संस्कृति - संस्था - संस्कार ये तीन आधार है - मानव जीवन को एक पृथक स्वरूप लेने वाले. ये सर्व विदित है की विश्व में भारतीय संस्कृति, सामाजिक संस्थाएं ( विवाह, परिवार आदि) और संस्कार (गर्भाधान से लेकर श्राद्ध तक) को बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. वहाँ जाकर बस जाने वाले व्यक्ति भी कभी कभी अपने श्राद्ध जैसे संस्कार के लिए भारत आकर कभी वाराणसी , कभी हरिद्वार में पूर्ण करते हैं. कितने विदेशी युवा भारतीय विवाह पद्यति को अपना कर अपना वैवाहिक जीवन आरम्भ करते हैं. पर हम क्यों इनसे दूर होते जा रहे हैं? हम अपनी संस्थाओं के महत्व को खोते जा रहे हैं, उनके मूल्य को नहीं समझ पा रहे या फिर न समझने का नाटक कर आसन जीवन जीने की लालसा रखते हैं. अपनी जड़ों से अलग होकर किसी भी वृक्ष का कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता है. वह एक दिन सूख कर सिर्फ ठूंठ बन जाता है.
परिवार संस्था की टूटती हुई एक कड़ी हाल ही में देखी - एक युवक की अस्वाभाविक मृत्यु पर - उसी जगह रहने वाले उसके भाई और माँ का अंतिम क्षण तक इन्तजार किया गया कि रक्त - सम्बन्ध इतने गहरे होते हैं कि कितना ही विवाद सही इस जीवन के अंतिम संस्कार में तो साथ होते हैं. श्मशान में बहुत देर तक सबकी आँखें यह देखती रही कि शायद अब माँ और भाई आएगा, अपने बेटे और भाई के अंतिम दर्शन के लिए.
किन्तु शायद दुर्भावनाएं अधिक बलवती थीं और उस बेटे और भाई को , जो उनका भार वहन कर रहा था अपनों का साथ मिलना नसीब नहीं था. सबकी आँखें मुड़कर देख रही थीं की अंतिम संस्कार कौन करेगा?
उसकी २८ वर्षीय पत्नी रोली ने बहुत देर रो लिया था और घर वालों की रास्ता भी देख ली थी, उसने अपनी दो वर्षीय पुत्री को पिता की गोद में देकर मुखाग्नि के लिए खुद को तैयार कर लिया था. अपने पति को मुखाग्नि देते समय उसकी मनःस्थिति तो शायद ही कोई समझ सकता हो लेकिन वहाँ पर इकट्ठे लोगों की आँखें बरसने लगीं.
बहुत छोटी सी घटना लग रही होगी किन्तु क्या हमारी संवेदनाएं इतनी मर चुकी है या फिर हमारे संस्कार बिलकुल ही समाप्त हो चुके हैं. ये हम कहाँ से ले रहे हैं? दोष यह दिया जाता है की बच्चों को TV बरवाद कर रहा है. पश्चिमी संस्कृति ने हमारे समाज , संस्कृति और संस्कारों पर कुठाराघात किया है - नहीं वे संस्कार जो हमें विरासत में मिलते हैं कभी भी ख़त्म नहीं होते- हाँ हमारी दी परवरिश ही गलत हो तो कुछ नहीं कहा जा सकता है.
माँ -बाप सदैव सही करते हों , ऐसा भी नहीं है. अपने ही दो बेटों के बीच में भेदभाव रखने वाले माता पिता की कमी नहीं है. वह भी अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ करने लगते हैं किन्तु ये भूल जाते हैं कि अगर हम अपने ही पौधों की जड़ में विष डालेंगे तो उसके फूल और फल सुखदायी कैसे हो सकते हैं? वे अपने स्वार्थ में लिप्त ये भी नहीं सोच पाते हैं कि उनकी जिन्दगी अब समाप्तप्राय हो चुकी है और ये हमारे बच्चे अपना जीवन आरम्भ कर रहे हैं.
