मानव स्वभाव ऐसा ही सदैव से रहा है कि न वह सुख में सुखी ओर दुःख में सुखी होनेका तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता है।
माना आज समाज में तमाम संस्थाएं अपने मूल्यों को खो चुकी हैं और खोती चली जा रही है। युवा पीढ़ी कीसोच बदल रही है किन्तु क्या हमारी पीढ़ी भी कहीं अपनी विकृत सोच का परिचय नहीं दे रही है। आज से पांचदशक पहले भी परिवार में नालायक कहे जाने वाले सदस्य होते थे। पर संयुक्त परिवार की बहुलता के करण ऐसेलोगों का बाहुल्य नहीं हो पाया। आज जब लाइफ स्टाइल बदल रही है। हमारे बच्चे हमारे जीवन काल में झेले गएसंघर्षों की छाया तले खुद नहीं जीना चाहते हैं और सही भी है। हमारे समय और आज के समय में कई दशकों काअंतर है। वे उन सबसे बचने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। क्या हम उनके लिए कुछ भी नहीं कर सकतेहैं । अगर हम कुछ करते हैं तो ये हमारी ममता और स्नेह का ही रूप होता है और माता पिता का यह रूप तो विषमपरिस्थिति में बदल जाए वो बात अलग हैं अन्यथा बच्चे उनकी जान होते हैं ।
मैं अपनी एक अभिन्न मित्र के यहाँ गयी , वह अपनी पुत्री के पास बैंगलोर जा रही थीं। पति घर परही रहने वाले थे क्योंकि वे अपने व्यवसाय के कारण साथ नहीं जा सकते थे, लेकिन उनकी नौकरानी सब तैयारकरके दे सकती थी सो कोई परेशानी नहीं थी। उन्होंने बताया कि उनका १० दिन रहने का इरादा है। श्रुति का बेटाअभी छोटा है और उसके घर में इस समय कोई नहीं है। दामाद भी एक हफ्ते के लिए विदेश जाने वाला था। इसतरह से उसका भी कुछ चेंज हो जायेगा और उसके बच्चे को भी अच्छा लगेगा।
उनके पति तपाक से बोले - क्यों नहीं ? आजकल आया तो बड़े शहरों में मिलती नहीं है। किसी को अपनेबच्चे के लिए आया की जरूरत होगी, इन्हें बुला लिया जायेगा या खुद चली जाएगी ।
मुझे यह सुनकर बहुत ही दुःख हुआ क्योंकि यही वह बेटी है जिसने दो साल पहले अपनी माँ केएक्सीडेंट होने पर ३ महीने यही रहकर और माँ के सारे काम अपने हाथ से किये किसी नर्स को नहीं रखा किसीआया को नहीं रखा। वह अपनी माँ के दोनों हाथ के दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण कभी भी परेशान नहीं हुई। उसने माँकों नहलाने धुलाने से लेकर उसकी चोटी बनाने से लेकर समय समय पर दवा और खाने तक को अकेले संभालरखा था। आज जब माँ उसके पास जा रही है तो इतना तीखा बोल। मुझे इतना बुरा लगा अगर वह बेटी या बेटा सुनेकों उनको कितना बुरा लगेगा? हमारी वाणी और सोच ही हमें उजागर करती है।
बच्चों कों हम रोज ही आरोप लगा कर निन्दित करते हैं कि आजकल के बच्चे बदल गए हैं माँबाप की उपेक्षा करने लगे हैं और उन्हें सिर्फ अपना ही परिवार दिखलाई देता है। ये तो बेटी है , माँ की ममता औरस्नेह का कोई मोल नहीं होता और वह अपने बच्चों के लिए कभी कम नहीं होता। अगर उसने अपने बच्चों केरात की नींद और दिन का चैन खोया तो वह आया नहीं बनीं । अगर बच्चा तकलीफ में रोया तों उसके साथ उसकीमाँ भी रो पड़ती है तब वह आया नहीं बनी। आपके घर वालों के लिए वह रात दिन नौकरानी बनकर काम करतीरही वे उसके दायित्व बना कर उसके ऊपर थोप दिए थे तब उसको नौकरानी नहीं कहा । तब आप आज्ञाकारी बेटेऔर अपनी पत्नी कों आज्ञाकारी बहू बनाये रहे। फिर वह अपनी बेटी के पास जा रही है तों ये व्यंग्य क्यों?
