी और उनको पहले चादर डाल कर अच्छे से ढंका गया उसके ऊपर सोफा डाल कर बैठने का इंतजाम किया गया. स्टेज को फूलों की लड़ियों से सजा कर तैयार कर लिया गया. बाहर की शोभा तो बन गयी लेकिन अन्दर मेरे लिए क्या होना चाहिए?
मेरे पास पहनने के लिए साड़ी तो थी लेकिन उसके ऊपर सुंदर सी चुनरी कहाँ से आये? प्रतिमा ने जो और लड़कियाँ थी उनसे उनके सूट के साथ की चुन्नी देखी तो एक लाल चुन्नी मिल गयी. बस दौड़ कर बाजार गयी और गोटा, किरण, सितारे और फेविकोल खरीद कर ले आई. पूरी चुनरी को सितारे फेविकोल से चिपका कर सजा डाला और दुल्हन की चुनरी तैयार. जेवर तो ससुराल से आता था सो मेरे पास जेवर के नाम पर कुछ भारी जेवर भी न था बस नाक की नथ थी. और मेकअप के लिए भी कुछ इंतजाम ऐसा न था कि जयमाल जैसी लगे. कलात्मक वृत्ति वालों ने फिर अपनी अक्ल का प्रयोग किया और पेस्ट से सफेद बिंदियाँ लगायीं गयी, रोली में पानी डाल कर लाल बिंदियाँ लगायीं गयी.जेबर के लिए एक पेंडेंट वाली जंजीर लेकर बेंदी बनायीं गयी और जो भी लड़किया गले में पहने के लिए लायी थीं सब मेरे गले में पहना कर तैयार कर दिया गया. बस दुल्हन जयमाल के लिए तैयार हो गयी.
इस तरह से जयमाल कि रस्म पूरी हुई. इस वाकये को लिखने का विचार त्वरित है इसलिए इसके साक्ष्य फोटो लगाना संभव नहीं है वैसे भी हमारे ज़माने में ब्लैक एंड व्हाईट फोटो ही चलती थीं सो वही हैं मेरे पास. आज भी उस वाकये को हम , प्रतिमा और अपनी बहनों के साथ याद करते हैं तो बहुत हंसी आती है.
लेकिन ऊपर लिखी गयी तिथि वाला गणतंत्र दिवस मेरे लिए कुछ और ही अर्थों में शुभकामनाएं देने वाला दिवस बना. इस दिन मेरे जीवन में एक नए परिवार और एक नए परिवेश में प्रविष्ट होने का अवसर मिला था, अर्थात इस लिए मेरा विवाह हुआ था. उस समय एक कस्बे और शहर की संस्कृति के बीच का द्वंद्व कैसे निबटाया गया अब याद करती हूँ तो हंसी आती है कि विकल्प खोज लिए जाते हैं और सामंजस्य बिठाया जाता है.
बारात कानपुर से आई थी और स्वाभाविक है कि उरई उस समय काफी पिछड़ा था खासतौर पर कानपुर की अपेक्षा , इसके साथ भी हमारा परिवार भी बहुत आधुनिक नहीं था या कहिये कि वहाँ कि संस्कृति के विपरीत कुछ करने में विश्वास नहीं रखता था. शायद उन लोगों को कुछ ऐसा आभास हो तो बारात के आते ही कहला दिया गया कि हम जयमाल कानपुर से लेकर आये हैं. इसका मतलब कि जयमाल की रस्म होनी चाहिए. हमारे यहाँ तो ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं था तो इस बारे में सोचा ही नहीं गया था. इसलिए खबर भेजी गयी कि हमारे यहाँ जयमाल नहीं होती. बस फिर क्या था? दुल्हे के दोस्त भड़क गए -
'ये क्या बात है, जयमाल नहीं होती हम बेकार ही यहाँ आये हैं.' क्योंकि दोस्तों को रात में भी वापस हो जाना था. उनको आश्वासन दिया गया कि इंतजाम करते हैं . उस समय आजकल की तरह से ब्यूटी पार्लर तो होते नहीं थे कि वहाँ से सारी व्यवस्था कर लेते . ज्यूलरी और लहंगे का इंतजाम कर लिया जाता. मेरे अधिकांश रिश्तेदार गाँव से थे. बस मेरी सहेली प्रतिमा का परिवार और मेरे फूफाजी कानपुर से थे, सो कानपुर वालों ने अपनी बुद्धि दौड़ाई कि क्या किया जा सकता है. स्टेज का काम मेरे फूफाजी और प्रतिमा के भाई जिन्हें हम दद्दा कहते थे उन लोगों ने लिया. बड़ी बड़ी तख़्त निकली गयी और उनको पहले चादर डाल कर अच्छे से ढंका गया उसके ऊपर सोफा डाल कर बैठने का इंतजाम किया गया. स्टेज को फूलों की लड़ियों से सजा कर तैयार कर लिया गया. बाहर की शोभा तो बन गयी लेकिन अन्दर मेरे लिए क्या होना चाहिए?
