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बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

दुरूह जीवन संध्या के पल !


वे स्टेशन की सीढ़ियों पर किनारे से बैठे थे और मैं स्टेशन पर ट्रेन का इन्तजार कर रही थीपता नहीं क्यों मेरी आँखें उनके चेहरे को पढने लगीं -- बार - बार छलक रहे आंसुओं को पोंछते जा रहे थे और आंसू भी बार बार रहे थेमन में एक जिज्ञासा सी हुई कि क्यों इस तरह से अकेले बैठे आंसू पी रहे हैं

अचानक घोषणा हुई कि ट्रेन घंटे लेट हो चुकी है, जाना जरुरी था सो इन्तजार करने के अलावा कोई चारा न था। मैं वही किनारे से अपना बैग रख कर बैठ गयी। समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ से शुरू करूँ? कुछ सिलसिला बने तो उन्हें पढ़ सकूं, उनके छलकते आंसुओं के प्रवाह को और तेज कर सकूं ताकि वे खुद को हल्का महसूस कर सकें।
"आपको कहाँ जाना है? " मैंने ही बात शुरू की।
"कहीं नहीं? ऐसे ही बैठा हूँ।"
"पर आप तो इस बैग में सामान लेकर बैठे हैं।"
"तुमसे मतलब, कौन हो तुम , - जो मेरे से सवाल पर सवाल किये जा रही हो?"
"कोई नहीं एक मुसाफिर हूँ, सोचा आप भी वही चल रहे हों तो हमसफर हो जायेंगे।"
"तुम्हें कहाँ जाना है?"
"बनारस जा रही हूँ।"
" बनारस" कुछ उत्सुकता से मेरी ओर देखा
"हाँ, बनारस , आपको भी वही जाना है क्या?"
"चलना तो है - पर निश्चित नहीं है।"
"चलना हो तो चलिए मैं पहुंचा दूँगी आपके गंतव्य तक।"
"गंतव्य तक - कौन हो मेरी तुम जो मुझे पहुँचाओगी?" स्वर एकदम तीखा हो गया।
"हूँ तो कोई नहीं - पर एक रिश्ता होता है इंसानियत का सो कह दिया।"
"क्या इंसानियत का ठेका ले रखा है।"
"ऐसा तो नहीं है - पर जिसके लिए मन कहता है उसके लिए कुछ भी कर सकती हूँ।"
"मेरे लिए क्या कर सकती हो?"
"बतलाइए?"
"कल मेरे बेटे बहू ने घर से जाने के लिए कह दिया तो आज कपड़े लेकर निकल लिया।"
"क्यों? क्या वह आपका घर नहीं है?"
"नहीं - मैंने सिर्फ बनवाया है, घर तो बेटे के नाम से ही लिया था मैंने।"
"अब कहाँ जायेंगे?"
"यहाँ तो नहीं ही रहूँगा - बनारस में किसी आश्रम में रह लूँगा। पेंशन मिलती है किसी का मुंहताज नहीं हूँ।"
"पर घर तो घर होता है।"
"घर घर वालों से होता है। - अगर घरवाले ही नहीं तो घर कैसा?"
"बहू बेटे भी घरवाले ही हैं।"
"नहीं , मैं अकेला हूँ, मेरी अब कोई पहचान नहीं, बनारस में बाकी जीवन काट लूँगा।"
इतने में गाड़ी आ गयी, मैंने उनसे पूछा - 'चलेंगे' हाँ और न कि उहापोह में फंसे वे उठ खड़े हुए और मेरे साथ ट्रेन में बैठ गए। अधिक भीड़ न थी सो एक सीट पर हम दोनों बैठ गए।
अपनत्व पाकर या फिर कुछ और सोच कर वे अपनी रामकहानी सुनाने लगे।
'बहुत मेहनत से बेटे को डाक्टरी कि पढ़ाई करवाई। खुद कम खाया लेकिन फीस और किताबों के पैसे जुटाने में जीवन चला गया। डाक्टर बन गया तो बहू बड़े घर की ले आया । उसके तौर तरीके भी उसी तरह के थे। मैं निम्न मध्यमवर्गीय उसमें कहाँ आ सकता था। जब तक पत्नी रही - सब कुछ देखती रही। एक अलग कमरा पीछे मेहमानों के लिए बनवाया गया था वही मुझे मिला। जहाँ किसी का आना जाना न था। ऊब कर बाहर आ जाता। कभी टीवी देखने लगता तो बहू की सहेलियों के बीच अच्छा न लगता । वे सबकी सब बड़े घरों की होती तो संकोच के मारे वही कमरे में पड़ा रहता। पत्नी पिछले वर्ष साथ छोड़ गयी नहीं तो सुख - दुःख की संगिनी थी किसी कि जरूरत ही नहीं होती।
धीरे-धीरे बहू बेटे को खलने लगा कि वह कमरा तो बच्चों का स्टडी रूम बन सकता है , फिर मैं कहाँ जाता? रोज सुनने को मिलता कि एक कमरा घेर रखा है, बच्चों को एकांत नहीं मिलता है। इन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ दिया जाय। वहाँ साथ के हमउम्र मिलेंगे तो समय भी कट जाएगा। मैंने मना कर दिया तो फिर प्रस्ताव रखा कि छत पर एक शेड डलवा देते हैं आप वही शिफ्ट हो जाइए। वहाँ गर्मी सहन नहीं होती - मन करता कि नीचे ए सी में लेट जाऊं, एक दिन गर्मी से बेहाल इसी के लिए ड्राइंग रूम में आकर दीवान पर लेट गया और थोड़ी देर में बहू कि सहेलियां आ गयी।
"चलिए आप ऊपर जाइए - यहाँ हम लोगों की पार्टी होनी है"। बहू ने कड़क आवाज में कहा।
"ओ तो इन्हें भी ए सी चाहिए - जिन्दगी में कभी देखा भी था" उसकी कोई सहेली मेरे जाने के बाद बोली थी।
फिर शाम को इसी बात पर बहस हो गयी और बहू बेटे ने कहा दिया कि आप ऊपर ही रहें , हम वही आपको खाना भेज दिया करेंगे। नीचे आने कि जरूरत नहीं है। हमारे मिलने जुलने वाले आते रहते हैं।
बस दूसरे ही दिन मन घर से निकल लिया और अब बनारस में ही रहूँगा।

