बचपन से यही सुनती चली आ रही थी की जीवन में किये गए भले कामों का फल जरूर मिलता है और कल कुछ तो ऐसा देखने को मिला तो लगा की ऐसे गुण और संस्कार हमें सिर्फ अपने से मिलते हैं और वे भी सिखाये नहीं जाते बल्कि हम खुद सीखते हैं .
कल मैं अपनी बहन के यहाँ से शादी के बाद अपने शेष भाई बहनों के साथ वापस आ रही थी. झाँसी के बाद उरई और कानपूर आने के लिए हमारे पास कोई रिजर्वेशन नहीं था. क्योंकि जहाँ से हम आ रहे थे वहां से झाँसी तक ही सीधी ट्रेन थी और वह झाँसी पहुँचने में एक घंटे लेट हो गयी और हमारी लिंक ट्रेन जा चुकी थी. अब हमारे सामने और कोई चारा न था की हम किसी दूसरी ट्रेन में टिकट लेकर बैठ जाएँ. हम सभी जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहते थे. झाँसी हम सुबह सात बजे पहुंचे और फिर पता किया तो हमें ९ बजे ट्रेन मिलनी थी जो की मुंबई से आ रही थी. हमने टिकट लिया और ट्रेन आने पर एक बोगी में घुस गए. उस बोगी में तिल धरने की जगह नहीं थी लेकिन क्या करते पहुँचाना जरूरी था. उसी में घुस गए की खड़े खड़े ही सही पहुँच तो जायेंगे ही. वहां पहले से बैठे लोग किसी भी तरह से सहयोग करने को तैयार नहीं थे. अपनी अपनी सीट पर पालथी मार कर बैठे हुए थे . अगर उनसे अनुरोध भी किया गया तो उन लोगों ने बड़े ही बेरुखे ढंग से उत्तर दिया की हम सीट रिजर्व आपके लिए नहीं करवा कर आ रहे हैं. बात भी ठीक थी.
वाही पर मैं , मेरे पति , मेरे बड़े भाई साहब और bhabhi जी हमारे साथ थे. हम सभी किसी तरह खड़े होने का प्रयास कर वहां टिके हुए थे. अचानक सामने की सीट पर बैठे हुए एक युवा ने मेरे भाई साहब को देखा कर पूछा - 'आप डी ए वी कॉलेज में पढ़ाते हैं न ? '
'हाँ वही पढाता था, अब रिटायर्मेंट ले लिया है.'
'सर आप मुझे नहीं पहचान पाए होंगे , लेकिन मैं आपको पहचानता हूँ . ' वह यह कहते हुए अपनी बर्थ छोड़ कर उठ खड़ा हुआ और बोला 'सर आप बैठ जाइए मैं खड़ा हो जाता हूँ. भाई साहब ने उसको बहुत मना किया लेकिन वह अपनी जगह छोड़ कर उठ कर खड़ा हो गया.
फिर उसने अपनी सीट पर बैठे अन्य लोगों से थोडा थोडा खिसकने की बात कह कर हम सभी को बिठा लिया.
फिर वह बातें करने लगा और अपने बारे में बताने लगा की वह अब क्या कर रहा है? भाई साहब से फिर बताने लगा की आप तो हमें जीवन भर याद रहेंगे क्योंकि जब वह हाई स्कूल में था तो उसके गाँव में प्रेक्टिकल लेने गए थे और उसी दिन मेरे पिताजी का निधन हो गया था मेरा प्रेक्टिकल छूट गया था. मैं तीन दिन बाद आपके पास पहुंचा था तो अपने घर पर ही मेरी प्रेक्टिकल की कॉपी लिखवा कर मेरा प्रेक्टिकल ले लिया था. अगर आप ऐसा न करते तो फिर मैं अपने घर को संभालने के लिए एक साल बाद तैयार हो पाता.
उसके इतना कहने पर मुझे वह घटना याद आ गयी. मैं उस समय उरई में ही थी. एक लड़का ऊपर चढ़ कर आया और पूछा मास्साब घर में हैं क्योंकि प्रेक्टिकल लेने के बाद भाई साहब घर पर ही थे . घर आकर उसने बताया था की उसके पिताजी का निधन हो गया था और वह इसा कारण वह प्रेक्टिकल देने नहीं आ सका. साब आप अगर मेरा प्रेक्टिकल ले लें तो मेरा साल बच जाएगा.
