बहुत कुछ ऐसा घट जाता है कि उसे कहा भी नहीं जाता और सहा भी नहीं जाता। आज वटवृक्ष पर रश्मि प्रभाजी नेमेरी एक कविता मेरे ब्लॉग से खोजकर ली। यह तब लिखी गयी थी जब न मेरा ब्लॉग था और न मैं ब्लॉग के बारेमें जानती थी। । किसी ने कहा अर्थ पर तो अपने यमक अलंकर का उदाहरण बना दिया है। क्या वाकई ये अर्थरिश्ते , संवेदनाओं और भावनाओं को हर नहीं लेता है? जिस घटना ने इस कविता को लिखने के लिए विवश कियावह मेरे बहुत करीब घटी थी। वह घटी इतने करीब थी कि उसमें लहूलुहान मेरी आत्मा भी हुई थी।
कई साल पहले कि घटना है - वह मेरी आत्मीय थी, पता चला कि उनके गिरने से उनको चोट आई है। वे चल नहींपा रही हैं। जब मुझे पता चला तो मैंने फ़ोन करके कहा कि उनका एक्स रे करवा लें ताकि पता चले कि चोट कहाँलगी है?
वहाँ से कहा गया अभी तो सिकाई करवा रहे है, बस खड़ी नहीं हो पा रही हैं वैसे तो कोई तकलीफ नहीं है। 'मुझे पताथा कि ऐसा ही कुछ होगा जिसको पता नहीं चल पा रहा है और एक्स रे , से जरूर पता चल जायेगा । एक्स रेकरवाया तो पता चला कि कुल्हे की हड्डी टूट गयी । छोटी जगह है और उतनी सुविधाएँ भी नहीं इसलिए मैंनेउनको कानपुर लाने की बात कही की यहाँ पर हमारे अपने संबंध है और ठीक से केयर भी हो जाएगी। उनकोकानपुर लाये और ऑपरेशन के दूसरे ही दिन वह चले गए इस समय सीजन चल रहा है तो मेरा घर पर होना जरूरीहै। मैंने भी इसको इतर नहीं लिया क्योंकि वे हमारी भी आत्मीय हैं। अस्पताल हमारे घर जैसा था और उनकीकेयर भी सबने अपने जैसे ही की। १० दिन बाद हम उनको घर लाये। इस बीच कोई समाचार लेने वाला नहीं था।एक महीने बाद जब वे चलने के काबिल हो गयी हम एम्बुलेंस से उनको छोड़ने गए।
सबसे पहले पूछा कि जो भी खर्च हुआ है उसकी रसीद बनवाई है या नहीं। वास्तव में हमने ऐसा कुछ सोचा ही नहींथा क्योंकि हमारे जीवन में ऐसा कभी हुआ ही नहीं था। अपने घर में भी कभी ऐसा देखा नहीं था और किया भी नहींथा। फिर अस्पताल से लेकर डॉक्टर और दवाएं तक हमने अपने तरीके से हैंडिल की थीं। जिसको जो देना था दियाफिर नर्सिंग होम के भी चार्जेज हमने अपने मुताबिक दिए । रसीद हम किससे और क्यों लेते?
मेरे मना करने पर बड़ा बवाल मच गया कि अगर रसीद होती तो हमें इनकम टैक्स में रिबेट मिल जाता। ऐसे तोकुछ भी नहीं मिलेगा। बात उनकी भी सही थी लेकिन रिबेट तो तब लेते जब पैसे उन्होंने खर्च किये होते। शायदरसीद होती तो वे भुगतान करने की सोचते।
मैं दूसरे दिन चली आई लेकिन इस वाकये से इतना दुःख हुआ की पैसे से तौलने वाले रिश्ते क्या इंसान होने काद्योतक होता है शायद नहीं। हम उनकी देखभाल नहीं कर सकते , उनकी सेवा नहीं कर सकते । फिक्र हमें इनकमटैक्स की है। वाह रे इंसान - अब कुछ कहने के लिए नहीं बचा है।
बुधवार, 20 अप्रैल 2011
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10 टिप्पणियां:
यथार्थ कभी कभी इतना कटु होता है की सद्भावना घायल हो जाती है ..
पर सेवा धर्म पर भी टैक्स . देख तेरे इन्सान की हालत क्या हो गई भगवान .
दिल को छूने वाली घटना!
मुझे सच में समझ नहीं आ रहा क्या कहूँ ..बस स्तब्ध हूँ..क्या हो गया है लोगों को.
हाला कि यह अर्थ का युग है लेकिन मानवता को इस हद तक पैसों से तौलने वालों की भी कोई कमी नहीं है।
aaj ke yug me paisa bhagwan nahi to kya uske baad to sabse aham ho gaya hai...aur ye katu satya ho chuka hai..:(
aaj ka daur hi aisa chal raha ... aadmi ko paiso ki boli aur vyvhaar samjh aa rahi bhavnayen to jaise shuny ho gayi hain.......... par aise jab sacchai se samna hota hai to man kadwahat se bharna svabhavik hai ...aabhar
वहा वहा क्या कहे आपके हर शब्द के बारे में जितनी आपकी तारीफ की जाये उतनी कम होगी
आप मेरे ब्लॉग पे पधारे इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद अपने अपना कीमती वक़्त मेरे लिए निकला इस के लिए आपको बहुत बहुत धन्वाद देना चाहुगा में आपको
बस शिकायत है तो १ की आप अभी तक मेरे ब्लॉग में सम्लित नहीं हुए और नहीं आपका मुझे सहयोग प्राप्त हुआ है जिसका मैं हक दर था
अब मैं आशा करता हु की आगे मुझे आप शिकायत का मोका नहीं देगे
आपका मित्र दिनेश पारीक
कैसे कैसे लोग हैं इसी दुनिया में....हद है.
ek bahut hi kadwa sach dikha diya aapne.....man dukhi ho gaya.
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