आज डॉ मोनिका शर्मा का लेख पढ़ा तो उससे निकल कर एक घटना मेरे जेहन में उभरने लगी - जिसने मुझे उस परिवार से दूर कर दिया।
मेरी शादी जब हुए तो मेरा परिवार कानपुर विश्वविद्यालय परिसर में रहता था। वहाँ की डिस्पेंसरी मेरे ससुर जी चलाते थे। उस समय कालोनी बहुत बड़ी न थी। एक रजिस्ट्रार का परिवार का था - उनके परिवार में ५ बेटियाँ और १ बेटा था। उनकी बड़ी बेटी मेरी हमउम्र थी सो मेरी अच्छी दोस्त बन गयी। मैं बहू थी सो वह मेरे पास आ जाती थी। हमारे बीच अच्छी अंतरंगता थी और बाद में वह मेरे पति को राखी बांधने लगी और उससे ये सम्बन्ध आज भी जारी है।
उसकी शादी हो गयी और हमने विश्वविद्यालय छोड़ दिया लेकिन सम्बन्ध ख़त्म नहीं हुए थे।उनकी चौथी नंबर की बेटी जहाँ मैं प्रिंसिपल थी उसी स्कूल में पढ़ाने लगी थी लेकिन उससे हमारे सम्बन्ध बड़ी बहन के अनुसार ही थे। मेरी बेटी का मुंडन था और मैं इसका निमंत्रण देने के लिए उनके घर गयी तो घर में उनकी दूसरे नंबर की बेटी मिली । अब उनकी दो बेटियों की शादी हो चुकी थी और बाकी नौकरी करने लगी थीं। स्थिति में बहुत फर्क आ गया था। वह मुझे देखते ही बोली 'कहिये भाभी कोई काम है क्या?'
मुझे सुनकर बहुत बुरा लगा । मैंने कहा कि नहीं ऐसा कुछ नहीं मीनू से मिलने आई थी कि सोनू का मुंडन है।
'अच्छा मैं तो समझी कि यूनिवर्सिटी का कोई काम होगा यहाँ कोई बिना काम के तो आता नहीं है। '
मुझे सुनकर बड़ा आश्चर्य लगा कि ये लड़कियाँ जब इन्हें कॉलेज जाना होता था तो मेरे पति के घर से निकलने के समय पहले से आ जाती - 'भाई साहब के साथ निकल जाऊँगी।'
उनको तो शहर जाना ही होता था सो साथ ले जाते और कॉलेज छोड़ देते थे। ये वही लड़की है जो संबंधों को अब सिर्फ अपने पापा और अपनी हैसियत से तौलने लगी थी। अपने पद पर रहते हुए उनके पिता ने अपने ४ बच्चों को विश्वविद्यालय या डिग्री कॉलेज में लगा दिया और देखते देखते ही वे बहुत पैसे वाले हो गए।
शनिवार, 24 मार्च 2012
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10 टिप्पणियां:
ऐसा कुछ शायद हम सबका देखा जिया है..... न जाने क्यूं पर धन के आते ही अधिकतर लोगों का व्यव्हार-विचार बदल ही जाता है .....
aise anubhaw dukhi kar jate hain.....
क्या कहें..कहीं न कहीं ऐसे अनुभव हम सब को होते हैं.बहुत जल्दी बदल जाते हैं लोग.
समय समय का फेर है. पर मन तो द्रवित होता ही है आज की इस व्यावहारिकता से.
मेरी एक गज़ल का शेर:
कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है.
व्यवहार भी बदलता है और कुछ देखने की दृष्टि भी ...
्यही दुनिया है रेखा जी वक्त के साथ कब बदल जाती है पता भी नही चलता।
सब पैसे की माया है, पैसा आते ही बहुत कुछ बदल जाया करता है सार्थक आलेख....
ये ही दुनिया की रीत हैं ........पर सब एक से नहीं होते .....
समय के साथ लोग बदलते हैं यह जानते हुए भी जब ऐसा कुछ होता है तो व्यक्ति आहत तो होता ही है।
घुघूती बासूती
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