इसे मजाक न समझिएगा , एक यथार्थ है ऐसा जिसे अपनी आँखों से देख रही हूँ और हमारे समाज की दकियानूसीपन के मुँह पर एक करारा तमाचा भी। हमारे समाज में एक पुत्र होने पर वंश का नाम चलता रहेगा ये अवधारणा आज भी पूरे जोर शोर से बाकी है। फिर हमसे एक पिछली पीढ़ी भी इससे कहीं अधिक सोचती रही है कि वंश का नाम न डूब जाए भले ही वंशज कहीं और जाकर रहें और यहाँ कोई नाम लेवा न रहे।
मेरी एक सहेजी जो उरई में मेरे साथ १९६९ में ग्यारहवीं तक ही पढ़ी फिर उसके बाद उसके पापा का ट्रान्सफर इटावा हो गया और वह चली गयी। उस समय उसके पापा कोर्ट में किसी अच्छी पोस्ट पर थे। हमारे बीच १९७२ तक ही संपर्क रहा और उसके बाद उसकी शादी जल्दी कर दी गयी और हम अलग हो गए कोई खोज खबर नहीं रही। जब वह उरई से गयी थी उसके दो भाई और दो बहन थी। पिता कई भाई थे सो उन्हें दो बेटों में संतोष न हुआ और उसकी शादी के बाद उनके घर में दो बेटे और दो बेटियाँ और हुईं। अपने रिटायरमेंट के बाद तक उन्होंने बेटों की इच्छा पूरी की। चार सपूत हुए। लेकिन सपूत तो क्या कोई पूत भी न निकल पाया।
कुछ इत्तेफाक ऐसा था कि जब मेरी सहेली का उसका बेटा पढ़ लिख कर इंजीनियर बन गया तो उसने मेरे बारे में बताया और कहा कि नेट पर खोजो शायद कहीं मिल जाए और इत्तेफाक से वाकई मैं उसको मिल गयी और फिर मेल के जरिये ३३ साल बाद हम एक दूसरे की खबर ले सके और फिर मिल भी सके क्योंकि उसकी मम्मी कानपुर में ही रहती थीं।
जब उससे मुलाकात हुई तो पता चला कि हमारे अलग होने के बाद उसके पापा ने और परिवार बढाया था कि उसका नाम दूर दूर चलता रहेगा। लेकिन अफसोस उनके चारों बेटों में कोई इतना भी नहीं पढ़ा कि वे कहीं नौकरी कर लेते। माँ जीवित थीं तो उनको पेंशन मिलती थी और एक बहन तलाकशुदा थी जो सबके लिए खाना बनाया करती थी और माँ की सेवा करती थी। बेटे अपने जेब खर्च भर के लिए इधर उधर करके कुछ कमा लेते थे लेकिन रोटियां तो माँ को ही खिलानी पड़ती हें।
फिर एक साल के अन्दर उसकी माँ का स्वर्गवास होगया और बहन तो जैसे उनके लिए ही जी रही थी। माँ के १५ दिन बाद बहन चल बसी। घर में कोई रोटी बनाने वाला न था। चार बेटे उनकी किसी की भी शादी न हुई थी। सिर छुपाने के लिए घर माँ के नाम था सो सब रह भर सकते थे। पिता परिवार तो बढ़ाते रहे कि वंश चलता रहे लेकिन उन वंश चलाने वालों के लिए कुछ भी न सोचा कि इनका भविष्य न बनाया तो क्या होगा? बेटियाँ तो उन्होंने अपने जीवन में ही ब्याह दी थी , उसमें से भी एक का तलाक हो गया था।
एक दिन उसका फ़ोन आया कि उसके चाचा का निधन हो गया है और वह नागपुर से सीधे मेरे पास ही आएगी उसके बाद वह उनके घर जायेगी। आने पर उसने बताया कि अब घर में कोई इतना भी नहीं है कि जाकर वहाँ इंसान बैठ कर नाश्ता करके निकल जाए। अब ऐसे भाइयों के बारे में मैंने सोचना छोड़ दिया क्योंकि ये नाकारा लोगों को कौन अपनी बेटी देगा और किस मुँह से किसी को बताऊँ कि मेरे भाई से अपनी बेटी की शादी कर दीजिये। वे करते कुछ ही नहीं है। बस अपने अपने पेट भरने का इंतजाम भर किसी तरह से कर लेते हें।
बस यही कहते बनता है कि चिराग तले अँधेरा ऐसे ही होता है कि पिता ने तो चार बेटे पैदा किये कि वंश का नाम चलेगा और बेटों ने नाम जीते जी डुबो दिया।
मेरी एक सहेजी जो उरई में मेरे साथ १९६९ में ग्यारहवीं तक ही पढ़ी फिर उसके बाद उसके पापा का ट्रान्सफर इटावा हो गया और वह चली गयी। उस समय उसके पापा कोर्ट में किसी अच्छी पोस्ट पर थे। हमारे बीच १९७२ तक ही संपर्क रहा और उसके बाद उसकी शादी जल्दी कर दी गयी और हम अलग हो गए कोई खोज खबर नहीं रही। जब वह उरई से गयी थी उसके दो भाई और दो बहन थी। पिता कई भाई थे सो उन्हें दो बेटों में संतोष न हुआ और उसकी शादी के बाद उनके घर में दो बेटे और दो बेटियाँ और हुईं। अपने रिटायरमेंट के बाद तक उन्होंने बेटों की इच्छा पूरी की। चार सपूत हुए। लेकिन सपूत तो क्या कोई पूत भी न निकल पाया।
