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बुधवार, 23 मार्च 2011

दर्द प्रवासी के घर का!

आप देख रहे हैं कि हर सौ घर में से ४० घरों के बच्चे बाहर जाने को लालायित रहते है और जाते भी है लेकिन उनमेंसे कितने वहाँ की चकाचौंध में ऐसे फँस जाते हैं कि उन्हें लगता है कि यहाँ रखा ही क्या है? अपनी दुनियाँ भी वहींबसा लेते हैं। इसमें नया कुछ भी नहीं है, हम भी बड़े शान से कहते हैं कि बेटी या बेटा हमारा वहाँ पर है और वहीं परसेटल हो गया है। बड़े नाजों और आशाओं से पले अपने जिगर के टुकड़े के निर्णय के साथ माता-पिता भी समझौताकर लेते हैं कि जिसमें बच्चों की ख़ुशी उसी में हमारी भी है। ऐसा नहीं कि जिगर के टुकड़े याद नहीं आते हैं लेकिनबच्चों की दुनियाँ कहीं और बसी होती है और इनकी दुनियाँ तो अपने बच्चों के गिर्द ही तो बसी है।
एक दिन हमारे परिचित दंपत्ति ने हमें अपने यहाँ बुलाया था और हम वही पर बैठे थे वैसे तो उम्र के इस मोड परसभी अकेले रह जाते हैं। हम लोगों की बात और थी कि अपनी दुनियाँ माँ बाप के गिर्द ही समेट कर रखी। इसकेलिए अपने भविष्य कि संभावनाओं को भी दांव पर लगा दिया। फिर भी खुश रहे। आज कल सिमटी भी हो तो नहींसिमट पाती है सात समंदर पार से ज्यादा फासले देहलीज के भीतर पलने लगे हैं।
अचानक वर्मा जी का फ़ोन घनघना उठा - 'इस वक़्त कौन होगा?' चश्मा निकल कर नंबर देखा तो बोले - 'प्रेरक काहै।'
'बात करो न।' पत्नी उतावली होते हुए बोली
उनके बेटे को गए - साल हो रहे हैं फ़ोन महीने में दो बार ही आता है। उसमें भी अगर दोनों में से कोई सो गयातो दूसरा जगाता नहीं है क्योंकि नीद खुल जाने पर दुबारा मुश्किल से आती है।
बात करके फ़ोन रख दिया और उसके बाद उन्होंने एक शेर कहा --
तेरी आवाज सुनी तो सुकून आया दिल को,
वर्ना तुझको देखे हुए तो जमाना गुजर गया।
उनके दर्द को बांटने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि चंद मिनटों कि बात दुःख बांटने के लिए नहीं होते। अबतो सवाल ये है कि पता नहीं कौन सा पल मौत की अमानत हो। फिर दूसरा कैसे रहेगा? ये तो शाश्वत सत्य है किसाथ कम ही जाते हैं। फिर इस घर में पसरे दर्द को बांटने वाला कौन? ऐसे कितने घर की जहाँ बीमार भी हो जाएँ तोफिर देखने वाला कोई नहीं।

21 टिप्‍पणियां:

shikha varshney ने कहा…

रेखा जी ! आपने प्रवासी के घर का दर्द बखूबी बयान किया है. पर यकीन मानिये प्रवासियों को भी यह दर्द कुछ कम नहीं होता.
मजबूर ये हालत इधर भी हैं उधर भी हैं
ख़ामोशी एक रात इधर भी है उधर भी है.

Kailash Sharma ने कहा…

यह आज का यथार्थ है जिसको सहना ही होगा..बहुत सार्थक और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति..

मीनाक्षी ने कहा…

प्रवासी के दर्द का बयान बहुत खूब किया..इस दर्द की दवा यही है कि उदासी और विछोह में भी मुस्कुराते रहे...जितना साथ है उतना तो जी लें बाद की बाद में सोचेंगे .

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सटीक लिखा है ...बच्चों के भविष्य के आगे चुप रह जाना होता है ..और फिर जो देश में ही रहते हैं वो भी कितना साथ निबाहते हैं ?

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

सम्मानीया रेखा श्रीवास्तव जी! आपने आज की ज्वलंत समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया है। साधुवाद! एक समस्या और मेरे संज्ञान में आई है। उसे मैं साझा कर रहा हूँ।
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सामान्य कानून के आधार पर कोई विदेशी व्यक्ति यहाँ पर भूमि-अर्जित नहीं कर सकता है। दोहरी नागरिता के आधार पर पलायित व्यक्ति बड़ी मात्रा में यहाँ पर संपत्ति अर्जित कर लेता है। उसकी संतानों को जन्म के आधार पर उस देश की नागरिकता मिल जाती है। कई पीढ़ी बाद पलायन-कर्ता की संतानों को इस देश की मिट्टी से लगाव नहीं रहता है। धन की ताकत पर भारत की टुकड़े-टुकड़े भूमि पर विदेशियों का स्वामिव पुनः बढ़ता जा रहा है।
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

राज भाटिय़ा ने कहा…

प्रवासी!! जी आप ने हम जैसे लोगो का ओर उन के मां बाप का दुख बहुत अच्छी तरह से समझाया, लेकिन हर किसी की मजबुरियां होती हे, अब तो भारत मे भी बच्चे एक ही शहर मे रहते हे, लेकिन मां बाप को पुछते भी नही.... ओर इंतजार करते हे कि कब दोनो मरे... प्रवासी कम से कम देर सवेर पहुच तो जाते हे मां बाप के पास, ओर फ़िर पैसो से उन्हे हर मदद देते हे.... कोई भी देश से दुर नही होना चाहता.... लेकिन मजबूरिया यह सब करवा देती हे.... मै बहुत दुर था, लेकिन मां के एक फ़ोन पर दुसरे दिन ही उन के चरणो मे होता था.