मेरे बाद इस दुनियाँ में मेरी ही तरह से इन सबका परिवार भी अलग बस जाएगा लेकिन जीवन में सुख और दुःख सभी क्षणों में हर व्यक्ति ये कामना करता है कि कोई उसका अपना उसके साथ हो. अगर बड़ा हो तो सिर पर हाथ रख देने भर से एक विश्वास और सहारा अनुभव होता है और अगर छोटा भी होता है तो कंधे पर रखे हुए हाथ तब भी अपने होने के साक्षी होते हैं. वैसे बहुत अपने होते हैं, मित्र होते हैं, पड़ोसी होते हैं, सहकर्मी होते हैं किन्तु जो भाई या बहन होते हैं - उनके बीच पलने वाले प्यार या जीवन के बचपन के पलों का जो अहसास होता है वह जुड़ा होता है. उस साथ में ज्यादा विश्वास और अपनत्व होता है.
यहाँ पर सबसे महत्वपूर्ण भूमिका विवेक की होती है, ये विवेक मनुष्य के श्रेष्ठ प्राणी होने का प्रतीक है, उसके अतिरिक्त ये गुण किसी में नहीं होता, जीवन के कुछ निर्णय विवेक से लिए जाएँ तो बहुत सी घटनाएँ , दुर्घटनाएं और त्रासदियों को बचाया जा सकता है. अगर आप एक अच्छे माता पिता हैं तो स्वयं विवेक का प्रयोग करके अपने जीवन के निर्णय और अपने बच्चों में भी इस गुण की नींव डालें ताकि ये समाज और भारतीय संस्कृति किसी ऐसी रोली के प्रकरण को दुबारा न दुहराए.
परिवार संस्था की टूटती हुई एक कड़ी हाल ही में देखी - एक युवक की अस्वाभाविक मृत्यु पर - उसी जगह रहने वाले उसके भाई और माँ का अंतिम क्षण तक इन्तजार किया गया कि रक्त - सम्बन्ध इतने गहरे होते हैं कि कितना ही विवाद सही इस जीवन के अंतिम संस्कार में तो साथ होते हैं. श्मशान में बहुत देर तक सबकी आँखें यह देखती रही कि शायद अब माँ और भाई आएगा, अपने बेटे और भाई के अंतिम दर्शन के लिए.
किन्तु शायद दुर्भावनाएं अधिक बलवती थीं और उस बेटे और भाई को , जो उनका भार वहन कर रहा था अपनों का साथ मिलना नसीब नहीं था. सबकी आँखें मुड़कर देख रही थीं की अंतिम संस्कार कौन करेगा?
उसकी २८ वर्षीय पत्नी रोली ने बहुत देर रो लिया था और घर वालों की रास्ता भी देख ली थी, उसने अपनी दो वर्षीय पुत्री को पिता की गोद में देकर मुखाग्नि के लिए खुद को तैयार कर लिया था. अपने पति को मुखाग्नि देते समय उसकी मनःस्थिति तो शायद ही कोई समझ सकता हो लेकिन वहाँ पर इकट्ठे लोगों की आँखें बरसने लगीं.
बहुत छोटी सी घटना लग रही होगी किन्तु क्या हमारी संवेदनाएं इतनी मर चुकी है या फिर हमारे संस्कार बिलकुल ही समाप्त हो चुके हैं. ये हम कहाँ से ले रहे हैं? दोष यह दिया जाता है की बच्चों को TV बरवाद कर रहा है. पश्चिमी संस्कृति ने हमारे समाज , संस्कृति और संस्कारों पर कुठाराघात किया है - नहीं वे संस्कार जो हमें विरासत में मिलते हैं कभी भी ख़त्म नहीं होते- हाँ हमारी दी परवरिश ही गलत हो तो कुछ नहीं कहा जा सकता है.
