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शनिवार, 9 जून 2012

परदेश की कमाई !

                       परदेश में कमा  रहे हैं - हमारे पास में एक ब्राह्मण  परिवार रहता है . उस परिवार का मुखिया जब नहीं रहा तो उसके चार बच्चे थे छोटे छोटे - माँ अनपढ़ आमदनी का कोई सहारा नहीं क्योंकि गाँव में खेती के बल पर बिगड़े नवाब थे . हर दिल दुखी था  कि  इस कच्ची उम्र की महिला का क्या होगा ? वह क्या करेगी ? धीरे धीरे जैसे ही बच्चे बड़े हुए किसी को हलवाई की दुकान में लगा दिया और किसी को टेम्पो में लगा दिया और रोटी चलने लगी। फिर एक एक करके वे शहर से बाहर निकल गए। सब बाहर  कमाने चले गए। जब 4-6 महीने में आते पैसा भी लाते  और माँ - बहन के लिए कपडे और सामान लेकर आते। कुल मिलकर माँ खुश सब बेटे कमाने लगे और वह भी छोटी उम्र में। आजकल पड़े लिखों को तो नौकरी मिलती नहीं है और मेरे बेटे तो इतना कमाते हैं कि अपना खर्च चला लेते हैं और घर भेजते रहते हैं।   खुद कुछ भी खाकर गुजरा कर लेते हैं और घर के लिए कमी नहीं होने देते हैं।
                             पिछले दिनों दिल्ली जाना हुआ वैसे तो अगर ऑफिस के काम से जाती  तो कोई बात नहीं पहले से  वाहन  मिल जाता है लेकिन  ये मेरी व्यक्तिगत यात्रा थी और स्टेशन से पास ही विष्णु दिगंबर मार्ग तक बेटी के हॉस्टल जाना था। मैने सोचा कि  सुबह का सुहाना मौसम है तो रिक्शा से चला जाय , दिल्ली के दर्शन ऑटो में तो हो नहीं पते हैं। सर्र  से निकल गए। रिक्शा चला जा रहा था और सड़क के किनारे कहीं पार्क के बाहर  अपने रिक्शे को ही बेड बनायें , पीछे हुड का तकिया, सीट का गद्दा और  चालक सीट पर पैर फैलाये गहरी नीद में सो रहे थे . कुछ रात  भर सवारी ढोने  के बाद  तड़के 3 या 4 बजे आ कर सोये हैं। एक पार्क के किनारे से गुजरते हुए मेरे रिक्शा वाले ने आवाज दी - 'ओए गोपाल उठ अभी सफाई वाला आएगा तो डंडा चलाएगा।'
वह गोपाल आँखे मलते हुए उठा तो मेरी नजर उस पर पड़  गयी ये तो मेरे मोहल्ले वाला गोपाल है तिवारिन  का बेटा ।   मुझे देखते ही वह उठ कर दूसरी और मुड़  गया। जैसे मैं उसको बचपन से देख रही थी वैसे ही वह भी देख रहा था। रिक्शा वाला रिक्शा खड़ा  करके  पानी पीने  चला गया तो गोपाल मेरे पास आया - 'आंटी वहां किसी को मत बतलाइयेगा  कि  मैं यहाँ पर रिक्शा चलाता  हूँ , अभी बहन की शादी करनी है न उसी के लिए हम सब पैसा इकठ्ठा कर रहे हैं। अगर वहां पता चल गया कि  हम रिक्शा चलाते  हैं तो कोई अच्छा लड़का नहीं मिलेगा। उसको हम इसी लिए पढ़ा रहे हैं कि वह खुश रहे और अच्छे घर में चली जाय। '
                     एक कम पढ़े लिखे बच्चे से ऐसे सुनकर मन खुश हो गया क्योंकि आज के पढ़े लिखे बच्चे अपने घर और परिवार की कितनी जिम्मेदारी को समझते हैं और कितना औरों के लिए सोचते हैं ? उस की बात ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि  यही बाहर   रहकर इतनी मेहनत  करके औरों की तरह से अपनी कमाई  शराब और जुए में नहीं उड़ा  रहा है। बाकी  भाई भी उसके कहीं न कहीं कमा  ही रहे हैं . यही तो कमाई  सच्ची  कमाई और  सार्थक कमाई  है। उससे भी सच्ची और सार्थक है उसकी सोच की हम कुछ न कर सके लेकिन बहन का भविष्य तो हम बना ही सकते हैं। 

10 टिप्‍पणियां:

Pallavi saxena ने कहा…

सकरात्म्क सोच लिए सार्थक रचना ....

Shah Nawaz ने कहा…

Rashk aa raha hai us khushnaseeb bahan ki kismat par jise itne behtreen bhai miley...

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

सही कहाँ हैं आपने रेखा दीदी ....ये ही वो सच्चे रिश्ते हैं ...जिन्हें हम उम्र भर जीते हैं

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

vandana gupta ने कहा…

सच कहा …………यही है सार्थक कमाई और सार्थक सोच काश ऐसी सोच हर रिश्ते मे होती।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

समझ और सार्थक सोच

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

एकदम सच............

सार्थक लेखन रेखा जी.

सादर.

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

रिश्तों को सही अर्थों में जीना इन्हीं से सीखा जा सकता है.

रचना दीक्षित ने कहा…

द्रवित करती मानवीय अनुभूति. एक संवेदनशील विषय पर लिखा है आपने जो सोचने पर विवश करता है.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सार्थक लिखा है ... मेहनत से कमाया ज्यादा अच्छा है ...