सब कहते हैं कि आतंकवादियों का कोई मजहब या ईमान नहीं होता. हम पहचान भी नहीं पाते हैं उनको और वे हमारे साथ रहते हैं. ऐसे ही लोगों के बीच में भी रही और नहीं पहचान पाई. पहचानने की कोई गुंजाईश भी नहीं थी क्योंकि पढ़े लिखे इंजीनियर आप उनसे क्या उम्मीद कर सकते हैं?
आई आई टी में भी २००२ की बात हम सब अपने लैब में काम कर रहे थे कि हमारे साथियों में से एक बोला - 'आज शहर में कुछ होने वाला है.'
"क्या होने वाला है?" सबने पूछा.
"कुछ गड़बड़ हो सकती है."
उस समय बात आई गयी हो गयी और हमने अधिक ध्यान भी नहीं दिया. दिन में २:३० पर शहर से उसके पास फ़ोन आया कि शहर में दंगा हो गया और कर्फ्यू लगा दिया गया है. शहर के कुछ इलाके बेहद संवेदनशील हैं. उनमें से एक उसी इलाके में रहता था. सभी जगह ये होने लगा कि किस तरह से सुरक्षित घर पहुंचा जा सकता है. मेरे भतीजी की एक सहेली उस समय आई आई टी में प्रोजेक्ट कर रही थी. उसकी माँ ने फ़ोन किया कि आप इंदु को अपने साथ घर लेती जाएँ क्योंकि मेरा घर आई आई टी से पास भी था और सुरक्षित रास्ते थे. उसका घर बहुत दूर था.
मैं उसके साथ बस स्टॉप पर खड़ी थी कि किसी तरह यहाँ से निकला जाय. तभी मेरे साथ काम करने वाले एक युवक जो कि इंदु के इलाके में ही रहता था. अपनी गाड़ी से निकला. दरअसल कर्फ्यू के बाद उसका मित्र उसको लेने आ गया था. चूँकि इंदु उसी बस से आती थे जिससे वह आता था. मुझसे बोला कि आप इनको मेरे साथ भेज दीजिये. फिक्र न करें मैं इसको सुरक्षित घर पहुंचा दूंगा. उसने गाड़ी रोक दी . मैं संशय में पड़ी कि दो लड़को और वे भी दूसरे संप्रदाय से जुड़े क्या अकेली लड़की को उनके साथ भेजना उचित है? मुझे तुरंत निर्णय लेना था क्योंकि उसने गाड़ी रोक रखी थी.
"नहीं, इसको मैं अपने घर ले जा रही हूँ, सुबह इसको घर भेज दूँगी या फिर मेरे घर पर ही एक दो दिन बनी रहेगी. "
"नहीं , आप परेशान न हों, मैं सुरक्षित पहुंचा दूंगा."
मैंने उसको मना कर दिया और वह चला गया. उसको लेकर मैं घर आ गयी और दूसरे दिन उसका भाई आकर ले गया.
चार दिन तक कर्फ्यू लगा रहा. बहुत बवाल शहर में मचा रहा कितनी जाने गयीं और कितना नुक्सान हुआ. शांति होने बाद ऑफिस खुला और हम सब लोग पहुंचें. उनमें से करीब सभी आई आई टी के रहने वाले या फिर होस्टल के रहने वाले थे. मैं और वे दोनों शहर से आते थे. अपना लंच साथ लाते थे. इसलिए हम लोग लैब में ही रहते थे. लंच लेने के बाद मैंने अपनी टेबल पर सिर रख कर रेस्ट करती थी.
शायद उन लोगों में से एक ने सोचा कि मैं सो गयी हूँ. कहने लगा - 'तीन दिन बाद हमारे पास सारी बारूद ख़त्म हो चुकी थी और हम पैसे लिए घूम रहे थे लेकिन हमें न बम मिले और न बारूद. नहीं तो ये लड़ाई अभी कई दिन तक चलती. '
मेरा दिमाग तेजी से काम करने लगा कि कितना अच्छा हुआ उसदिन मैं इंदु को इन लोगों के कहने पर नहीं भेजा. नहीं तो कुछ भी संभव था. उस दिन मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रही थी कि उसने ऐन वक्त पर मुझे संशय से बाहर निकल लिया और मैं किसी के विश्वास की रक्षा कर सकी.
