एक कहावत है न कि मौके को देखते हुए 'गधे को लोग बाप बना लेते हैं.' वह तो बात अलग हो गयी लेकिन ऐसा किस्सा अभी तक तो सामने नहीं आया है ( मैं सिर्फ अपनी बात कर रही हूँ, आप लोगों ने देखा या सुना हो तो बताएं) कानपुर में एक रिटायर्ड डॉक्टर जो कि उच्चतम पद से सेवा निवृत हुए । कुछ सामाजिक सरोकार के तहत पता चला कि उन्होंने जीवन भर सवर्ण बन कर नौकरी की और वह भी ब्राह्मण पिता की संतान थे। उनका नाम है डॉ राम बाबू।
अपने सेवानिवृत होने के पांच साल पहले उन्होंने कोर्ट में ये दावा किया कि उनकी माँ अनुसूचित जाति की थी , इस लिए उनको अनुसूचित जाति का घोषित किया जाय। अदालत ने उनको पांच साल पहले अनुसूचित घोषित कर दिया और वे ताबड़तोड़ पदोन्नति लेते हुए उच्चतम पद पर पहुँच गए।
वैसे तो अभी तक यही प्रावधान सुना है कि बच्चे के नाम के आगे पिता की जाति का उल्लेख होता है । यहाँ तक कि शादी के बाद पत्नी के नाम के साथ भी पति कि जाति जोड़ी जाने लगती है। वैसे अब एक विकल्प यह भी देखा जा रहा है कि लड़कियाँ अपनी जाति को हटाने के स्थान पर पति के नाम के अंतिम हिस्से को साथ में जोड़ लेती हैं।
लेकिन किसी ने माँ की जाति या उसके उपनाम को अपने साथ जोड़ा हो ऐसा नहीं मिला है क्योंकि अभी भी हमारे समाज में पितृसत्तात्मक परिवार ही पाए जाते हैं। वैसे तो यह एक अच्छा दृष्टिकोण है कि माँ को प्रमुखता देते हुए उनकी जाति का उल्लेख किया जाय लेकिन अपने जीवन के पूरे सेवा काल में ये बात डॉ राम बाबू को समझ क्यों नहीं आई? सिर्फ इस लिए कि अब उनके सेवानिवृत्ति के दिन करीब आ रहे थे और सवर्ण होते हुए उन्हें पदोन्नति की ये सीमा प्राप्त नहीं हो सकती थी तो पदोन्नति का शार्टकट उन्होंने खोज लिया। हमारी अदालत ने भी इस पर कोई सवाल नहीं किया कि अपने जीवन के ५५ साल उन्होंने ब्राह्मण बनकर काटे अब अचानक ये माँ के प्रति प्रेम उनमें कहाँ से जाग आया है ? सिर्फ निजी स्वार्थ के लिए सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए इस तरह से जाति परिवर्तन की आज्ञा अदालत को भी नहीं देनी चाहिए। वैसे ये डॉ रामबाबू अब पूरी तरह से अनुसूचित जाति के हो चुके हैं क्योंकि अब वह अनुसूचित जाति के लिए किसी संस्था के पदाधिकारी भी हैं।
ये हमारी आरक्षण नीति के गलत रवैये को ही दिखाता है क्योंकि आगे डॉ रामबाबू के सभी बेटे इस आरक्षण के अधिकारी हो चुके हैं और आगे आने वाली पीढ़ी भी। ये पढ़े लिखे लोग अपनी मेधा का प्रयोग इसी लिए कर रहे हैं कि कैसे वे अधिक से अधिक इस सरकार की गलत नीतियों का फायदा उठा कर आगे बढ़ते रहें.इस आरक्षण ने समाज के बीच में ऐसी खाई खोद रखी है कि इससे समाज का हित नहीं बल्कि अहित हो रहा है या फिर डॉ रामबाबू जैसे लोग उसके लिए तिकड़म खोज कर अपने लिए मार्ग बनाते जा रहे हैं। यह न सरकार की और न ही अदालत के द्वारा अपनाये गए रवैये को स्वस्थ मानसिकता का प्रतीक नहीं कहा जा सकता है।
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8 टिप्पणियां:
आपका कहना बिल्कुल सही है यहाँ तो हमेशा कानून की धज्जियाँ इसी तरह उडाई जाती रही है और उडाई जाती रहेंगी जब तक सख्ती नही की जायेगी।
जो जैसा फायदा उठा पा रहा है, उठा रहा है...कानून को तोड़ मरोड़ कर.
Kanoon kaha rah gya india me ab...
Jai hind jai bharat
ऐसे पता नहीं कितने राम बाबू हैं, ये तो एक हैं जिनका चेहरा दिख गया।
हमारे देश में कानून सिर्फ अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए बनाये गए हैं , शांति और नियम पालन के लिए नहीं!
सही कहा आपने....
दीदी,यही तो अवसरवादिता है और कानून का साथ मिल जाए तो उसकी पराकाष्ठा हो जाती है जो यहाँ हुआ
बिलकुल सही कहा आपने....
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