उनकी कहानी सुनकर कुछ भी अजीब नहीं लगा, इतना जरूर लगा कि हम कितने स्वार्थी हैं? अपना सुख, अपनी ख़ुशी और अपना स्टेटस ही दिखलाई देता है - कभी ये भी अपना जीवन जिए हैं तो जीवन की इस संध्या में इन्हें अपनी मर्जी से जीने का हक़ हम क्यों नहीं दे सकते हैं? क्या इनके लिए सर्दी और गर्मी का अहसास मर चुका है। उनका मरा हो या नहीं पर हमारे सारे अहसास मर चुके हैं। हमारी दुनियाँ पति-पत्नी और अपने ही बच्चों में केन्द्रित है। वे हमारे जनक - जननी हैं , इस बात को अब बरसों गुजर चुके हैं। कैसे हम अपने अतीत को इतनी जल्दी भूल जाते हैं? हमारे लिए ही न फीस जुटाने के कारण ऑफिस से छूट कर पार्ट टाइम काम भी कर लिया करते थे- ऑफिस से छूट कर किसी के यहाँ लिखा पढ़ी का काम कुछ और पैसे जुटाने कि चाह में अपना आराम गिरवी रख देते थे और हम - कितने खुदगर्ज हो चुके हैं। उनके उन पलों को वापस तो नहीं ला सकते - उस कर्ज को कभी चुका भी नहीं सकते हैं। आज हम सक्षम हैं - लाखों कमा कर गाड़ी में घूम रहे हैं, ये क्रम इसी तरह चलता रहेगा। कल हम उनकी जगह लेंगे और हमारी जगह कोई और होगा। लेकिन इस कल को आज बना कर हम अपने भविष्य को किसी आईने में नहीं देख सकते हैं। लेकिन ये तो इतिहास है स्वयं को सदैव ही दुहराता रहेगा।