भाई साहब ने उससे घर पर ही कॉपी लिखवा ली और प्रेक्टिकल की सारी औपचारिकता नियमपूर्वक पूरी करवाई और उससे उसकी उपस्थिति दर्ज कर ली. जब वह जाने लगा तो मेरा भतीजा दो साल का था वह वही खेल रहा था. उसने दो रुपये का नोट निकल कर उसको देने का प्रयास किया तो भाई साहब ने कहा की इसकी कोई जरूरत नहीं है. वह रुआंसा हो गया - साब हम बहुत गरीब हैं , हमारे पास आपको देने के लिए कुछ भी नहीं है. ये बच्चे को दे रहा हूँ. इससे ज्यादा मेरे पास नहीं हैं मैं गाँव से यहाँ तक पैदल आया हूँ.
भाई साहब ने उससे कहा - 'बेटा इसकी कोई जरूरत नहीं है, मैं ये सब नहीं लेता , मैंने तुम्हारी परेशानी देख कर जो कर सकता था वह किया. तुम परेशान मत हो. '
फिर उस लडके से कभी मिलने का कोई सवाल ही नहीं था और आज वही फिर सामने आ गया तो लगा की आज भी लोग किये गए किसी भी भलाई को सम्मान देते हैं.
कल मैं अपनी बहन के यहाँ से शादी के बाद अपने शेष भाई बहनों के साथ वापस आ रही थी. झाँसी के बाद उरई और कानपूर आने के लिए हमारे पास कोई रिजर्वेशन नहीं था. क्योंकि जहाँ से हम आ रहे थे वहां से झाँसी तक ही सीधी ट्रेन थी और वह झाँसी पहुँचने में एक घंटे लेट हो गयी और हमारी लिंक ट्रेन जा चुकी थी. अब हमारे सामने और कोई चारा न था की हम किसी दूसरी ट्रेन में टिकट लेकर बैठ जाएँ. हम सभी जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहते थे. झाँसी हम सुबह सात बजे पहुंचे और फिर पता किया तो हमें ९ बजे ट्रेन मिलनी थी जो की मुंबई से आ रही थी. हमने टिकट लिया और ट्रेन आने पर एक बोगी में घुस गए. उस बोगी में तिल धरने की जगह नहीं थी लेकिन क्या करते पहुँचाना जरूरी था. उसी में घुस गए की खड़े खड़े ही सही पहुँच तो जायेंगे ही. वहां पहले से बैठे लोग किसी भी तरह से सहयोग करने को तैयार नहीं थे. अपनी अपनी सीट पर पालथी मार कर बैठे हुए थे . अगर उनसे अनुरोध भी किया गया तो उन लोगों ने बड़े ही बेरुखे ढंग से उत्तर दिया की हम सीट रिजर्व आपके लिए नहीं करवा कर आ रहे हैं. बात भी ठीक थी.
वाही पर मैं , मेरे पति , मेरे बड़े भाई साहब और bhabhi जी हमारे साथ थे. हम सभी किसी तरह खड़े होने का प्रयास कर वहां टिके हुए थे. अचानक सामने की सीट पर बैठे हुए एक युवा ने मेरे भाई साहब को देखा कर पूछा - 'आप डी ए वी कॉलेज में पढ़ाते हैं न ? '
'हाँ वही पढाता था, अब रिटायर्मेंट ले लिया है.'
'सर आप मुझे नहीं पहचान पाए होंगे , लेकिन मैं आपको पहचानता हूँ . ' वह यह कहते हुए अपनी बर्थ छोड़ कर उठ खड़ा हुआ और बोला 'सर आप बैठ जाइए मैं खड़ा हो जाता हूँ. भाई साहब ने उसको बहुत मना किया लेकिन वह अपनी जगह छोड़ कर उठ कर खड़ा हो गया.
फिर उसने अपनी सीट पर बैठे अन्य लोगों से थोडा थोडा खिसकने की बात कह कर हम सभी को बिठा लिया.
फिर वह बातें करने लगा और अपने बारे में बताने लगा की वह अब क्या कर रहा है? भाई साहब से फिर बताने लगा की आप तो हमें जीवन भर याद रहेंगे क्योंकि जब वह हाई स्कूल में था तो उसके गाँव में प्रेक्टिकल लेने गए थे और उसी दिन मेरे पिताजी का निधन हो गया था मेरा प्रेक्टिकल छूट गया था. मैं तीन दिन बाद आपके पास पहुंचा था तो अपने घर पर ही मेरी प्रेक्टिकल की कॉपी लिखवा कर मेरा प्रेक्टिकल ले लिया था. अगर आप ऐसा न करते तो फिर मैं अपने घर को संभालने के लिए एक साल बाद तैयार हो पाता.
