हमारे देश की स्थिति तो किसी से छुपी नहीं है। सामाजिक, आर्थिक विसंगतियों ने ही मनुष्य काजीवन दूभर कर रखा है। कहीं इतनी सुविधाएं है कि लोग़ उसका दुरूपयोग कर रहे हैं और कहीं दर्द से तड़पते हुए लोगजिनके पास इतना भी पैसा नहीं है कि वे दर्दनिवारक खरीद कर अपने दर्द से कुछ क्षणों की राहत ही पा लें। कहीं हमउनके हक को छीन तो नहीं रहे हैं। अगर छीन रहे हैं या फिर छिनते हुए देख रहे हैं तो उन्हें इसके लिए आगाह करने कादुस्साहस अवश्य कीजिये।
मेरे पड़ोसी रक्षा संस्थान के प्रतिष्ठान से रिटायर्ड हैं। उन्हें दवा और इलाज की सुविधा सरकारी तौरपर मिलती है और बिल्कुल मुफ्त। उनका ये नियम है वह पहले हफ्ते में एक बार जरूर CGHS जाकर पता नहीं क्याक्या बीमारी बता कर ढेर सारी दवाएं ले आते और उन्हें अपनी अलमारी में बास्केट में सजा कर रख लेते थे। उनकोखाना है या नहीं इससे कोई लेना देना नहीं। वर्षों तक तो ये क्रम चला। दवाओं का ज्ञान तो उनको है नहीं सो सारी दवा आपस में मिल जाती तो फिर उन्हें अलग रख देते। क्योंकि नई मिलना तो बंद होंगी नहीं। धीरे धीरे सरकारी तौर परदवायों का रिकॉर्ड रखा जाने लगा कि अगर डॉक्टर एक हफ्ते की दवा लिखता है तो वहाँ से एक हफ्ते की दवा मिलेगीऔर रिकॉर्ड में चढ़ जाएगी। दुबारा उससे पहले जायेंगे तो दवा नहीं मिलेगी । यह तो एक अंकुश लगा लेकिन उसकेबाद वह फिर जाकर ले आयेंगे। ये प्रतिष्ठान में या सरकारी चिकित्सा सुविधा लेने वाले अकेले व्यक्ति नहीं हैं बल्किबहुत सारे लोग हैं जिनकी मानसिकता क्या है? ये तो मैं नहीं जाना पायी लेकिन इतना जरूर है कि वे इस सुविधा कादुरूपयोग कर रहे हैं।
एक दिन उन्होंने एक पलंग पर दवाइयाँ फैला कर रखी और मेरे पति को बुलाया कि जरा इन दवाओं कोदेख लीजिये इनमें से कौन सी किस मर्ज की हैं और कौन सी एक्सपायर हो चुकी हैं। उनमें से बहुत सारी दवाएंएक्सपायर हो चुकी थी , जिन्हें इस तरह से फेंका भी नहीं जाता है बल्कि उनको पूरी तरह से नष्ट करना होता है। उनको ये नहीं पता है कि इस तरह से दवाएं लेकर वे कितने लोगों को इन दवाओं से वंचित कर रहे हैं। अस्पताल औरसरकारी दवाएं भी पैसे से आती हैं अगर आपको सुविधा है तो इसका अर्थ ये बिल्कुल भी नहीं है की आप उसको अपनीसंपत्ति मान कर जमा करें। अगर आप ले भी आये हैं तो फिर उसको किसी जरूरतमंद को दे दें जो इसको खरीदने मेंअसमर्थ हो। ऐसा नहीं है कि हम ऐसा नहीं कर सकते हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसी मानसिकता के होते हैं कि जो अपना पाप भी नहीं दे सकते हैं फिर भौतिक वस्तु तो बहुत बड़ी चीज होती है। अगर आप ऐसे लोगों को जानते हों तो फिरउनको समझाइए कि इस संग्रह को करने से अच्छा है कि इसका उपयोग और लोगों के लिए होने दें।
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11 टिप्पणियां:
श्रम जीवी वर्ग की करुण गाथा इस पोस्ट में...रेखा जी
इस जागरूकता की ज़रूरत है
अभी भारत में चेतना आने में वक्त लगेगा!
