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रविवार, 6 जून 2010

एक और बागवाँ !

               जब बागवाँ फ़िल्म आई तो बहुत पसंद की गयी थी. एक आयु वर्ग ने इसको सराहा और एक ने इसकी आलोचना की. ये तो बात साफ है की किसने सराहा और किससे आलोचित हुई. ऐसे एक बागवां की पुनरावृत्ति फिर सामने आ गयी.
                              वो मेरे दूर के रिश्ते में हैं, कभी कभी उनसे मुलाकात भी हुई. भले लोग लगे थे. कल खबर आई कि उनकी माँ का निधन हो गया? ये बात तो मुझे पहले से ही पता थी कि वे अपनी बेटी के यहाँ रह रही थीं. माँ के लिए बेटे और बेटी दोनों ही बराबर होते हैं, दोनों को वह अपने गर्भ में धारण करके जन्म देती है और वही कष्ट उठाती है. फिर माँ के प्यार को बांटने की बात कैसे सोच लेते हैं लोग. सिर्फ इसलिए की बेटी को उस घर से विदा कर दिया तो उसकी माँ माँ नहीं रही. वो अपनी बेटी को याद नहीं कर सकती है और न ही उसके प्रति अपना प्यार ही प्रकट कर सकती है. ऐसा ही कुछ था. एक बेटा और एक बेटी ही थी.
                               अपने समाज की परंपरा के अनुसार वे भी अपने बेटे के साथ ही रहती थी, किन्तु जो दूर होता है उससे स्नेह अधिक होता है या फिर याद आती है. जो आँखों के सामने होता है उसको तो स्नेह मिलता ही रहता है. किन्तु शायद विवाह के बाद ये परिभाषा बदल जाती है. बेटा चाहे कम लेकिन बहू को अपनी ननद के प्रति सास का प्रेम अच्छा नहीं लगता. हर जगह ऐसा ही हो ऐसा नहीं है. तभी हर घर में बागवान जैसी कहानी नहीं होती.  एक बार जब वे बहुत बीमार हुई तो उन्होंने बेटी को बुलाने की बात कही, उसको सुन कर अनसुना कर दिया. कई दिन बार बार कहने पर भी जब उन्हें बेटी को बुलाने की बात समझ नहीं आई. उनकी हालत बिगड़ रही थी. बहू ने क्या सोचा नहीं जानती ? उनके नाम बहुत सी जायदाद थी. आखिर उनके कोई रिश्ते डर उनसे मिलने आये तो उन्होंने उनसे कहा की मेरी बेटी को बुला दो. उनका यह कहना ही तो उनके लिए देश निकाले का फरमान बन गया.
            "बेटी बेटी की रट लगाये रहती हो, जब बेटी इतनी प्यारी है तो उसके साथ ही जाकर क्यों नहीं रहती?"
     एक तो बीमार और फिर लाचार माँ को इन शब्दों ने कितना आहत किया होगा ये तो वही बता सकती है लेकिन बेटी आई तो उन्होंने उसके साथ चलने की बात कही. थोड़ी सी शर्म और समाज के डर से कहा गया कि यहाँ कौन सा कष्ट  है जो वहाँ जाना चाहती हो. पर मन ही मन वे सब चाह रहे थे कि ये चली जाएँ. पता नहीं कितने दिन बीमार रहेंगी?
                  वे अपनी बेटी के साथ चली आई और आने के बाद उन्होंने अपनी बेटी से वचन लिया की अब वह उन्हें कभी उन लोगों के पास नहीं भेजेगी. बेटी ने और उसके पति व बच्चों ने उनको वचन दिया और पूरी पूरी मानसिक सुरक्षा का अहसास भी दिलाया.
                  वे दो साल वहाँ रहीं और स्वस्थ रहीं, फिर अचानक चल बसी. बहन ने भाई को खबर भेजी और वह सपरिवार वहाँ आया भी , पर मरते समय उन्होंने अपनी वसीयत खोलने के लिए कहा था. उनकी वसीयत वकील के पास ही थी और वह खोली गयी तो उन्होंने लिख था - 'मेरी पूरी संपत्ति मेरे बेटे को ही मिलेगी क्योंकि मेरी बेटी को उसकी कोई भी जरूरत नहीं है. बस मेरे मरने के बाद  ये मेरी देह मेरी बेटी को मिलेगी, जिसका क्रिया कर्म करने का अधिकार मैं अपने बेटी के बेटे को देती हूँ.  मेरी अर्थी में कंधा लगाने के लिए भी मेरे बेटे या उसको बेटों को इस्तेमाल न किया जाय. यही मेरी आखिरी इच्छा होगी.'
                      और उनकी बेटी और उसके बेटों ने उनकी इस इच्छा का पूरा सम्मान किया , उनके बेटे या पोतों को कंधा लगाने का भी हक नहीं दिया. सब साथ गए और उनका अंतिम संस्कार भी उनके दौहित्र ने ही किया.
                       जहाँ बेटा रहता था वहाँ सब लोग इन्तजार कर रहे थे की बेटा माँ की शव को लेकर पैतृक घर लाएगा और वही पर उनका अंतिम संस्कार होगा किन्तु वह तो खाली हाथ लौट आया.  माँ ने उसको माफ नहीं किया था और ये बोझ वह सारी जिन्दगी ढोता रहे या न रहे लेकिन ये माँ के दिल के दर्द को शायद ही समझ पाए.  इतना कठोर निर्णय कोई माँ कब लेती है? इसको वही जान सकती है लेकिन बेटे के लिए ये समाज में और सबके सामने अपने कर्त्तव्य च्युत होने का ये दंड हमेशा याद रहेगा.