Anupam Karn ने कहा…

मैं भाटिया जी के विचार से सहमत हूँ . यहाँ विचारों में बदलाव है दूरियां मायने नही रखती या... फिर कम रखती है!

Dr Varsha Singh ने कहा…

रेखा जी!
आपका यह लेख बहुत अच्छा लगा ...
यथार्थ है.....
इस महत्वपूर्ण प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई।

Dr. Yogendra Pal ने कहा…

आपने बहुत सही कहा है, मैंने तो यही सब सोच कर बाहर जाने का विचार ही नहीं किया, कभी जाना हुआ तो घूमने जायेंगे सभी को साथ लेकर, पर काम धंधा तो यहीं करना है

माता-पिता के इस दर्द को समीर जी ने अपनी पुस्तक "देख लूँ तो चलूँ" में बहुत अच्छे से प्रस्तुत किया है

अब कोई ब्लोगर नहीं लगायेगा गलत टैग !!!

रचना दीक्षित ने कहा…

खुशी और गम के हालातों से जूझते बच्चों और माँ बाप. एक यथार्थ का चिंतन. लेकिन इस दर्द की दवा भी कोई नहीं. हालत और गंभीर हो जातें है जब उस देश से भागना पड़ता है जान बचाकर.

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

@शिखा कई तरह के लोग हैं और इतने बहुतायत अब इसी दर्द को देने वालों कि है.
@राज जी, आपसे बेटे कम ही हैं और फिर आप आज की पीढ़ी के नहीं हैं और हमारी पीढ़ी तो बहुत कुछ कर सकती है और कर रही है.
@मीनाक्षी जी, बस इसी में तो माता पिता संतोष कर लेते हैं और फिर कोई चारा भी नहीं है. समय कि धरा के साथ ही चलना बुद्धिमानी है.
@संगीता, लिखा तो है कि देहलीज कि दूरी सात समंदर से दूर होती जा रही है. एक घर और कमरे अलग अलग मगर दिल तो कहीं मिल ही नहीं रहे हैं.

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

@शिखा कई तरह के लोग हैं और इतने बहुतायत अब इसी दर्द को देने वालों कि है.
@राज जी, आपसे बेटे कम ही हैं और फिर आप आज की पीढ़ी के नहीं हैं और हमारी पीढ़ी तो बहुत कुछ कर सकती है और कर रही है.
@मीनाक्षी जी, बस इसी में तो माता पिता संतोष कर लेते हैं और फिर कोई चारा भी नहीं है. समय कि धरा के साथ ही चलना बुद्धिमानी है.
@संगीता, लिखा तो है कि देहलीज कि दूरी सात समंदर से दूर होती जा रही है. एक घर और कमरे अलग अलग मगर दिल तो कहीं मिल ही नहीं रहे हैं.

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

पंख लगते ही चिड़िया के बच्चे घोसला छोड़कर दूर चले जाते हैं फिर रह जाती हैं हर आहट पर आस लगाए बूढ़ी होती,शून्य में निहारती वो आँखें जिनमें सपनों का सैलाब भरा होता है ! इस कहानी का दर्द वही जानता है जिसके ऊपर गुज़रती है !
आद.रेखा जी ,आपने संवेदना की स्याही से यथार्थ को उकेरा है !
धन्यवाद !

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

yahi yatharth hai!

शोभना चौरे ने कहा…

"इसकेलिए अपने भविष्य कि संभावनाओं को भी दांव पर लगा दिया "
रेखाजी अपने प्रवासियों के दर्द झेल ते हुए लोगो के दर्द को अंतर्मन से महसूस किया फिर ये वाक्य क्यों ?क्या यहाँ रहकर भविष्य नहीं है ?
हमारे देश में हर क्षेत्र में सदियों से महान हस्तीया होती रही है तो जिनका जीवन अनुस्र्नियहै उन्होंने to विदेशो में अपना भविष्य नहीं तलाशा ?

Smart Indian ने कहा…

हृदयस्पर्शी पोस्ट। प्रवास का दर्द तो होता ही है प्रवास का कारक भी एक बडा दर्द ही होता है।

Dinesh pareek ने कहा…

होली की आपको बहुत बहुत शुभकामनाये आपका ब्लॉग देखा बहुत सुन्दर और बहुत ही विचारनीय है | बस इश्वर से कामनाये है की app इसी तरह जीवन में आगे बढते रहे | http://dineshpareek19.blogspot.com/
http://vangaydinesh.blogspot.com/
धन्यवाद
दिनेश पारीक

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत सार्थक और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति| धन्यवाद|

हरीश सिंह ने कहा…

बहुत सार्थक और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति

ज्योति सिंह ने कहा…

ye taklifdeh baate hai magar daur hi kuchh aesa hai ,bachche chahe to umra badha sakte hai apne mata -pita ki magar ise kahan samjhte ,bahut badhiya likha hai rekha ji .

ज्योति सिंह ने कहा…

आपकी रचना को पढ़कर कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी और लिखने का मन हो गया जो आगे है --------
पाल पोश कर बड़ा किया
कंचन दूध पिलाया ,
माता -पिता का दोष नहीं है
भाग्य लिखा फल पाया .