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शुक्रवार, 25 मई 2012

मिसाल बेटे की !

समय !और युग के साथ श्रवण कुमार की क्या परिभाषा बदल गयी है?  हर माँ बाप बेटे के जन्म के साथ उसके श्रवण कुमार सा होने का ही सपना देखता होगा (मेरे बेटा नहीं सो कभी सोचा ही नहीं बेटियां कभी इतिहास में मिसाल बन कर सामने लायी ही नहीं गयी।लेकिन आज मिसाल कायम कर रही हैं।  )
                     कल ही एक आत्मीय का निधन हुआ और  आज उनकी अंत्येष्टि . उनके यो बेटे और दो बेटियां हैं। बड़ा बेटा बहुत बड़ा अफसर है , छोटा कम पढ़ा लिखा है सो किसी तरह अपना परिवार पाल रहा है। एक बेटी भी नौकरी कर रही है और छोटी बेटी एक धनाढ्य परिवार की बहू है।
                    हमारा बीच बीच में जाना  होता रहता है और उनके पारिवारिक  से हम अच्छी तरह से परिचित  भी हैं। उनके  बड़े दामाद ने बेटे के हर  को  निभाया .   वह ह्रदय रोगी थे तो कई बार बीमार हुए और उनको अस्पताल में  भर्ती करना पड़ा और दामाद ने पूरी निष्ठां से उनकी सेवा की। जब भी वे बीमार हुए अपने फर्ज के अनुरूप दोनों सालों को सूचना  रहे। बेटी का भी संयुक्त परिवार है फिर भी वह और उसके पति ने कभी भी उनका साथ नहीं छोडा . पैत्रिक मकान दूर था इसलिए अपने घर के पास ही एक कमरा  पर दिला दी। खाना बेटी घर से बना कर भेज देती और अपने ऑफिस जाने के पहले और बाद एक बार दोनों लोग उनको देख आते .
                   उनकी बीमारी का समाचार सुनकर बड़े बेटे को लखनऊ से आना  पड़ता था। एक दो बार तो आया लेकिन पिछले बार जब आया तो वह आकर झल्लाया - " क्यों मुझे बार बार परेशां करते हो, इनकी तो रोज ही तबियत ख़राब होती है, मरते तो ये हैं नहीं कि काम  ख़त्म हो । आइन्दा  मरने पर ही   मुझे खबर करना . "
                 इन शब्दों को सुनकर बेटियों को बहुत ही बुरा लगा . वह अपने छोटे भाई से कोई सम्बन्ध नहीं रखता था। उसके बाद  बहन गलत बात सहन नहीं करती थी , वह सच कह  देती थी तो उससे भी कम ही संपर्क रखता . हाँ छोटी बहन धनाढ्य परिवार की बहू थी सो उससे संपर्क रखे हुए था। कल रात जब निधन हुआ तो बेटी और दामाद ने सूचना देने से साफ इनकार कर दिया। छोटे भाई का तो सवाल ही नहीं था। आखिर छोटी बहन से कहा गया की वह सूचित करे . वह भी बहुत दुखी थी फिर भी उसने फ़ोन किया और  कहा - "दादा अब आपकी इच्छा पूरी हो गयी है, जैसा कि  आप चाहते थे कि  पापा के न रहने पर खबर दी जाय. अब पापा  गए हैं अब आप आ  सकते हैं । "
                     रात  को खबर देने के बाद वह दूसरे दिन 12 बजे पहुंचा . सारी  तयारी हो ही चुकी थी। मोहल्ले वालों ने देखा तो पूछा कि  ये कौन है?  बड़े तैश में आकर बोला - 'आपको नहीं मालूम मैं इनका बड़ा बेटा हूँ '
'बड़ा बेटा , अरे बड़ा बेटा तो ये है जिसने वर्षों से सेवा की है . अब तक कहाँ थे तुम?'
                उनके अंतिम संस्कार में वे इच्छुक भी नहीं थे लेकिन वह किसी भी सोच से आगे बढे तो छोटी बहन ने आगे आकर कहा = "नहीं दादा, ये काम छोटे दादा को करने दें , गरीब ही सही 13 दिन तक  यहाँ बैठ कर दीपक तो जलाएंगे , आपको वापस भी जाना होगा।"
                    वहां पर  सभी लोगों ने इसका समर्थन किया .  सही ही किया जो मरने की खबर का इन्तजार कर रहा था उसको बाद में उस  के संस्कार से क्या लेना देना।

10 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

सही किया और ऐसा ही करना चाहिये ऐसे बेटों के साथ्।

Anupama Tripathi ने कहा…

मन भर गया पढ़ते पढ़ते ......
क्या कहूँ ...?

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

aisa hota bhi hai... ya kuchh jayda to nahi likha gaya?

रश्मि प्रभा... ने कहा…

khoob hota hai aisa

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

आम बात है..........
मन भर आया पढ़ कर.

सादर.
अनु

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

न जाने किसका क्या भविष्य है .... दुखद ... पर कटु सत्य...

shikha varshney ने कहा…

इससे भी ज्यादा होते देखा है मैंने तो..बहुत दुःख होता है पर क्या करो.

वाणी गीत ने कहा…

कौन जाने माँ ही यह कह देती कि बेटा बड़ा है , वही सब करेगा ..
हकीकत है जाने कितने घरों की , बेटियों का साहस अच्छा लगा !

Udan Tashtari ने कहा…

क्या कहें..संयम और विवेक से काम लें सब...बस....

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

nahin mukesh isamen ek bhi shabd galat nahin likha gaya kyonki main usa parivar se vyaktigat roop se sirph judi nahin hoon balki usaki sadasy hoon.