इस समाज का यह स्वरूप आज नहीं बना है बल्कि सदियों से बना हुआ है , उसे नारी सदैव बेचारी के रूप में ही देख कर खुश होने की आदत पड़ चुकी है। उसका मन कैसे रोता है? कुर्बान होने पर ये दर्द किसी को नहीं दिखाई देता है? वह उसके उस रूप को देख कर वाह वाह करने में उन्हें मजा आता है।
पिछले दिनों में विश्वविद्यालय गयी ( बताती चलूँ कि मेरी शादी के समय हमारा परिवार विश्वविद्यालय परिसर में ही रहता था।) मेरी मुलाकात मिसेज यादव से हो गयी . पके हुए बाल हलके रंग की साड़ी में वे घर से ऑफिस आ रही थी। मैं ठिठक गई क्योंकि वे मुझे शायद न पहचान पाती क्योंकि हम दोनों की शादी सिर्फ कुछ ही महीने के अंतर से हुई थी। मेरे घर के सामने वाले ब्लाक में यादव जी रहते थे जिनकी पत्नी का निधन कुछ साल पहले हो चुका था और उनके एक बेटा था। अपनी शादी के कुछ दिनों बाद सुना कि यादव जी की शादी हो रही है और वह मंदिर में शादी करके आये घर में उन्होंने सत्यनारायण की कथा रखी . मैं नयी बहू थी सो जाने का कोई सवाल ही नहीं था। उनसे परिचय का एक अवसर था वह भी चला गया। नयी बहू का अपने जैसी बहू से परिचय का शौक जो होता है।
सिर्फ 6 महीने बाद यादव जी का निधन हो गया। पूरे परिसर में कितनी तेजी से अफवाहें और चर्चाएँ फैलने लगीं --
--कैसी अभागन आई है आते ही पति को खा गयी।
--अब ये यहाँ टिकने वाली नहीं , सब लेकर चलती बनेगी ।
--यादव जी के बेटे का क्या होगा ?
--इसका बाप बहुत चालू है , कुछ न कुछ तो चाल चलेगा ही।
--अरे विश्वविद्यालय की नौकरी नहीं छोड़ने वाला , खुद ले लेगा।
--पढ़ी लिखी है क्या पता यही नौकरी करने लगे?
कुछ दिनों के बाद विश्वविद्यालय में उसको नौकरी दे दी गयी। वह अपने सौतेले बेटे के साथ वही रहने लगी और साथ में उनके पिता भी क्योंकि यादव जी के बेटे को टी बी की बीमारी थी और उसको देखभाल की जरूरत थी। उसने उस बेटे की देखभाल अपने बच्चे की तरह की क्योंकि उसके आगे इस बेटे के सिवा कोई और विकल्प था ही नहीं। उसके बाद मैं तीन साल तक उस परिसर में रही और वो भी उसी मकान में रही . मेरी उनसे मिलने की इच्छा थी लेकिन पता नहीं क्यों? कौन सा पूर्वाग्रह था कि वहां की औरतों ने मुझे उससे मिलने नहीं दिया . उनका कहना था कि किसी नवविवाहिता को ऐसी विधवा स्त्री से नहीं मिलाना चाहिए . मैं खिड़की से उसको ऑफिस जाते हुए देखा करती थी और मुझे उनके साथ बहुत ही सहानुभूति थी।
इतने साल बाद उन्हें उसी विधवा के वेश में देखा तो लगा कि ये समाज कितना निष्ठुर है? उस बेचारी ने देखा क्या था? किस पाप का दंड उसने भोगा ? न वैवाहिक जीवन का सुख , न परिवार का सुख और न दुनियादारी। इतने साल बाद परिसर के लोगों में से अधिकतर रिटायर्ड होकर जा चुके हैं लेकिन जब मिल जाते हैं तो जिक्र होने पर उनकी प्रशंसा करते हैं।
ये प्रशंसा किस बात की - इस बात की कि उसने अपना पूरा जीवन एक विधवा का जीवन जीते हुए गुजार दिया. हंसने और बोलने तक पर पहरे लगे रहे क्योंकि ऑफिस का जीवन भी ऐसी औरतों के लिए आसान नहीं होता है। फिर वह उस समय विश्वविद्यालय का माहौल जहाँ सिर्फ औरतें ही नहीं बल्कि पुरुष भी प्रपंच किया करते थे। करते तो आज भी हैं लेकिन उस समय के लोगों की सोच कुछ और ही होती थी। मिसेज यादव का जीवन इस समाज और सोच की बलि चढ़ ही गया ।
