कल एक प्रोग्राम देखा प्रोग्राम न कहें उसे एक समाचार के रूप में यथार्थ को दर्शा रहे थे। वैसे हर इंसान इस दुनियाँ में कुछ बन कर आता है और कुछ बन कर जाता है लेकिन उसके भावनाएं और संस्कार कब कैसे बदल जाते हें? ये हम सोच नहीं पाते हें।
किस्सा एक फिल्मी दुनियाँ के एक्स्ट्रा कलाकार का है । जो कम से कम एक हजार फिल्मों में काम करने के बाद आज लखनऊ में भीख मांग कर अपना गुजारा कर रहा है। सुरेन्द्र खरे नाम के इस इंसान ने जीवन में खुद शादी नहीं की। परिवार में बहने और भाई है (भाई रेलवे में एकाउंट ऑफिसर है) । लेकिन रिश्ते अब कोई मतलब नहीं रखते हें। ऐसा नहीं कि इस इंसान ने जीवन में बहुत कमाया और सारा का सारा दूसरों की सहायता में खर्च किया और अपने लिए सोचा था कि सारी दुनियाँ के काम आ रहा हूँ तो मुझसे कौन मुँह मोड़ेगा? इस दिन की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। साथ ही बताती चलूँ कि इस इंसान ने मदर इण्डिया , मुगले आजम, यहूदी की बेटी और पाकीजा जैसी हिट फिल्मों में काम किया था।
इस किस्से को एक दूसरे घटना से जोड़ना चाहती हूँ। मेरी काम करने वाली जिसकी उम्र ६० साल से काम नहीं होगी ने कहलाया कि वह आगे १५ नहीं आ पायेगी क्योंकि उसके जेठ जी का निधन हो गया है। वह विधवा औरत ६ बेटों की माँ है और अपने खर्च के लिए खुद काम करती है साथ ही एक बहू के न रहने के कारण उसकी बेटी को रखती है और अपने बेटों के द्वारा घर से निकाले गए जेठ को भी रखती थी।
उसके पास सिर्फ एक कमरा है बाकी बेटों में ले रखा है। उसके बाहर चबूतरे पर उसने एक हाथ ठेला लगा कर और बाहर से तिरपाल डाल कर जेठ को लिटा रखा था क्योंकि अब वह चलने फिरने में भी असमर्थ था। उसने जेठ के निधन पर उनके बेटों को खबर भेजी तो उन लोगों ने कहला दिया कि जब उनकी अर्थी उठे तो हमारे घर हो कर ही ले जाना हम भी साथ हो लेंगे। अपने पिता को उन्होंने यह कह कर घर से निकाल दिया था कि जीवन भर खाया उड़ाया है हमारे रहने के लिए जगह भी नहीं की। चाचा अपने बेटों के लिए रहने की जगह तो कर गए। फिर पिता भीख मांगने लगे और इसको पता चला तो वह अपने घर ले आई कि मेरे पास चलो आखिर अगर आपका भाई होता तो इस तरह तो भीख न माँगने देता। मैं जो भी कमाती हूँ उससे पेट तो भर ही सकती हूँ।
कई जगह काम करती है और घर जाकर चाहे खुद खाना न खाए लेकिन जेठ के लिए कुछ बना कर जरूर दे आती और दूसरे घरों में निकल जाती। कभी किसी भी घर से उसने कभी खाने को नहीं माँगा और न खाती है। अपनी कमाई का ही खाती है।
जेठ की अंतिम क्रिया से लेकर उसकी त्रयोदशी तक के सारे काम उसने किया । जेठ के बेटों ने श्मशान जाने तक की जहमत नहीं उठाई क्योंकि उनके घर से शव ले ही नहीं जाया गया। भतीजों ने स्पष्ट मना कर दिया कि अब जब वे अंतिम समय में हमारे घर में रहे तो काम भी हम ही कर देंगे। यद्यपि उसके बेटे भी बहुत समर्थ नहीं है कोई कबाड़ का काम करता है कोई कहीं फैक्ट्री में काम करता है और कोई फेरी लगता है। लेकिन माँ के इस कदम को उन्होंने इतना सहारा दिया कि अगर उसने रखा तो शेष काम हम कर ही लेंगे।