कुछ इत्तेफाक ऐसा था कि जब मेरी सहेली का उसका बेटा पढ़ लिख कर इंजीनियर बन गया तो उसने मेरे बारे में बताया और कहा कि नेट पर खोजो शायद कहीं मिल जाए और इत्तेफाक से वाकई मैं उसको मिल गयी और फिर मेल के जरिये ३३ साल बाद हम एक दूसरे की खबर ले सके और फिर मिल भी सके क्योंकि उसकी मम्मी कानपुर में ही रहती थीं।
जब उससे मुलाकात हुई तो पता चला कि हमारे अलग होने के बाद उसके पापा ने और परिवार बढाया था कि उसका नाम दूर दूर चलता रहेगा। लेकिन अफसोस उनके चारों बेटों में कोई इतना भी नहीं पढ़ा कि वे कहीं नौकरी कर लेते। माँ जीवित थीं तो उनको पेंशन मिलती थी और एक बहन तलाकशुदा थी जो सबके लिए खाना बनाया करती थी और माँ की सेवा करती थी। बेटे अपने जेब खर्च भर के लिए इधर उधर करके कुछ कमा लेते थे लेकिन रोटियां तो माँ को ही खिलानी पड़ती हें।
फिर एक साल के अन्दर उसकी माँ का स्वर्गवास होगया और बहन तो जैसे उनके लिए ही जी रही थी। माँ के १५ दिन बाद बहन चल बसी। घर में कोई रोटी बनाने वाला न था। चार बेटे उनकी किसी की भी शादी न हुई थी। सिर छुपाने के लिए घर माँ के नाम था सो सब रह भर सकते थे। पिता परिवार तो बढ़ाते रहे कि वंश चलता रहे लेकिन उन वंश चलाने वालों के लिए कुछ भी न सोचा कि इनका भविष्य न बनाया तो क्या होगा? बेटियाँ तो उन्होंने अपने जीवन में ही ब्याह दी थी , उसमें से भी एक का तलाक हो गया था।
एक दिन उसका फ़ोन आया कि उसके चाचा का निधन हो गया है और वह नागपुर से सीधे मेरे पास ही आएगी उसके बाद वह उनके घर जायेगी। आने पर उसने बताया कि अब घर में कोई इतना भी नहीं है कि जाकर वहाँ इंसान बैठ कर नाश्ता करके निकल जाए। अब ऐसे भाइयों के बारे में मैंने सोचना छोड़ दिया क्योंकि ये नाकारा लोगों को कौन अपनी बेटी देगा और किस मुँह से किसी को बताऊँ कि मेरे भाई से अपनी बेटी की शादी कर दीजिये। वे करते कुछ ही नहीं है। बस अपने अपने पेट भरने का इंतजाम भर किसी तरह से कर लेते हें।
बस यही कहते बनता है कि चिराग तले अँधेरा ऐसे ही होता है कि पिता ने तो चार बेटे पैदा किये कि वंश का नाम चलेगा और बेटों ने नाम जीते जी डुबो दिया।
13 टिप्पणियां:
theek hi kahaa aapne aaj bhi logon men beton se vansh chaltaa hai ki manskitaa hati nahi hai aur jo kissa aapne likha use dekhte hue bhi yahi lagtaa hai ki shaayd kabhi hate gi bhi nahi..... jaane kab log betiyon ka muly samjhenge... saarthak evam sandeshmayi rachaa...
मुझे आज तक समझ नहीं आया की कौन से वंश की बात करते हैं हम ? नाम अपने कर्मों से होता है न कि बेटों से ...
पुत्र और बेटे कह कर रिश्तों को बदनाम करना ठीक नहीं। आजकल तो लड़के होते हैं जो सारा काम लड़के ही पूरा करते हैं।
पता नहीं कब बदलेगी सोच...........
हर बेटा बुरा नहीं होता...और बेटियाँ भी लोभी हो गयीं है आजकल...इंसान होता है अच्छा या बुरा....
सार्थक लेख रेखा जी.
सादर.
oh !!!
ek se ek kahaniyan har taraf dekhne milti hain.
आज भी वही सवाल हैं .....लड़का ही क्यों ????????
औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन क्यों?
sangeeta jee ke mat se sahmat hoon, apane karmon se naam hota hai. mahatma gandhi apane aap men ek naam hain unake beton aur poton ko koi nahin janata ki ve unaka naam roshan karenge.
indira gandhi se jawaharlal nehru ka naam jana jata hai ve bhi beti hi thee.
shastriji,
main apane samaj kee manasikata kee bat kar rahi hoon, jo ki betiyon ke hone par bhi vansh ke liye ladaka ka hona jaroori manate hain. bete ya putra sabhi aise hon aisa nahin kah rahi main.
काश आज भी लोग समझ सकें कि जरूरी क्या है ?सबसे जरूरी है सही पालन पोषण और शिक्षा फिर चाहे बेटा हो या बेटी………ना जाने कब बदलेगी मानसिकता।
sahi soch....sahi shikcha hi sudhar la sakti hai....
Aap ekdum sahi kah rahi hain.
i have a only daughter.
no need of other child and always thinking to give her better future.
Ashish Banswani,
Birla Sunlife Insurance, Orai
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