कल कों हमारे बच्चे कुछ गलत करें तों फिर औरों के मुँह से ही नहीं बल्कि खुद हमारे मुँह से भी ऐसेडायलाग निकलने लगते हैं -
-औलाद नालायक निकल गयी।
-अरे हमारे पास इतना पैसा है कि हमें किसी की जरूरत नहीं।
-वे हमारे लिए क्या करेंगे? हम खुद उनके लिए कर देंगे।
-शादी के बाद बच्चे बदल जाते हैं।
ये कुछ लोगों के आम जुमले हैं जो अगर संवेदनशील संतान सुनती है तों उनका कलेजा चीर कर रख देते हैं। कलेजे सभी के बराबर होते हैं और कटाक्ष भी सबके लिय बराबर होते हैं। ऐसे कटाक्ष किसी भी अच्छी सोच वालेव्यक्ति के परिचायक नहीं है। पैसे का अहंकार - बैंक में रखा हुआ पैसा आपको अस्पताल नहीं ले जा सकता है। आपके बीमार होने पर अपने बच्चों की तरह सर पर रखा हुआ हाथ नहीं बन सकता है। जो सुकून वह हाथ देता है वह पैसा नहीं दे सकता है। पैसे या दौलत का अहंकार स्थायी नहीं होता न जाने कौन सा पल हमारी जीवन दिशाकों बदल कर रख दे। इस लिए वाणी संयम और संतुलित बोल जीवन की अमूल्य निधि है। अपने शत्रु से भीसंयमित बोलिए और संतुलित रहिये। इसी में आपका बड़प्पन है और आपकी सही छवि आपके व्यक्तित्व कीगरिमा है ।
माना आज समाज में तमाम संस्थाएं अपने मूल्यों को खो चुकी हैं और खोती चली जा रही है। युवा पीढ़ी कीसोच बदल रही है किन्तु क्या हमारी पीढ़ी भी कहीं अपनी विकृत सोच का परिचय नहीं दे रही है। आज से पांचदशक पहले भी परिवार में नालायक कहे जाने वाले सदस्य होते थे। पर संयुक्त परिवार की बहुलता के करण ऐसेलोगों का बाहुल्य नहीं हो पाया। आज जब लाइफ स्टाइल बदल रही है। हमारे बच्चे हमारे जीवन काल में झेले गएसंघर्षों की छाया तले खुद नहीं जीना चाहते हैं और सही भी है। हमारे समय और आज के समय में कई दशकों काअंतर है। वे उन सबसे बचने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। क्या हम उनके लिए कुछ भी नहीं कर सकतेहैं । अगर हम कुछ करते हैं तो ये हमारी ममता और स्नेह का ही रूप होता है और माता पिता का यह रूप तो विषमपरिस्थिति में बदल जाए वो बात अलग हैं अन्यथा बच्चे उनकी जान होते हैं ।
मैं अपनी एक अभिन्न मित्र के यहाँ गयी , वह अपनी पुत्री के पास बैंगलोर जा रही थीं। पति घर परही रहने वाले थे क्योंकि वे अपने व्यवसाय के कारण साथ नहीं जा सकते थे, लेकिन उनकी नौकरानी सब तैयारकरके दे सकती थी सो कोई परेशानी नहीं थी। उन्होंने बताया कि उनका १० दिन रहने का इरादा है। श्रुति का बेटाअभी छोटा है और उसके घर में इस समय कोई नहीं है। दामाद भी एक हफ्ते के लिए विदेश जाने वाला था। इसतरह से उसका भी कुछ चेंज हो जायेगा और उसके बच्चे को भी अच्छा लगेगा।
उनके पति तपाक से बोले - क्यों नहीं ? आजकल आया तो बड़े शहरों में मिलती नहीं है। किसी को अपनेबच्चे के लिए आया की जरूरत होगी, इन्हें बुला लिया जायेगा या खुद चली जाएगी ।