पिछले दिनों में विश्वविद्यालय गयी ( बताती चलूँ कि मेरी शादी के समय हमारा परिवार विश्वविद्यालय परिसर में ही रहता था।) मेरी मुलाकात मिसेज यादव से हो गयी . पके हुए बाल हलके रंग की साड़ी में वे घर से ऑफिस आ रही थी। मैं ठिठक गई क्योंकि वे मुझे शायद न पहचान पाती क्योंकि हम दोनों की शादी सिर्फ कुछ ही महीने के अंतर से हुई थी। मेरे घर के सामने वाले ब्लाक में यादव जी रहते थे जिनकी पत्नी का निधन कुछ साल पहले हो चुका था और उनके एक बेटा था। अपनी शादी के कुछ दिनों बाद सुना कि यादव जी की शादी हो रही है और वह मंदिर में शादी करके आये घर में उन्होंने सत्यनारायण की कथा रखी . मैं नयी बहू थी सो जाने का कोई सवाल ही नहीं था। उनसे परिचय का एक अवसर था वह भी चला गया। नयी बहू का अपने जैसी बहू से परिचय का शौक जो होता है।
सिर्फ 6 महीने बाद यादव जी का निधन हो गया। पूरे परिसर में कितनी तेजी से अफवाहें और चर्चाएँ फैलने लगीं --
--कैसी अभागन आई है आते ही पति को खा गयी।
--अब ये यहाँ टिकने वाली नहीं , सब लेकर चलती बनेगी ।
--यादव जी के बेटे का क्या होगा ?
--इसका बाप बहुत चालू है , कुछ न कुछ तो चाल चलेगा ही।
--अरे विश्वविद्यालय की नौकरी नहीं छोड़ने वाला , खुद ले लेगा।
--पढ़ी लिखी है क्या पता यही नौकरी करने लगे?
कुछ दिनों के बाद विश्वविद्यालय में उसको नौकरी दे दी गयी। वह अपने सौतेले बेटे के साथ वही रहने लगी और साथ में उनके पिता भी क्योंकि यादव जी के बेटे को टी बी की बीमारी थी और उसको देखभाल की जरूरत थी। उसने उस बेटे की देखभाल अपने बच्चे की तरह की क्योंकि उसके आगे इस बेटे के सिवा कोई और विकल्प था ही नहीं। उसके बाद मैं तीन साल तक उस परिसर में रही और वो भी उसी मकान में रही . मेरी उनसे मिलने की इच्छा थी लेकिन पता नहीं क्यों? कौन सा पूर्वाग्रह था कि वहां की औरतों ने मुझे उससे मिलने नहीं दिया . उनका कहना था कि किसी नवविवाहिता को ऐसी विधवा स्त्री से नहीं मिलाना चाहिए . मैं खिड़की से उसको ऑफिस जाते हुए देखा करती थी और मुझे उनके साथ बहुत ही सहानुभूति थी।
इतने साल बाद उन्हें उसी विधवा के वेश में देखा तो लगा कि ये समाज कितना निष्ठुर है? उस बेचारी ने देखा क्या था? किस पाप का दंड उसने भोगा ? न वैवाहिक जीवन का सुख , न परिवार का सुख और न दुनियादारी। इतने साल बाद परिसर के लोगों में से अधिकतर रिटायर्ड होकर जा चुके हैं लेकिन जब मिल जाते हैं तो जिक्र होने पर उनकी प्रशंसा करते हैं।
ये प्रशंसा किस बात की - इस बात की कि उसने अपना पूरा जीवन एक विधवा का जीवन जीते हुए गुजार दिया. हंसने और बोलने तक पर पहरे लगे रहे क्योंकि ऑफिस का जीवन भी ऐसी औरतों के लिए आसान नहीं होता है। फिर वह उस समय विश्वविद्यालय का माहौल जहाँ सिर्फ औरतें ही नहीं बल्कि पुरुष भी प्रपंच किया करते थे। करते तो आज भी हैं लेकिन उस समय के लोगों की सोच कुछ और ही होती थी। मिसेज यादव का जीवन इस समाज और सोच की बलि चढ़ ही गया ।
11 टिप्पणियां:
आपने समस्या को सही रूप में उठाया है.