उसके इतना कहने पर मुझे वह घटना याद आ गयी. मैं उस समय उरई में ही थी. एक लड़का ऊपर चढ़ कर आया और पूछा मास्साब घर में हैं क्योंकि प्रेक्टिकल लेने के बाद भाई साहब घर पर ही थे . घर आकर उसने बताया था की उसके पिताजी का निधन हो गया था और वह इसा कारण वह प्रेक्टिकल देने नहीं आ सका. साब आप अगर मेरा प्रेक्टिकल ले लें तो मेरा साल बच जाएगा.
भाई साहब ने उससे घर पर ही कॉपी लिखवा ली और प्रेक्टिकल की सारी औपचारिकता नियमपूर्वक पूरी करवाई और उससे उसकी उपस्थिति दर्ज कर ली. जब वह जाने लगा तो मेरा भतीजा दो साल का था वह वही खेल रहा था. उसने दो रुपये का नोट निकल कर उसको देने का प्रयास किया तो भाई साहब ने कहा की इसकी कोई जरूरत नहीं है. वह रुआंसा हो गया - साब हम बहुत गरीब हैं , हमारे पास आपको देने के लिए कुछ भी नहीं है. ये बच्चे को दे रहा हूँ. इससे ज्यादा मेरे पास नहीं हैं मैं गाँव से यहाँ तक पैदल आया हूँ.
भाई साहब ने उससे कहा - 'बेटा इसकी कोई जरूरत नहीं है, मैं ये सब नहीं लेता , मैंने तुम्हारी परेशानी देख कर जो कर सकता था वह किया. तुम परेशान मत हो. '
फिर उस लडके से कभी मिलने का कोई सवाल ही नहीं था और आज वही फिर सामने आ गया तो लगा की आज भी लोग किये गए किसी भी भलाई को सम्मान देते हैं.
14 टिप्पणियां:
ऐसा कोई वाकिया पढ़ कर दिल भर आता है....
अच्छाई कहीं ना कहीं जिंदा है अब भी.......
और लौट कर आती ज़रूर है........
सांझा करने का शुक्रिया रेखा जी.
सादर
अनु
आज भी कुछ लोग हैं जो भलाई को याद् रखते हैं, यद्यपि उनकी संख्या बहुत कम है. और उन्ही की वजह से भलाई दुनियां में अभी तक कायम है.
अच्छा संस्मरण है!
what goes around comes around.
निस्वार्थ भाव के की गई भलाई हमेशा सामने आती है.
प्रेरक प्रसंग।
अच्छे लोग जीवन भर याद रहते हैं।
प्रेरक प्रसंग. जरूरत में मदद करना तो हमारा फ़र्ज़ होता है परन्तु अपेक्षा सिर्फ इतनी ही होती है कि मदद लेने वाला दूसरों की मदद देने में भी उत्सुकता दिखाए.
प्रेरक ... अच्छी पोस्ट
अच्छाई आज भी जिंदा हैं .....
अरे रेखा जी हमारी टिप्पणी कहाँ गयी............
भलाई का ज़माना नहीं रहा क्या???
:-)
नहीं नहीं...अच्छाई अब भी जिंदा है अच्छे लोगों के दिलों में.......
मेरी टिप्पणी भी होगी कही स्पाम के दिल में....
सादर.
अरे रेखा जी हमारी टिप्पणी कहाँ गयी............
भलाई का ज़माना नहीं रहा क्या???
:-)
नहीं नहीं...अच्छाई अब भी जिंदा है अच्छे लोगों के दिलों में.......
मेरी टिप्पणी भी होगी कही स्पाम के दिल में....
सादर.
अरे रेखा जी हमारी टिप्पणी कहाँ गयी............
भलाई का ज़माना नहीं रहा क्या???
:-)
नहीं नहीं...अच्छाई अब भी जिंदा है अच्छे लोगों के दिलों में.......
मेरी टिप्पणी भी होगी कही स्पाम के दिल में....
सादर.
अरे रेखा जी हमारी टिप्पणी कहाँ गयी............
भलाई का ज़माना नहीं रहा क्या???
:-)
नहीं नहीं...अच्छाई अब भी जिंदा है अच्छे लोगों के दिलों में.......
मेरी टिप्पणी भी होगी कही स्पाम के दिल में....
सादर.
मुझे भी लगता है कि आपकी टिप्पणी स्पं में ही चली गई है. उसको मैं पुब्लिश करती हूँ.
हम अध्यापकों की जिन्दगी में ऐसा कई बार होता है भगवान करे भारतीय संस्कृति नयी पीढ़ी में जिन्दा रहे।
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