मुझे यह सुनकर बहुत ही दुःख हुआ क्योंकि यही वह बेटी है जिसने दो साल पहले अपनी माँ केएक्सीडेंट होने पर ३ महीने यही रहकर और माँ के सारे काम अपने हाथ से किये किसी नर्स को नहीं रखा किसीआया को नहीं रखा। वह अपनी माँ के दोनों हाथ के दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण कभी भी परेशान नहीं हुई। उसने माँकों नहलाने धुलाने से लेकर उसकी चोटी बनाने से लेकर समय समय पर दवा और खाने तक को अकेले संभालरखा था। आज जब माँ उसके पास जा रही है तो इतना तीखा बोल। मुझे इतना बुरा लगा अगर वह बेटी या बेटा सुनेकों उनको कितना बुरा लगेगा? हमारी वाणी और सोच ही हमें उजागर करती है।
बच्चों कों हम रोज ही आरोप लगा कर निन्दित करते हैं कि आजकल के बच्चे बदल गए हैं माँबाप की उपेक्षा करने लगे हैं और उन्हें सिर्फ अपना ही परिवार दिखलाई देता है। ये तो बेटी है , माँ की ममता औरस्नेह का कोई मोल नहीं होता और वह अपने बच्चों के लिए कभी कम नहीं होता। अगर उसने अपने बच्चों केरात की नींद और दिन का चैन खोया तो वह आया नहीं बनीं । अगर बच्चा तकलीफ में रोया तों उसके साथ उसकीमाँ भी रो पड़ती है तब वह आया नहीं बनी। आपके घर वालों के लिए वह रात दिन नौकरानी बनकर काम करतीरही वे उसके दायित्व बना कर उसके ऊपर थोप दिए थे तब उसको नौकरानी नहीं कहा । तब आप आज्ञाकारी बेटेऔर अपनी पत्नी कों आज्ञाकारी बहू बनाये रहे। फिर वह अपनी बेटी के पास जा रही है तों ये व्यंग्य क्यों?
कल कों हमारे बच्चे कुछ गलत करें तों फिर औरों के मुँह से ही नहीं बल्कि खुद हमारे मुँह से भी ऐसेडायलाग निकलने लगते हैं -
-औलाद नालायक निकल गयी।
-अरे हमारे पास इतना पैसा है कि हमें किसी की जरूरत नहीं।
-वे हमारे लिए क्या करेंगे? हम खुद उनके लिए कर देंगे।
-शादी के बाद बच्चे बदल जाते हैं।
ये कुछ लोगों के आम जुमले हैं जो अगर संवेदनशील संतान सुनती है तों उनका कलेजा चीर कर रख देते हैं। कलेजे सभी के बराबर होते हैं और कटाक्ष भी सबके लिय बराबर होते हैं। ऐसे कटाक्ष किसी भी अच्छी सोच वालेव्यक्ति के परिचायक नहीं है। पैसे का अहंकार - बैंक में रखा हुआ पैसा आपको अस्पताल नहीं ले जा सकता है। आपके बीमार होने पर अपने बच्चों की तरह सर पर रखा हुआ हाथ नहीं बन सकता है। जो सुकून वह हाथ देता है वह पैसा नहीं दे सकता है। पैसे या दौलत का अहंकार स्थायी नहीं होता न जाने कौन सा पल हमारी जीवन दिशाकों बदल कर रख दे। इस लिए वाणी संयम और संतुलित बोल जीवन की अमूल्य निधि है। अपने शत्रु से भीसंयमित बोलिए और संतुलित रहिये। इसी में आपका बड़प्पन है और आपकी सही छवि आपके व्यक्तित्व कीगरिमा है ।
15 टिप्पणियां:
विचारोत्तेज़क आलेख ! बहुत सुन्दर ! आपको पढना सदैव अच्छा लगता है.. और दिल्ली में आप से मिलकर अच्छा लगा..
उत्तम आलेख....व्यक्तित्व की गरिमा के लिए बोली का संयम बहुत आवश्यक है.
bahut sahi kaha aapne.
vicharotejak aalekh.