7 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

kya kahein ........jis ghar na dekho wo hi achcha wali baat hai ab to.........har ghar ka yahi haal hai aur jahan nhi hai wahan hona hai .....aaina to sabke samne hai magar sach koi nhi dekhna chahta.

rashmi ravija ने कहा…

ओह्ह..मन भर आया यह सब पढ़...सच कहा आपने...कैसे भूल जाते हैं, बच्चे वे सब....जो माता-पिता उनके लिए इतने कष्ट उठाकर करते हैं...पर कटु सत्य तो यही है कि बच्चे अक्सर सब भूल जाते हैं और अब अपने जीवन में मिसफिट पाते हैं अपने ही माता-पिता को...कई बुजुर्गों को यह सब झेलना पड़ता है....बहुत दुखद स्थिति है यह....ईश्वर उन्हें इतनी समझ दे कि कभी उनके भी ऐसे ही दिन आयेंगे....कम से कम यही सोच ..ख़याल रखें ,अपने बुजुर्गों का..

شہروز ने कहा…

पता नहीं क्यों ऐसा होता है!! और होता आरहा है.....कहीं न कहीं पीढ़ियों को आपस में न समझ पाना भी ऐसी स्थितियों से दो-चार कराता है.हम-सबका घर भी इस से अच्छूता नहीं है.लेकिन मैं हमेशा इस शे;र को मानता रहा हूँ व्यवहार में भी कि

माँ-बाप की ख़िदमत मैं इस लिए करता हूँ
इस पेड़ का साया भी बच्चों को मिलेगा!


आपकी भलमनसाहत को सलाम!!

shikha varshney ने कहा…

ये हालात आजकल रोज़ ही देखने में आते हैं...ये सच है की माता -पिता का कोई एहसान नहीं होता जिसे उतारा जाये...परन्तु बच्चों का अहम् कर्तव्य तो होता है की माता -पिता के बुढ़ापे में उनकी देखभाल इज्जत और प्रेम से की जाये...परन्तु आजके भौतिक वादी युग में मानवीय मूल्यों के लिए कोई जगह ही नहीं बची है..बहुत ही dukhad है ये परिस्तिथियाँ...बच्चे ये भूल जाते हैं की वो भी कभी इस अवस्था में आयेंगे.

शरद कोकास ने कहा…

इस कथा को पढ़कर मैने अपने पिता को याद किया । अभी 5 वर्ष पहले तक वे हम लोगों के साथ थे । उनके मृत शरीर पर उनके चेहरे की मुस्कान देखकर एक मित्र ने कहा था .. यह होता है बहू बेटे से मिले सुख से उपजा संतोष का भाव । हम लोग भी महसूस करते हैं कि उनके रहने की वजह से हम सभी अपने जीवन में पूर्णता महसूस करते थे ।

कविता रावत ने कहा…

Maa-baap jis tarah se apne bachho ke liye til-til markar unko bada karte hai, aur ant mein unhen we bhool jaten hain to dukhi man se we kisi ko apna dukh bhi batane se katraati hai.. jab apne hi nahi samajh....
Bahut hi achhi katu satya ko udghatit karti prastuti ki liye bahut shubhkamnyen...

Unknown ने कहा…

अत्यंत पीड़ा की बात यह है कि अधिकतर धनी वर्ग के लोगों को ही यह समस्या होती है। शायद ही किसी गरीब बेटे के माँ-बाप आपको वृद्धाश्रम में मिलें।