चिट्ठाजगत www.hamarivani.com

शनिवार, 12 जून 2010

कुछ ऐसे भी हैं?

             जिन्दगी के मेले में कितने तरह से लोग मिलते हैं और हम सबसे दो चार हो कर या तो उन्हें भूल जाते हैं या फिर ऐसा कुछ घटित हो जाता है कि हम उन्हें भूल ही नहीं पाते हैं बल्कि एक अजीब से वितृष्णा मन में पैदा हो जाती है कि उनको शिक्षित और सभ्य लोगों की श्रेणी में रखने के लायक भी नहीं समझा जाता है.
              मैं अपना एम एड पूरा करके निवृत हुई थी कि मेरे पति के मित्र , जिनका कि एक स्कूल चल रहा था , इनसे बोले कि रेखा तो फ्री ही है क्यों न मेरे स्कूल  में  प्रिंसिपल कि जगह पर आ जाये. मुझे प्रिंसिपल की जरूरत है. वह दोनों लोग किसी महाविद्यालय में प्रवक्ता थे सो उन्हें कोई परिचित व्यक्ति ही चाहिए था जो कि स्कूल देख सके. उनमें पतिदेव तो काफी सज्जन पुरुष थे लेकिन पत्नी किसी पहुँच के कारण महाविद्यालय तक पहुँच गयी थी सो उनमें अपने पद और धन दोनों का भी बहुत घमंड था. 
                           मेरी एक परिचित अचानक आर्थिक परेशानी में फँस गयीं - पति की नौकरी छूट गयी , वह तो गृहिणी ही थी लेकिन उच्च शिक्षित थी. उनको मदद की जरूरत थी सो मैंने उन्हें प्राइमरी टीचर की तरह से नियुक्त कर लिया. यद्यपि वो उस काम से लिहाज से काफी अधिक शिक्षित थी लेकिन मेरे पास और कोई विकल्प उस समय नहीं था.  वे सीधी सादी  महिला थीं सबसे बड़ी बात कि उनके पास सीमित साड़ियाँ थी.  वे उन्हीं को बदल बदल कर पहन कर आती थी. मेरी दृष्टि में ऐसी कोई बात नहीं थी और न ही मैंने इसको ध्यान दिया क्योंकि मुझे ये अपराध बोध होता था कि इनकी  विद्वता का उपयोग नहीं हो पा रहा है. 
                           एक दिन श्रीमती मैनेजर साहिबा ने स्टाफ रूम में सभी के सामने उनसे कहा - 'देखो तुम्हारी यह साड़ियाँ अब अच्छी नहीं लगती हैं - तुम इनको अब गद्दे या रजाई पर चढ़ा दो. तुम्हें ऊब नहीं होती वही साड़ियाँ पहनते हुए.'
(उनके  ये शब्द मुझे आज भी जस के टस याद हैं.)
                हो सकता है कि उन्होंने वह बात मजाक के लहजे में कही हो या फिर अपने दंभ में. वह महिला इस बात को सहन नहीं कर सकी और वह सभी के सामने अपमानित महसूस करके रो पड़ी. श्रीमती मैनेजर एकदम सकपका गयी और तुरंत बोली - मेरा यह मतलब था कि एक ही साड़ी पहन कर हम ऊब जाते हैं तो उठाकर रख देते हैं और फिर कुछ महीनों के बाद निकल लेते हैं. तो तबियत उबती नहीं  हैं.
                 उनको ये पता था कि वह महिला किस समस्या का सामना कर रही है? फिर अगर हम ये महसूस न कर सके कि कोई किस तरह से अपनी जिन्दगी अपनी समस्याओं के साथ गुजर रहा है. वह एक प्राध्यापिका है , उनमें वह गरिमा और दूसरों को प्रभावित करने का गुण होना चाहिए न कि किसी को अपमानित करने का . फिर हम किसी के व्यक्तिगत मामलों में सार्वजनिक टिप्पणी करें तो ये हमारी समझदारी नहीं है. लेकिन मैं खुद बहुत अधिक दिन वहाँ नहीं रह पायी और मैंने उनका स्कूल छोड़ दिया. 
               वक्त ने अपना दूसरा रूप दिखाया और वह परेशान महिला आज एक सफल व्यवसायी  बन चुकी हैं  और उनके जीवन का रूप ही बदल गया है लेकिन आज भी वह उतनी ही विनम्र है. पैसे से इंसान अपना स्तर तो बड़ा सकता है लेकिन उसका मानसिक स्तर और सोच सिर्फ और सिर्फ उसके संस्कारों से ही बनती है.

