जीवन संध्या अकेले गुजरना कितना भयावह हो जाती है? इसके विषय में सिर्फ वही बता सकता है जो इसको गुजर रहा होता है लेकिन उनके इस दर्द को अगर बच्चों ने समझ कर कुछ अच्छे निर्णय लिए तो वे सराहनीय होते हैं।
डॉ तिवारी की पत्नी की मृत्यु जब उनके दोनों बच्चे बहुत छोटे थे तभी हो गयी। उन बच्चों को उनकी दादी ने आकर संभाला । लेकिन जब तक दादी रही वे बच्चों के लिए माँ बनी रहीं और बेटे के लिए तो माँ थीं ही। जब उनका निधन हुआ तो बच्चे बड़े हो चुके थे। उनकी अपनी अपनी पढ़ाई और जॉब के लिए घर से बाहर निकल गए । अब डॉ तिवारी के लिए बच्चों के घर बसने के लिए चिंता तैयार हो चुकी थी। माँ के होते हुए निर्णय लेना अधिक आसान होता है लेकिन बगैर माँ के बच्चों के विषय में अकेले निर्णय लेना कुछ दुष्कर लगता था। लेकिन बगैर माँ के जीते हुए बच्चे भी पिता के कंधे से कन्धा मिला कर चलने को तैयार हो चुके थे।
डॉ तिवारी ने दोनों बच्चों की शादी कर दी। अब वे अकेले रह गए। अकेले तो वे वर्षों से ही थे लेकिन अब उम्र के उस पड़ाव पर आ गए थे की पचास से ऊपर आने के बाद ही लगता है की अब कोई जीवन में होना चाहिए था। अब इस बारे में सोचने की उनके बच्चों की बारी थी। दोनों बच्चों ने अपने अपने जीवनसाथी के साथ मशविरा करके पापा के लिए एक संगिनी खोनाने की बात सोची और उन्हें मिल भी गयी। वह उन बच्चों के कॉलेज में ही एक टीचर थी। संयोग वश उनका विवाह न हो पाया था। बच्चों ने पापा से बात की तो पापा ने उनको डांट दिया क्या तुम लोग तमाशा फैला कर खड़े हुए हो ? मेरी अब शादी की उम्र है।
"नहीं पापा, आपकी शादी की उम्र नहीं है , लेकिन अब आपकी उम्र है की कोई घर में हो जो आपको खाना बना कर दे और आपके सुख और दुःख को बाँट सके। "
"हाँ पापा अब हम सब अपने अपने घर बसा कर उसमें व्यस्त हो गए हैं और जितनी आपने हम लोगों के लिए त्याग किया है अगर हम उसके मुकाबले आपके लिए कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए सोचा है की हमारी मैम भी अकेली हैं वे आपके साथ के लिए बिल्कुल ठीक रहेंगी । "
"अगर आप राजी हों तो हम उनसे बात कर सकते हैं।"
"बेटा लोग क्या कहेंगे?"
"पापा लोग तब भी कुछ कहते जब आप हमारे बचपन में ही दूसरी शादी कर लेते। अब भी कहेंगे लेकिन लोग आपके बीमार होने पर आपको आक़र खाना नहीं खिला जायेंगे। दवा नहीं दे जायेंगे। "
बच्चों के इतना कहने पर डॉ तिवारी ने भी कुछ सोचा और फिर अपनी मंजूरी दे दी। बच्चों ने मंदिर में पापा की शादी रचाई और फिर एक छोटी सी पार्टी भी दी।
आज शादी के ५ साल बाद डॉ तिवारी रिटायर हो रहे हैं और इस इंसान और उस पांच साल पहले वाले इंसान में जमीन आसमान का फर्क है। तब वे अधिक बूढ़े नजर आते थे और आज तो वे लग ही नहीं रहे हैं कि वे सेवानिवृत्त हो रहे हैं।
मुझे ये सुखद निर्णय बहुत अच्छा लगा कि बच्चे अगर खुद कुछ न कर पाए तो उन लोगों ने पापा के लिए बहुत अच्छा निर्णय लिया। उन्हें पापा की संपत्ति से नहीं बल्कि अपने पापा के एक सुखद भविष्य से वास्ता था जो उन्होंने अपने बच्चों के लिए अपनी पूरी जिन्दगी न्योछावर कर दी थी। उसका बहुत अच्छा सिला दिया उनके बच्चों ने। समाज में ऐसे निर्णय वह भी बच्चों के द्वारा लिए हुए कम ही नजर आते हैं लेकिन ये सोच सराहनीय है।
रविवार, 10 अप्रैल 2011
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13 टिप्पणियां:
हमें भी बच्चों का यह निर्णय सुखद लगा..उससे ज़्यादा अच्छा लगा पुरानी पीढी का मानना...सच में सराहनीय सोच है..
पढ़कर अच्छा लगा की बच्चे समझदार हो गए है आजकल के और पिता के अकेलेपन पर उन्होंने सोचा .
बहुत बढ़िया
ये एक अच्छी सोच है। परिवार को जुट रखना सबकी जिम्मेदारी है। यहां बच्चों ने आगे बढ़कर एक रास्ता तलाशा। परिणाम सुखद रहा।
सकारात्मक सोच।
बहुत ही अच्छी सोच और सराहनीय निर्णय ..काश सभी ऐसा सोच कर निर्णय ले पाते.
वाह! क्या बात है! बहुत सही फ़ैसला.
बहुत सुखद निर्णय ...और इस बात को यहाँ साझा करने के लिए शुक्रिया
वाह! बहुत खूब .
achche manthan ke liye sadhuwad .
sqadar
मैंने कंचनप्रभा में भी आपकी रचनाये पढी है
इनको पढना वाकई सुखद है
बच्चों का यह निर्णय सुखद है ...
वर्ना तो बुजुर्ग जब अपने बारे में सोचते हैं तो बच्चे प्रोपर्टी के लालच में तोहमतें लगाने से बाज नहीं आते ..
भारतीय परिदृश्य में अभी इस तरह के परिवर्तन कम ही दिखाई दे रहें हैं ...इसके पीछे प्रमुख वजह सामाजिक बंधन है ...ऐसा मेरा मानना है
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