कहाँ तो आफिसर होकर अपने भाई को भीख माँगते हुए देख कर भी आत्मा कांपी नहीं । हो सकता है कि टीवी पर आने के बाद कुछ शर्म आये लेकिन किसी को क्या पता कि ये हें कौन।
दूसरे घर घर काम करने वाली ने अपने पति के भाई गर्त से निकल कर अपनी सामर्थ्य के अनुसार रखा खिलाया पिलाया और उसके अंतिम काम भी कर डाले। यहाँ खून के रिश्ते काम नहीं आते बल्कि संवेदनाएं होनी चाहिए जो आज अपनों में ही क्या अपने अंशों में भी ख़त्म होती चली जा रही हें।
किस्सा एक फिल्मी दुनियाँ के एक्स्ट्रा कलाकार का है । जो कम से कम एक हजार फिल्मों में काम करने के बाद आज लखनऊ में भीख मांग कर अपना गुजारा कर रहा है। सुरेन्द्र खरे नाम के इस इंसान ने जीवन में खुद शादी नहीं की। परिवार में बहने और भाई है (भाई रेलवे में एकाउंट ऑफिसर है) । लेकिन रिश्ते अब कोई मतलब नहीं रखते हें। ऐसा नहीं कि इस इंसान ने जीवन में बहुत कमाया और सारा का सारा दूसरों की सहायता में खर्च किया और अपने लिए सोचा था कि सारी दुनियाँ के काम आ रहा हूँ तो मुझसे कौन मुँह मोड़ेगा? इस दिन की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। साथ ही बताती चलूँ कि इस इंसान ने मदर इण्डिया , मुगले आजम, यहूदी की बेटी और पाकीजा जैसी हिट फिल्मों में काम किया था।
इस किस्से को एक दूसरे घटना से जोड़ना चाहती हूँ। मेरी काम करने वाली जिसकी उम्र ६० साल से काम नहीं होगी ने कहलाया कि वह आगे १५ नहीं आ पायेगी क्योंकि उसके जेठ जी का निधन हो गया है। वह विधवा औरत ६ बेटों की माँ है और अपने खर्च के लिए खुद काम करती है साथ ही एक बहू के न रहने के कारण उसकी बेटी को रखती है और अपने बेटों के द्वारा घर से निकाले गए जेठ को भी रखती थी।
उसके पास सिर्फ एक कमरा है बाकी बेटों में ले रखा है। उसके बाहर चबूतरे पर उसने एक हाथ ठेला लगा कर और बाहर से तिरपाल डाल कर जेठ को लिटा रखा था क्योंकि अब वह चलने फिरने में भी असमर्थ था। उसने जेठ के निधन पर उनके बेटों को खबर भेजी तो उन लोगों ने कहला दिया कि जब उनकी अर्थी उठे तो हमारे घर हो कर ही ले जाना हम भी साथ हो लेंगे। अपने पिता को उन्होंने यह कह कर घर से निकाल दिया था कि जीवन भर खाया उड़ाया है हमारे रहने के लिए जगह भी नहीं की। चाचा अपने बेटों के लिए रहने की जगह तो कर गए। फिर पिता भीख मांगने लगे और इसको पता चला तो वह अपने घर ले आई कि मेरे पास चलो आखिर अगर आपका भाई होता तो इस तरह तो भीख न माँगने देता। मैं जो भी कमाती हूँ उससे पेट तो भर ही सकती हूँ।
कई जगह काम करती है और घर जाकर चाहे खुद खाना न खाए लेकिन जेठ के लिए कुछ बना कर जरूर दे आती और दूसरे घरों में निकल जाती। कभी किसी भी घर से उसने कभी खाने को नहीं माँगा और न खाती है। अपनी कमाई का ही खाती है।