यह मनासिकता ही हे,इस का इलाज सिर्फ़ जागरुता ही हे, अगर हम किसी बिमारी की दवा खरीद भी ले, या मुफ़त मे मिले तो हमे चाहिये इलाज हो जाने के बाद उसे किसी जरुरत मंद को दे दे, किसी डाकटर को दे देजो उसे किसी गरीब जरुरत मंद को दे दे या किसी अस्पताल मे दे दो... बहुत से रास्ते हे, लेकिन नही हम यह नही करते, बल्कि उसे सम्भाल्म कर रख लेगे अगली बार काम आयेगी:)
यह मनासिकता ही हे,इस का इलाज सिर्फ़ जागरुता ही हे, अगर हम किसी बिमारी की दवा खरीद भी ले, या मुफ़त मे मिले तो हमे चाहिये इलाज हो जाने के बाद उसे किसी जरुरत मंद को दे दे, किसी डाकटर को दे देजो उसे किसी गरीब जरुरत मंद को दे दे या किसी अस्पताल मे दे दो... बहुत से रास्ते हे, लेकिन नही हम यह नही करते, बल्कि उसे सम्भाल्म कर रख लेगे अगली बार काम आयेगी:)
JAGRUKTA KI JARURAT HAI AAJ HUME.. JAI HIND JAI BHARAT
आपने बहुत अच्छे मुद्दे को उठाया है। चरित्र संकट आज एक विकट चुनौती है। हमारी संग्रह करने की वृत्ति दूसरों के कष्टों को बढ़ाती है। बौद्ध और जैन ग्रंथों में इस मनोवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए अस्तेय एवं अपरिग्रह का निर्देश है। इन विषयों पर वहाँ बड़ी विशद व्याख्याएं की गई हैं। आजकल टीवी पर बिकाऊ खबरों और उपदेशों का बोलाबाला रहता है। बाजारवाद आदमी की हवस को हवा दे रहा है। सूचना - तंत्र में व्यक्ति की मनोवृत्तियों को संयमित करने वाले कार्यक्रमों को जोड़ने की जरूरत है। नीचे अपरिग्रह और अस्तेय संबंधी कुछ सूत्र दे रहा हूँ।
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"चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि। अन्नं वा अणुजाणाइ एव्रं दुक्खाण मुच्चइ॥"
जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसका दुःख से कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता।
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"सवत्थुवहिणा बुद्धा संरक्खणपरिग्गहे। अवि अप्पणो वि देहम्मि नाऽऽयरंति ममाइयं॥"
ज्ञानी लोग कपड़ा, पात्र आदि किसी भी चीज में ममता नहीं रखते, यहाँ तक कि शरीर में भी नहीं।
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"जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई। दोमासकयं कज्जं कोडीए वि न निट्ठियं॥"
ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता है। 'जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।' पहले केवल दो मासा सोने की जरूरत थी, बाद में वह बढ़ते-बढ़ते करोड़ों तक पहुँच गई, फिर भी पूरी न पड़ी!
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"निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टं। न हरति पन्न च दत्ते तदकृशचौर्य्यादुपारमणं।"
जो रखे हुए तथा गिरे हुए अथवा भूले हुए अथवा धरोहर रखे हुए पर-द्रव्यको नहीं हरता है, न दूसरों को देता है सो स्थूल चोरी से विरक्त होना अर्थात् अचौर्याणुव्रत है।
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
हमारी मुश्किल ही यही है, जिसको चाहिए नहीं उसके पास बहुत है जिसको चहिये उसके पास कुछ नहीं. नेक जज्बात.
मैने देखी हैं यह स्थितियाँ...वाकई, लोग यदि इस तरफ थोड़ा भी ध्यान देने लगें तो कितनों का भला हो जाये.
सार्थक आलेख.
यथार्थ वर्णन किया है आपने .. अगर लोग इन बातों का ध्यान रखे तो जरुरत मंदों के कष्ट कम हो जाएँ.
आप सही कह रही हैं ऐसी जागरुकता की बेहद जरूरत है ………मेरी मदर को मिलती हैं मगर जो उनके काम नही आती वो उसे धर्मार्थ अस्पताल मे भेज देती हैं ताकि किसी गरीब के काम तो आ सके और वो भी डाक्टर की देखरेख मे…………मगर ऐसा सब लोग नही करते जबकि ऐसी जागरुकता काहोना बहुत जरूरी है।
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