कमला बड़बड़ाती हुई घर में घुसी और तेजी से काम करने में जुट गयी लेकिन उसका बड़बड़ाना बंद नहीं था।
"अरे कमला क्या हुआ ? क्यों गुस्सा में हो?"
"कुछ नहीं दीदी, मैं तो छिपकली और गिरगिट से परेशान हूँ। "
"ये कहाँ से आ गए ?"
" ये तो मेरे घर में हमेशा से थे, मैं अपने कमरे में बात करूँ तो ननद हर वक्त कान लगाए रहती है और घर से वह कहीं चली जाए तो ससुर का रंग दूसरा होता है और उसके होने पर दूसरा।"
"सही है न, काम निकलना चाहिए। "
"आप भी न , उनकी ही बता सही बताएंगी। "
"देख ये छिपकली तेरे ही घर में नहीं है , हर घर में होती हैं। बड़े घरों में बड़े घर जैसी और छोटे में छोटे जैसी। "
"और गिरगिट ?"
"वो भी तो होते हैं , वक्त पर गधे को भी बाप बनाने वाले ऐसे ही होते हैं।" निशा ने बात बढ़ाना उचित न समझा।
लेकिन वह अपने ही अतीत में खो गयी -
उसकी जिठानी पढ़ी लिखी होने के बाद भी किसी का फ़ोन आये या कोई मायके से आ जाय तो दरवाजे के बाहर ओट में , या फिर कमरे के आस पास ही मंडराती रहती थी। बच्चों के आने पर भी क्या बात हो रही है ? फ़ोन आने पर भी किससे क्या बात हो रही है, उसकी बुराइयां तो नहीं की जा रही हैं। कई लोगों ने बताया भी लेकिन उससे क्या फायदा ? कभी न टोका और न सवाल किया कि इस तरह से बातेन क्यों सुनती हो ?
और जेठ तो उनके भी दो कदम आगे , संयुक्त परिवार और पैतृक मकान के चलते रहना तो वहीँ था और तब घर भी ऐसे ही बने होते थे. एक महिला अगर घर से गयी तो दूसरी सबके लिए रसोई और सारे काम करने के लिए होती ही थी। वह भी इस घर में भी था। निशा की जिठानी बाहर गयीं और फिर जेठ जी गिरगिट की तरह से रंग बदल लेते चाहे घर के बच्चों हों या फिर वह स्वयं। जेठ जी की वाणी में चाशनी टपकने लगती। बड़े मधुर शब्दों में बोलने लगते। 'आप' के नीचे बात न होती और जेठानी के आते ही वह एक शुष्क इंसान की तरह व्यवहार करते और व्यंग्यबाण चलने लगते। उनकी इच्छा होती कि उनकी पत्नी किसी के पास न बैठे और बात न करे। खुद भी नहीं करता था।
ये रोग तो बड़े घरों में या इन काम वालों सब जगह पाया जाता है।
"
"
6 टिप्पणियां:
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(३०-१०-२०२१) को
'मन: स्थिति'(चर्चा अंक-४२३२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 31 अक्टूबर 2021 को साझा की गयी है....
पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सत्य कहा
बस प्रयास यही कि हम छिपकली और गिरगिट न बनें
अब तो संयुक्त परिवार भी देखने को नहीं मिलते।
तो ये गिरगिट और छिपकलियां अस्तित्व खोती जा रही हैं।
सुंदर कथा।
सच्चाई से परिपूर्ण।
बहुत ख़ूब !
छिपकली के संस्कार और गिरगिटी प्रकृति के विभिन्न रूप घर-घर में दिखाई देते हैं किन्तु इनका सबसे उन्नत रूप राजनीति के क्षेत्र में दिखाई देता है.
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