जेठ की अंतिम क्रिया से लेकर उसकी त्रयोदशी तक के सारे काम उसने किया । जेठ के बेटों ने श्मशान जाने तक की जहमत नहीं उठाई क्योंकि उनके घर से शव ले ही नहीं जाया गया। भतीजों ने स्पष्ट मना कर दिया कि अब जब वे अंतिम समय में हमारे घर में रहे तो काम भी हम ही कर देंगे। यद्यपि उसके बेटे भी बहुत समर्थ नहीं है कोई कबाड़ का काम करता है कोई कहीं फैक्ट्री में काम करता है और कोई फेरी लगता है। लेकिन माँ के इस कदम को उन्होंने इतना सहारा दिया कि अगर उसने रखा तो शेष काम हम कर ही लेंगे।
कहाँ तो आफिसर होकर अपने भाई को भीख माँगते हुए देख कर भी आत्मा कांपी नहीं । हो सकता है कि टीवी पर आने के बाद कुछ शर्म आये लेकिन किसी को क्या पता कि ये हें कौन।
दूसरे घर घर काम करने वाली ने अपने पति के भाई गर्त से निकल कर अपनी सामर्थ्य के अनुसार रखा खिलाया पिलाया और उसके अंतिम काम भी कर डाले। यहाँ खून के रिश्ते काम नहीं आते बल्कि संवेदनाएं होनी चाहिए जो आज अपनों में ही क्या अपने अंशों में भी ख़त्म होती चली जा रही हें।
15 टिप्पणियां:
sahi kaha samvednayein honi jaroori hain phir koi apna ho ya paraya
बड़ी कड़वी सच्चाई बयाँ कर दी आपने रेखा जी ....
संवेदनाएं मर चुकी हैं आजकल....या स्वार्थ और लोभ ने नीचे कहीं घुट रही हैं...
सार्थक पोस्ट.
सादर
अनु
आलेख पढ़ कर मेंहदी हसन की गज़ल की दो पंक्तियाँ याद हो आईं-
ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफा के मोती
तुझ को ये शै मुमकिन है खराबों में मिले
आलेख दिल को झिंझोड़ देता है.
क्या कहा जाये...संवेदनायें होगी तब न!!
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
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अन्तर्राष्ट्रीय मूर्खता दिवस की अग्रिम बधायी स्वीकार करें!
काहे के रिश्ते ...कहीं कहीं तो देख कर मन होता है कि उन्हें किसी शीशे में उनका भी भविष्य दिखा दिया जाये.आखिर बुढ़ापा तो सभी को आना है.
बर्फ होती संवेदनाओं की बानगी है ...... न जाने किस तरफ जा रहे हैं हम .....
यह कटु यथार्थ हमारे समाज का।
पता नहीं संवेदनाएं क्यों मर गयीं ...?बहुत अच्छा लिखा है ....प्रभु से प्रार्थना है ....हम सबकी संवेदना जीवित रहें ....!!
बहुत ही दयनीय स्थिति है. क्यों सारी सम्वेदंनाएँ मर जाती है?
लेकिन यथार्थ यही है.
संवेदनाओं जैसी चीज अब भी कहीं कहीं दिख जाती है जैसे कि पहले लोगों को निष्ठुरता दिख जाती थी . कहते हें कि सब पैसे की माया है लेकिन अब भी सच कहें गरीब में संवेदनाएं अधिक मिल जाती है बजाय समर्थों और पैसे वालों के.
बात तो आपकी सच है की संवेदनायें ख़त्म होती जा रही है सार्थक पोस्ट
मार्मिक ....सबने संवेदनाओं को ताक पर रख दिया हैं ...आँखों की शर्म मर चुकी हैं
यही कहने को मन करता है कि देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान कितना बदल गया इंसान
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