आर्थिक रूप से संपन्न शादीशुदा मर्द एक एक विधवा को भी सहारा दे दें तो विधवाओं को भी जीवन की खुशियां मिल सकती हैं।
महापुरुष वही है जसने विधवाओं से विवाह करने के लिए कहा हो और खुद करके दिखाया हो. ऐसे महापुरुष का अनुसरण करना समाज का अनिवार्य कर्तव्य है.
इस विषय पर हमने लिखा है -
विधवाओं को सुहागन होने दो
आपने समस्या को सही रूप में उठाया है.
आर्थिक रूप से संपन्न शादीशुदा मर्द एक एक विधवा को भी सहारा दे दें तो विधवाओं को भी जीवन की खुशियां मिल सकती हैं।
महापुरुष वही है जसने विधवाओं से विवाह करने के लिए कहा हो और खुद करके दिखाया हो. ऐसे महापुरुष का अनुसरण करना समाज का अनिवार्य कर्तव्य है.
इस विषय पर हमने लिखा है -
विधवाओं को सुहागन होने दो
समाज का ये कठोर रूप .....पढ़ कर मन सोच मे डूब गया ...पर अब लगता है कुछ परिवर्तन तो हो रहा है ...
बहुत अच्छी प्रस्तुति. समयोचित भी है.
आपकी बात से पूरी तरह सहमत हैं और शायद नज़रिए से भी । लेकिन सबसे बडा सवाल तो फ़िर वहीं आ जाता है कि , जिसकी लडाई है पहल तो उसे खुद करनी होगी और" ऐसा समाज ठेंगे पे " वाली तर्ज़ पर करनी होगी ।
अच्छा एक बात बताइए , आप छ; महीने तक अपनी साथिनों , परिवारजनों के कहने समझाने पर उस बहू से मिलने नहीं जा पाईं । वो जो एक अघोषित सी सीमा रेखा खींच दी जाती है अक्सर उसे पार करने में ही एक उम्र बीत जाती है , यही सबसे बडा सच है । प्रभावित करता आलेख , विमर्श होते रहना चाहिए । शुक्रिया
इसी सोच ने ना जाने कितने जीवन तहस नहस कर दिये और यही सोच बीज रूप मे रोपित होती रही मगर अब बदलाव आना शुरु हुआ है चाहे रफ़्तार कम है मगर सब समझने लगे हैं कि क्या सही है और क्या गलत्।
हाँ अजय जी अपने बहुत अच्छा प्रश्न किया है वह अघोषित सी सीमा रेखा जो अगर मेरे शादी के पहले वी रेखा होती तो शायद लांघ जाती लेकिन शादी के बाद नए लोग और नए माहौल में खुद को स्थापित करने में कुछ समय लगता है और इसी स्थापन के लिए पैर बाँध लिए थे.
उसके बाद मैं अपने मूल्यों और सिद्धांतों के लिए किसी से भी समझौता नहीं करती. एक विधवा लड़की जो मेरी जेठानी की बहू थी उसकी पहली शादी और बेटे के मृत्यु के बाद ६ माह के बेटे की माँ का विवाह उसके देवर से करवाने में मैंने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. और वह बहू मेरी आज बेटी से भी बढ़ कर है.
Anupama Tripathi ने आपकी पोस्ट " क्या चाहता है समाज ? " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
समाज का ये कठोर रूप .....पढ़ कर मन सोच मे डूब गया ...पर अब लगता है कुछ परिवर्तन तो हो रहा है ...
वन्दना ने आपकी पोस्ट " क्या चाहता है समाज ? " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
इसी सोच ने ना जाने कितने जीवन तहस नहस कर दिये और यही सोच बीज रूप मे रोपित होती रही मगर अब बदलाव आना शुरु हुआ है चाहे रफ़्तार कम है मगर सब समझने लगे हैं कि क्या सही है और क्या गलत्।
रेखा जी सच कह रही है आप, एक विधवा ऐसा निरीह प्राणी है जिसको पुरुष अपने फायदे के लिये याद करते है और महिलाएं उसको ताने मारने के लिये.
is samaaj main ki vidambna yehi ki aurat ki kimat uske tyaag se aanki jaati hai bhale hi usne apni saari ichhayen aansuon ke peechhe chhupa li hon.....abla jivan...............
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