माँ -बाप सदैव सही करते हों , ऐसा भी नहीं है. अपने ही दो बेटों के बीच में भेदभाव रखने वाले माता पिता की कमी नहीं है. वह भी अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ करने लगते हैं किन्तु ये भूल जाते हैं कि अगर हम अपने ही पौधों की जड़ में विष डालेंगे तो उसके फूल और फल सुखदायी कैसे हो सकते हैं? वे अपने स्वार्थ में लिप्त ये भी नहीं सोच पाते हैं कि उनकी जिन्दगी अब समाप्तप्राय हो चुकी है और ये हमारे बच्चे अपना जीवन आरम्भ कर रहे हैं.
मेरे बाद इस दुनियाँ में मेरी ही तरह से इन सबका परिवार भी अलग बस जाएगा लेकिन जीवन में सुख और दुःख सभी क्षणों में हर व्यक्ति ये कामना करता है कि कोई उसका अपना उसके साथ हो. अगर बड़ा हो तो सिर पर हाथ रख देने भर से एक विश्वास और सहारा अनुभव होता है और अगर छोटा भी होता है तो कंधे पर रखे हुए हाथ तब भी अपने होने के साक्षी होते हैं. वैसे बहुत अपने होते हैं, मित्र होते हैं, पड़ोसी होते हैं, सहकर्मी होते हैं किन्तु जो भाई या बहन होते हैं - उनके बीच पलने वाले प्यार या जीवन के बचपन के पलों का जो अहसास होता है वह जुड़ा होता है. उस साथ में ज्यादा विश्वास और अपनत्व होता है.
यहाँ पर सबसे महत्वपूर्ण भूमिका विवेक की होती है, ये विवेक मनुष्य के श्रेष्ठ प्राणी होने का प्रतीक है, उसके अतिरिक्त ये गुण किसी में नहीं होता, जीवन के कुछ निर्णय विवेक से लिए जाएँ तो बहुत सी घटनाएँ , दुर्घटनाएं और त्रासदियों को बचाया जा सकता है. अगर आप एक अच्छे माता पिता हैं तो स्वयं विवेक का प्रयोग करके अपने जीवन के निर्णय और अपने बच्चों में भी इस गुण की नींव डालें ताकि ये समाज और भारतीय संस्कृति किसी ऐसी रोली के प्रकरण को दुबारा न दुहराए.
4 टिप्पणियां:
रेखा दी ...बहुत ही मार्मिक दृश्य उकेर डाला आपने...यह क्या होता जा रहा है,मानव जाति को?..एक माँ ऐसा कर सकती है?...बहुत मुश्किल हो रहा है..लोगों को समझना...सही कहा है आपने... ये विवेक मनुष्य के श्रेष्ठ प्राणी होने का प्रतीक है, उसके अतिरिक्त ये गुण किसी में नहीं होता, जीवन के कुछ निर्णय विवेक से लिए जाएँ तो बहुत सी घटनाएँ , दुर्घटनाएं और त्रासदियों को बचाया जा सकता है.
रेखा दी ...बहुत ही मार्मिक दृश्य उकेर डाला आपने...यह क्या होता जा रहा है,मानव जाति को?..एक माँ ऐसा कर सकती है?...बहुत मुश्किल हो रहा है..लोगों को समझना...सही कहा है आपने... ये विवेक मनुष्य के श्रेष्ठ प्राणी होने का प्रतीक है, उसके अतिरिक्त ये गुण किसी में नहीं होता, जीवन के कुछ निर्णय विवेक से लिए जाएँ तो बहुत सी घटनाएँ , दुर्घटनाएं और त्रासदियों को बचाया जा सकता है.
यह उपभोगतावाद हमसे क्या क्या न कराये!!लेकिन हम अपने विवेक से च्युत क्यों होते जा रहे हैं...अत्यंत विचार की मांग करती पोस्ट!
रिश्ते हमेशा जोड़ने से ही जुड़ते हैं, लेकिन आज रिश्तों की अहमियत कम होती जा रही है, तकलीफ़देह है ये. मार्मिक, यथार्थ का परिचय कराती पोस्ट.
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