इस तरह से हम नहीं पहचान पाते हैं ऐसे लोगों के असली चेहरे. वे हमारे बीच ही रहते हैं और हमें सोया समझ कर सामने आ जाते हैं.
गुरुवार, 9 दिसंबर 2010
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25 टिप्पणियां:
sahii kehaa isliyae jaagruk rehna hoga sabko
सही कहा रेखा जी,
इस तरह से हम नहीं पहचान पाते हैं ऐसे लोगों के असली चेहरे. वे हमारे बीच ही रहते हैं और हमें सोया समझ कर सामने आ जाते हैं.
ओह.....लेकिन जान लेने के बाद आपने क्या किया ?
सच है किसी पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता ...
आपने जो जिम्मेदारी ली थी उसे अच्छे से निभाया। लेकिन मेरी भी यही जिज्ञासा है कि जानने के बाद आपने क्या किया ?
हे भगवान ...ये सच है रेखा जी !?...क्या हहो गया है लोगों को ..सच में, किस पर विश्वास करें ?..
रोंगटे खड़े हो गए हैं इसे पढ़कर ...
ऐसा भी होता है ....!
आपका कथन सही है!
आतंकवादियों के इस कायरतापूर्ण कदम की निन्दा करता हूँ!
ओह , इश्वर का लाख शुक्रिया की आपने एकदम सटीक निर्णय लिया उनके साथ ना भेजकर उस लड़की को . रोंगटे खड़े हो गए ऐसे आस्तीन के सांपो के बारे में सुनकर .
लोग अपने चेहरों पर इतने चेहरे लगा कर घुमते हैं के असलियत का पता चल ही नहीं पाता...आपने संकट के समय बेहतर निर्णय लिया...
नीरज
सच में, किस पर विश्वास करें ?..
सभी की तरह मेरा भी प्रश्न है कि आपने फिर क्या किया?
आपने कदम सही उठाया मगर जानने के बाद क्या किया ये भी जानना चाहते हैं।
sahi kaha....
Bhagwan apko lambi umra de, Apki samjhadari ne ek ladki ki jan aur ijjat dono bacha li.
pप्रश्न तो मेरा भी यही है कि आपने क्या किया लेकिन जानती हूँ कि इसका जवाब आसान नही। किया भी होगा तो कहना मुश्किल है। सही बात है मुश्किल है अपने बीच ऐसे चेहरे पहचानना। यही दौर हम पंजाब मे देख चुके हैं।
इनकी बातों पर कैसे विश्वास करलें. आपने उचित किया.
इस यथाथ को पढकर रोम-रोम सिहर उठा। कितना क्रूर सत्य है यह। आपकी जागरूकता ने एक और हादसा होने से बचा लिया।
रेखा जी क्षमा करें। आप अभी तक चुप हैं और आपने उस सवाल का जवाब नहीं दिया कि आपने क्या किया। निश्चित ही जवाब कठिन होगा।
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मैंने पोस्ट को दुबारा पढ़ा। आपने पहली ही पंक्ति में लिखा है कि आतंकवादियों का कोई मजहब नहीं होता। पर फिर आपने उन दोनों व्यक्तियों के बारे में एक इशारा कर दिया कि वे दूसरे संप्रदाय के थे। यह संयोग है कि वे संदिग्ध व्यक्ति निकले। लेकिन क्या आपके लिए दूसरे संप्रदाय का व्यक्ति होना मात्र ही संदिग्ध होने के लिए पर्याप्त है।
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आपने तो यह सावधानी बरती कि संप्रदाय का नाम नहीं लिखा। पर आप देख रही हैं कि एक टिप्पणीकर्ता ने मान लिया है कि वे उस संप्रदाय के होंगे जिसका वे जिक्र कर रहे हैं।
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चूंकि आपने अभी तक जवाब नहीं दिया है,इसलिए मैं यह सवाल भी रख रहा हूं कि अगर वे दोनों सचमुच इस सबमें शामिल थे तो क्या इसके बावजूद वे स्थिति सामान्य होने पर कार्यालय आने की हिम्मत कर सकते थे।
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आप ने ऎन वक्त पर बहुत सुंदर निर्णय लिया, ओर उन्हे पकडवाया या नही, वेसे आज तो सच मे किसी पर विशवास नही होता, पता नही कोन किस भेष मे ऎसा निकले..... आप की पोस्ट पढ कर मेरा विश्वाश ओर भी बढ गया,पता नही कोन केसा निकले... धन्यवाद
उनके बारे में शेष लोगों को मैंने बता दिया था. लेकिन उनको अहसास नहीं हो . बॉस ने भी उनको आगे लिए extension नहीं दिया. और उनको अनुभव प्रमाण पत्र लिखित में देने से इनकार कर दिया था. इस पर काफी बवाल किया उन लोगों ने लेकिन फिर यहाँ से छोड़ कर चले गए.