16 टिप्‍पणियां:

rashmi ravija ने कहा…

बहुत ही मार्मिक घटना...किस कठोर ह्रदय से माँ ने वह निर्णय लिया होगा..और उनकी आत्मा कितना रोई होगी...अंदाजा लगाया जा सकता है...बहुत ही दुखद स्थिति

shikha varshney ने कहा…

रेखा जी ! आज मुझे सचमुच समझ नहीं आ रहा कि मैं क्या कहूँ ...ये बेटे के साथ रहने कि सामाजिक प्रथा.....ओर जिसके बेटे न हों सिर्फ बेटी हो तो.?
पता नहीं क्यों कुछ प्रथाएं हमारे समाज कि बहुत विचलित करती हैं मुझे.
हम भी बहने हैं सिर्फ ..मेरे पापा कि मृत्यु के समय मैं भी खुद अपने पापा को विदा करना चाहती थी ..परन्तु समाज के ठेकेदारों ने करने नहीं दिया ...अब मेरी मम्मी वही करना चाहती हैं जो आपकी कहानी कि नायिका ने किया ..वैसी ही वसीयत ...

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

bhagvaan kisi bete ko aisa naa banaaye....ki jisase kisi maa ko aisa hona/kahana/likhna pade..
lekin maan ke faisle se main ekdam sahamat hoon....jab tak aise phaisle maa-baapon dwara nahin kiye jaayenge....tab tak naalaayak suputron ko akl bhi kahaan aayegi....!!!!

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

शिखा ,

ये हक है लड़कियों को, शास्त्रों में कहीं भी ऐसा वर्जित नहीं है? अब स्त्रियाँ हवन, अंतिम संस्कार और सारे कर्मकांड करवाती हैं. अगर बेटे नहीं हैं या हैं भी तो नहीं चाहते माँ बाप तो लड़कियों को ये हक है. लड़के नहीं तो खून के रिश्ते लड़की से ही हैं न कि किसी अन्य रिश्तेदार के साथ . ऐसे कदम उठाये जायेंगे तभी तो हम इस पुरातन प्रथा से मुक्तहोंगे.

ज्योति सिंह ने कहा…

दोनों को वह अपने गर्भ में धारण करके जन्म देती है और वही कष्ट उठाती है. फिर माँ के प्यार को बांटने की बात कैसे सोच लेते हैं
wah bahut khoob chitran ,main to shabd shabd me doob gayi padhte huye kyonki abhi jab bahar gayi rahi 15 din ke liye same yakya dekha ,yah bhi vidhi ka vidhan hai ,aesi soch ko waqt hi badal sakta hai ,jab naari hi naari ke bhavnao ka tirashkaar karti hui paai jaati hai to afsos hota hai ,aap achchha likhi hai .

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

ज्योति जी,

अपने बिल्कुल सही कहा, अभी भी ' नारि न नारि के रूपा ' वाली कहावत चिर्तार्थ हो रही है. फिर भी इसके विरुद्ध जब नारि ही बिगुल बजाएगी तब ही दूसरे लोग ठीक होने की सोचेंगे. आलोचना और समालोचना तो मिलेंगी ही फिर भी हमें जो करना है करना है. एक एक से मिलकर ११ होते हैं. मैं गलत तो नहीं हूँ.

vandana gupta ने कहा…

बेहद मार्मिक्…………बिल्कुल सही किया अगर ना करती तो शायद गलत होता………।मेरे ख्याल से आज हर माँ बाप को ऐसे निर्णय लेने ही चाहिये ताकि समाज को एक सही दिशा मिले और आज के युग के बच्चों को एक सबक्………………मैने खुद ऐसे हालात देखे हैं और समझ सकती हूँ उन के हृदय की व्यथा।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत मार्मिक घटना बताई आज आपने....जब तक माता पिता कि अंत्येष्टि में बेटियों को हक नहीं मिलेगा तब तक बेटियां खुद को अधूरा ही महसूस करती रहेंगी....पता नहीं बेटा माँ की भावना को समझा होगा या नहीं....आज दुनिया बहुत भौतिकवादी हो गयी है....