रेखा दीदी,
आपकी बात सोलह आने सच है.मेरे जीवन में भी ऐसा समय आया था जब मेरी सास कैंसर से पीड़ित थी.मैंने अपनी पत्नी को कहा था कि जबतक उनलोगों को तुम्हारी जरूरत है तुम वहीँ रहो और पूरी लगन से उनकी सेवा करो.ऐसा अवसर बार-बार नहीं आता.समय और आगे की पीढ़ी पर दोष मढ़कर बच पाना बहुत मुश्किल है.समाज में आये बदलाव - अच्छे या बुरे - के लिए हम अधिक जिम्मेवार हैं. माटी से अधिक दोष कुम्हार का ही होता है. सही कहा आपने "वाणी संयम और संतुलित बोल जीवन की अमूल्य निधि है।"आप जैसा दृष्टान्त सामने रखेंगे वैसा ह परिणाम सामने पाएंगे.
दिशा देती रचना.
आपसे हिंदी भवन में मिलकर एक अजीब सी आत्मिक ख़ुशी महसूस कि मैंने.आप सबका स्नेह मेरी धरोहर बनाकर रहेगा.
राजीव भाई,
मेरा दिल्ली आने का मुख्य अपने सभी ब्लोगर साथियों से मिलना ही था. मेरी वह तमन्ना पूरी हुई और आना सफल हुआ. रूबरू मिलने से बात कुछ और ही होती है.
अरुण जी,
बहुत बहुत धन्यवाद . आलेख अच्छा लगा और मुझे भी आप सबसे मिल कर बहुत अच्छा लगा. मेरा आना सार्थक हुआ.
रेखाजी
बहुत सार्थक आलेख |अभी कुछ दिन पहले मेरे चचेरे देवर देवरानी मेरे से मिलने यहाँ बेंगलोर आये थे तो ऐसे ही बाते निकली |उनके कोई बच्चे नहीं है |पर वे सारे परिवार को ही अपना मानते है काफी मिलनसार है तो उनका कहना यही था की पहले की अपेक्षा आज के बच्चे अपने माता पिता का ध्यान ज्यादा अच्छे से और सम्मान पूर्वक रखते है |आपके आलेख के उदाहरन में मै चार लाइने कहूँगी
उन्होंने तो दी थी
हमे घने दरख्तों की छाया
जिसमे हम भरपूर फले भी फूले भी
हम अभी से आशंकित ,आतंकित
क्योकि हमने तो दी है इन्हें
बोगनबेलिया और मनी प्लांट की छाया |
रेखा श्रीवास्तव जी, आप के लेख से समह्त हुं, अगर हम अपने बच्चो को समय दे तो बच्चे भी हमे बुढापे मे समय देगे,बच्चो की शादी के बाद हमारा फ़र्ज बनता हे उन की बीबी यनि बहू को हम बेटी की तरह से रखे..ऎसी बाते हम ने यहां ओर भारत मे बहुत देखी हे सास बहू की, मां बाप ओर बेटो की ओर हमेशा ही इन सब बातो से सवक ही लिया हे, धन्यवाद
शोभना जी/राज जी
हम सदैव दूसरों में जिस व्यवहार की अपेक्षा करें वह हमें भी करना चाहिए. अपनी सोच को सकारात्मक रखें तो परिणाम भी सकारात्मक मिलेंगे. जब बच्चे छोटे होते हैं तो हम उन पर जान देते हैं और बड़े होने पर ऐसा क्यों सोचने लगते हैं. वैसे प्यार देने से प्यार ही मिलता है, फिर चाहे इसे आप इंसान से लेकर पशु पक्षी तक किसी में भी देकर देखें.
उत्तम आलेख.
बुढ़ापे में पैसे के साथ व्यवहार भी बहुत काम आता है !
वाणी संयम और संतुलित बोल जीवन की अमूल्य निधि है। अपने शत्रु से भीसंयमित बोलिए और संतुलित रहिये। इसी में आपका बड़प्पन है और आपकी सही छवि आपके व्यक्तित्व कीगरिमा है ।
bahut achchi baat likhi hain aap....
वाणी संयम और संतुलित बोल जीवन की अमूल्य निधि है। अपने शत्रु से भीसंयमित बोलिए और संतुलित रहिये...
सार्थक संदेश देता अच्छा आलेख.
व्यक्तित्व की गरिमा के लिए बोली का संयम बहुत आवश्यक है.बाते हाथी पाईये बाते हाथी पावँ
संवेदन शील आलेख
रेखा जी आपसे सहमत हूँ।
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