सवा महीना !
इस त्रासदी के कठिन काल ने सबकी सोच बदल दी लेकिन वे नहीं बदले जो खुद इसे झेल चुके हों । रीना का बेटा कोरोना में चल बसा । उस कठिन काल में भी उर्मिला बराबर आकर काम करती रही । जबकि और काम वालियों ने उसे जाने से मना भी किया था ।
"दीदी मैं नहीं मानती , ये भाग्य का खेल है। कोई मनहूस नहीं हो जाता। इसमें बहू का क्या दोष ।"
भाग्य ने उसके साथ भी खेल कर दिया , उसका पति कोरोना में चल बसा । तीन लड़कियाँ है , कमाने वाला तो गया । सवाल रोजी पर भी आ गया । किसी तरह सवा महीना गुजारा । ये अंधविश्वास हमारे समाज में सदियों से पलता चला आ रहा है कि हाल में हुई विधवा का मुँह देखना अशुभ माना जाता है ।
पेट नहीं मानता , जमा पूँजी इलाज में लगा दी । काम अब कैसे करने जाय ? कोई बुलाए तब न ।
उसने फोन किया - "दीदी बहू की जचगी हो गई होगी, अब खाना बनाने आने लगूँ ।"
"न न अभी न आ , अभी तो सवा महीना भी न हुआ होगा ।"
" हो गया दीदी , घर में बैठकर खाऊँगी क्या ?
" अभी न आओ, दीपा भी अपना बच्चा लेकर आ रही है ....।"
"बहूरानी से न कोई परहेज है , हमसे परहेज कर रही हैं ।"
"उसे मैंने जब तक दीपा रहेगी मायके भेज दिया है ।"
"क्या ?" उर्मिला मुँह खुला रह गया।
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