शोभना चौरे ने कहा…

रेखाजी
मै तो उस माँ को धन्यवाद दूँगी जो उन्होंने धारा के विपरीत सार्थक कदम उठाया |बहुत साल पहले दूरदर्शन पर बुनियाद सीरियल में चईजी बनी अदाकारा का साक्षत्कार देखा था मुझे उनका नाम याद नहीं आ रहा है |तब उन्होंने कहा था - बहुए कभी बेटी नहीं बन सकती ...तब ईमानदारी से साक्षात्कार लिए जाते थे और उतने ही ईमानदारी से उत्तर दिए जाते थे
जब घर में दिन भर बहुए तिरस्कार करती है तब भी साँस सहन कर लेती है kitu जब apna ही beta vahi reet palta है तो man sntap से trst ho जाता है|तब वाह दंड का ही अधिकारी hota है |
kintu ak jvlnt prshn है ki jinke बेतिया न हो वो कहाँ जाये ?
अंतर्मन को भिगो गई ये मार्मिक कथा |

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

शोभना जी,

ये बात आपने सही कही कि वे कहाँ जाएँ? हमें कुछ तो ऐसा करना चाहिए की ऐसे लोगों के लिए हम ही कुछ कर सकें. आज मैं एक बात बताती हूँ, मेरी इच्छा थी कि मैं एक ' शरण स्थलम ' खोलूँगी. जिसमें उपेक्षित या जिनका कोई न हो ऐसे बुजुर्गों को रखूंगी . (जो सपना अभी तक तो पूरा नहीं हुआ.) अपने घर में बात कर रही थी तो मेरे चाचा मुझसे बोले बेटा उसमें सबसे पहले मेरा नाम लिख लेना. वो बात मैं भूल नहीं सकती . उन्होंने ऐसा क्यों कहा? उनके दो बेटे और एक बेटी है. और हम लोग तो हैं ही. मगर कौन कहाँ क्या सोचता है? ये वही बता सकता है.

शोभना चौरे ने कहा…

रेखाजी
मै भी कुछ इस तरह का ही सोचती थी और मैंने काफी वृधाश्रम भी देखे थे आज के कीब १२ साल पहले |एक प्रोजेक्ट भी बनाया था एक स्वयम सेवी संस्था के साथ ,किन्तु बात वही आ कर रूक जाती थी सिधान्तो वाली |मैंने जो भी आश्रम देखे थे और जहाँ गई थी जब तह तक जाओ तो उनकी असलियत सामने आती है |किन्तु अभी तीन महीने पहले गुजरात में बड़ोदा के पास एक गोरज नाम के गाँव में मुनि सेवा आश्रम देखा और जाना है तब मुझे लगा मेरी मंजिल मिल गई है मुझे |जहाँ रहकर आप सेवा भी दे सकते है और वहां के वृधाश्रम में भी रह सकते है |वहां मानसिक रूप से विकलांग लडकियों का विशाल आश्रम भी है जिन्हें देखकर अपने आप ही आंसू आ जाते है |और एक केंसर हॉस्पिटल भी है सर्व सुविधाओ से युक्त |www.muniashram.orgpar sari jankari dekh skti hai .aur iski founder ak mhila thi pujyAnuben thakkar .bahut kuchh bat krne ko mn ho raha hai
fir kbhi .

Shekhar Kumawat ने कहा…

बहुत ही मार्मिक घटना.

pad kar achha laga

राज भाटिय़ा ने कहा…

मां तो मां होती है..... बेचारी अंदर से कितनी दुखी होगी यह तो वो ही जाने.... मेरी मां भी कुछ इन्ही परिस्थित्यिओ मै गुजरी थी, दिल मै वो बाते एक चिंगारी की तरह से सुलगती रहती है, कुछ करना चाहू तो भी कुछ नही कर सकता क्योकि मां का वचन बीच मै रुकावट बन जाता है, इस मां ने बहुत सही किया, बेटे ओर उस की बीबी को ज्यादाद चाहिये थी ले ले..... आप की यह पोस्ट पढ कर मां याद आ गई
शिखा जी लडना सीखॊ इन समाज के ठेके दारो से, ओर वो करो जो आप को अच्छा लेगे, जो आप के मां बाप की इच्छा हो.

Udan Tashtari ने कहा…

मार्मिक वृतांत हालांकि ऐसी घटना मैं देख चुका हूँ...आपने विस्तार से लिखा.

Vivek Jain ने कहा…

sach mein marmik ghatna hai.
vivj2000.blogspot.com

Rajiv ने कहा…

"एक और बागवाँ !" Rekha jee maa kis halat mein apne kaleje ke tukde ka tyag karti hai us seema ka nirdharan hamare vash se bahar ki baat hai.
"बनाया था
एक नीड़:
भीतर कोमल,बाहर कठोर.
डाला था उसमें
तुम सबों का बचपन,
चुगकर लाते थे दाने,
चुगाते थे तुम्हें प्यार से
स्वयं रहकर
खाली पेट
कई-कई बार,
सींचते थे
तुम सबका तन-मन
दुलार से ."
bachchon mein ye baatein ghat rahi hain ,unke dayre simat rahe hain.Sambandhon ke dayre ko teji se badhne ki jaroorat hai.Marmsparshi sachchai se rubaroo karane ke liye dhanywad.