राजेश जी,
मेरी पोस्ट पहले से scheduled थी. और दो दिन से नेट ख़राब था. इस लिए उत्तर नहीं दे सकी अभी इसी वक्त ठीक हुआ है तो सारी टिप्पणी पढ़ी और लिख रही हूँ.
नहीं दोनों संप्रदाय के मेरे मित्र है और विश्वसनीय और प्रिय भी हैं. वे भी मेरे लिए और साथ कम करने वालों के तरह ही प्रिय थे कभी हम लोग ऐसा सोच ही नहीं सकते थे. लेकिन उस दिन की बात ने हमें जागरूक कर दिया. लैब में कभी ऐसा कोई काम नहीं किया था. ये इत्तेफाक था कि वे दूसरे संप्रदाय के थे. ये किसी भी संप्रदाय के हो सकते हैं.
हाँ वे स्थिति सामान्य होने के बाद बराबर आये लेकिन बाद में जो हुआ वह मैंने इससे पहले कि टिप्पणी में लिख दिया है.
दहशतगर्दों का कोई मजहब नहीं होता ये आज भी कह रही हूँ क्योंकि पाकिस्तान में होने वाली वारदातें क्या हैं? वहाँ तो मंदिर नहीं है मस्जिदों और नमाजियों को भी वे शिकार बना रहे हैं. ये आस्तीन के सांप होते हैं. कभी कभी तो घर वाले भी उनकी हरकतों से वाकिफ नहीं हो पाते हैं.
अभिषेक जी,
दूसरे संप्रदाय के धर्म ग्रंथों की आलोचना मैं बिल्कुल भी पसंद नहीं करती क्योंकि सबकी अपनी अपनी मान्यताएं और विश्वास होते हैं और वे उनके लिए अनुकरणीय होते हैं लेकिन वे भी अपने विवेक से काम करते हैं सभी तो एक से अधिक पत्नी नहीं रखते हैं. अपने धर्म की बात करें तो हमें भी कुछ स्थितियों में दूसरे विवाह की अनुमति दी जाती है. राजा दशरथ के तीन रानियाँ थीं. भगवान कृष्ण के भी बहुत सी पत्नियाँ थी. तब?
अंगुली हम पर भी उठाई जा सकती है. इस लिए ये कहीं से भी उल्लेख करने का मुद्दा नहीं है. हमें अमन और चैन के लिए सिर्फ और सिर्फ मानव धर्म पर विश्वास करना चाहिए. जो हर संप्रदाय में एक ही है.
मैंने तो ऐसा भी देखा है की एक संप्रदाय ने दंगों के होने पर अपने घरों में दूसरे संप्रदाय के लोगों को शरण दी और वह भी अपने संप्रदाय के लोगों से दुश्मनी मोल लेकर. किसलिए - सिर्फ मानव धर्म को मानकर और सब संप्रदाय , धर्म और विश्वासों से बड़ा मानव धर्म है.
आदरणीय रेखा जी,
नमस्कार !
बहुत सुंदर निर्णय लिया,
क्रूर सत्य है यह। आपकी जागरूकता ने एक और हादसा होने से बचा लिया।
"माफ़ी"--बहुत दिनों से आपकी पोस्ट न पढ पाने के लिए ...
शुक्रिया रेखा जी। आपने स्पष्टीकरण देकर अच्छा किया।
आपने बिलकुल सही बात कही है। आपकी बात में ही एक और बात मैं भी जोड़ देता हूं। यह सारी लड़ाई अच्छाई और बुराई के बीच है। रामायण और महाभारत दोनों में ही कोई और संप्रदाय नहीं था। लड़ने वाले एक ही संप्रदाय के थे।
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