11 टिप्‍पणियां:

दिलीप ने कहा…

waah bahut achchi baat batayi...zindagi haarne walon ke liye nahi hai...dhairy rakho aur aage badho...bulandi tumhare pairon me padi hogi...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सही बात को बहुत अच्छी तरह से कहा है...प्रेरणादायक...जेवण में किस तरह दूसरों से व्यवहार करना चाहिए इसकी सीख देता हुआ...

Kajal Kumar ने कहा…

"पैसे से इंसान अपना स्तर तो बड़ा सकता है लेकिन उसका मानसिक स्तर और सोच सिर्फ और सिर्फ उसके संस्कारों से ही बनती है." समाजशास्त्री इसे nouveau riche (नवधनाड्य) के सटीक नाम से पुकारते हैं.

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

roj-marra ki offices ki zindgi ki kisi ghatna ko acche shabdo ka jama pahnana...acchha laga.

sach aisa hi hota he ki kayi baate jas ki tas rah jati he dimag me.

संगीता पुरी ने कहा…

पैसे से इंसान अपना स्तर तो बड़ा सकता है लेकिन उसका मानसिक स्तर और सोच सिर्फ और सिर्फ उसके संस्कारों से ही बनती है.
बहुत सही बात !!

वाणी गीत ने कहा…

पैसे से इंसान अपना स्तर तो बड़ा सकता है लेकिन उसका मानसिक स्तर और सोच सिर्फ और सिर्फ उसके संस्कारों से ही बनती है...
शत प्रतिशत सहमत ...!!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

क्या कहों इस पोस्ट पर? पता नहीं कितनी ही महिलायें ऐसी हैं, जिनकी वजह से हम सब पर " औरताना सोच" का ठप्पा लग जाता है. मेरी भी एक सहकर्मी कुछ ऐसे ही हालात वाली थीं, एक अन्य अध्यापिका ने एक दिन उनके पति की तनख्वाह पूछी. बेचारी उस सज्जन महिला ने बता दी तो वे अध्यापिका महोदया तुरन्त अपन बड़प्प्न बघारते हुए बोलीं" अरे बाप रे!! कैसे घर चला लेतीं हैं आप? मेरे बच्चे तो बिना मक्खन-मलाई के ब्रेड तक नहीं खाते...."
क्या कहूं इस बीमार मानसिकता को??

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

वंदना ,

तुम्हारा कहना सही है, हम अपने दायरे में इस तरह कि घटनाओं से दो चार हुआ करते हैं. ये न व्यक्ति की superiority complex का नतीजा होता है. जो वास्तव मेंsuperior होते हैं वे उसकी नुमाइश नहीं करते बल्कि वे और विनम्र होते हैं.

शोभना चौरे ने कहा…

आज उपर से तो कितने ही लोग रहन सहन में चमक ले आये है लेकिन ऐसे लोगो की सोच हमेशा से घटिया रहती है
और असल सवाल सोच का ही होता है जो आपको आपकी सही परवरिश से ही मिलती है |
सचमुच" यथार्थ "है |

शेरघाटी ने कहा…

साथियो, आभार !!
आप अब लोक के स्वर हमज़बान[http://hamzabaan.feedcluster.com/] के /की सदस्य हो चुके/चुकी हैं.आप अपने ब्लॉग में इसका लिंक जोड़ कर सहयोग करें और ताज़े पोस्ट की झलक भी पायें.आप एम्बेड इन माय साईट आप्शन में जाकर ऐसा कर सकते/सकती हैं.हमें ख़ुशी होगी.

स्नेहिल
आपका
शहरोज़

Unknown ने कहा…

ऐसी गलती कभी-कभी इंसान से बगैर सोचे-समझे बोलने के कारण भी हो जाती है, जहाँ उसका उद्देश्य किसी का दिल दुखाना कतई नहीं होता। इसीलिए कहते हैं कि पहले अपने शब्दों को हृदय रूपी तराजू में तोलने के बाद ही मुख से निकालना चाहिए।