मेरे पास पहनने के लिए साड़ी तो थी लेकिन उसके ऊपर सुंदर सी चुनरी कहाँ से आये? प्रतिमा ने जो और लड़कियाँ थी उनसे उनके सूट के साथ की चुन्नी देखी तो एक लाल चुन्नी मिल गयी. बस दौड़ कर बाजार गयी और गोटा, किरण, सितारे और फेविकोल खरीद कर ले आई. पूरी चुनरी को सितारे फेविकोल से चिपका कर सजा डाला और दुल्हन की चुनरी तैयार. जेवर तो ससुराल से आता था सो मेरे पास जेवर के नाम पर कुछ भारी जेवर भी न था बस नाक की नथ थी. और मेकअप के लिए भी कुछ इंतजाम ऐसा न था कि जयमाल जैसी लगे. कलात्मक वृत्ति वालों ने फिर अपनी अक्ल का प्रयोग किया और पेस्ट से सफेद बिंदियाँ लगायीं गयी, रोली में पानी डाल कर लाल बिंदियाँ लगायीं गयी.जेबर के लिए एक पेंडेंट वाली जंजीर लेकर बेंदी बनायीं गयी और जो भी लड़किया गले में पहने के लिए लायी थीं सब मेरे गले में पहना कर तैयार कर दिया गया. बस दुल्हन जयमाल के लिए तैयार हो गयी.
इस तरह से जयमाल कि रस्म पूरी हुई. इस वाकये को लिखने का विचार त्वरित है इसलिए इसके साक्ष्य फोटो लगाना संभव नहीं है वैसे भी हमारे ज़माने में ब्लैक एंड व्हाईट फोटो ही चलती थीं सो वही हैं मेरे पास. आज भी उस वाकये को हम , प्रतिमा और अपनी बहनों के साथ याद करते हैं तो बहुत हंसी आती है.
15 टिप्पणियां:
बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
ढेर सारी शुभकामनायें.
गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाइयाँ !!
Happy Republic Day.........Jai HIND
हा हा हा ..इसे कहते हैं जहाँ चाह वहां राह ...क्या बढ़िया जयमाल हुई
बहुत खूबसूरत यादों का बहुत ही सुन्दर सस्मरण रेखा जी.
चलिए अंत में जयमाल हो गयी. बढ़िया संस्मरण याद करके खुदको भी हंसी आ जाये.
गणतंत्र दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं.
रचना दीक्षित
गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई ... जय हिंद
संस्मरण बहुत अच्छा लगा। कभी कभी पुरानी यादें मन को सकून देती है। बधाईयाँ। गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें..
बढ़िया है, बहुत ही रोचक प्रसंग है
बहुत ही रोचक प्रसंग
अपना संस्मरण हमसे बांटने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
in anubhavo se bahut kuchh sikhne ko milta hai ,badhiya sansmaran .hardik badhai is pavan parv ki rekha ji .
अरे फ़ोटू भी लग देते तो हम भी जय माला का मजा ले लेते,हमारी शादी दिल्ली मे हुयी थी, हमे भी नही पता था जयमाला का इस लिये हम अकड कर खडे रहे ओर बीबी उचक उचक कर हार डालने की कोशिश कर रही थी, हमारी सालिया हमे जितना झुलाने की कोशिश करे हम उतने ही अकड जाये, ओर जब हमारे दोस्तो ने असली किस्सा बताया तो हम सर झुका कर खडे हो गये की बाबा डाल लो अपना फ़ंदा, कल तो हमारा ही होगा:)
:)......didi ki jaymal...!! ankho ke samne se gujar gaya..!!
aise sansmaran dil ko chhute hain!
सबसे पहले तो शादी की वर्षगांठ की हार्दिक बधाइयाँ………ये तो बहुत ही सुन्दर यादें हैं शायद इसी लिये कहा गया है…………बीते हुये लम्हो की कसक साथ तो होगी………………आपका ये संस्मरण तो हम भी नही भूल सकेंगे।
राज जी,
लिखने का विचार ही आज आया और फिर इतनी जल्दी फोटू खोजना और फिर उसको लगाना संभव न था. फिर कभी किसी और अवसर पर . आपकी जयमाल का भी नजारा देखने को मिल गया.
आद.रेखा जी,
शादी की सालगिरह की ढेरों बधाईयाँ !देर के किये क्षमा चाहता हूँ !
ऐसे महत्वपूर्ण और नाज़ुक समय का संस्मरण पढ़कर उन परिस्थितियों की कल्पना साकार हो उठी !
बढ़िया संस्मरण!
ढेर सारी शुभकामनायें.
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