कल शाम आते वक्त एक झोपड़ी में आग लगी थी। उसकी गृहस्वामिनी चिल्ला रही थी कि कोई मेरेघर को बचा ले लेकिन ईंटों के ऊपर रखे बांस के टट्टर के ऊपर पड़ी पालीथीन से ढके घर को कौन बचा सकताथा? घर के बाहर एक चारपाई पर चिप्स सूख रहे थे। पालीथीन गल गल कर नीचे गिर रही थी ऐसे सब कुछ स्वाहाहोना तय ही था। कुछ पल रुकने के लिए मन हुआ लेकिन वहाँ कुछ भी नहीं हो सकता था बस शुक्र इतना था किउसके बच्चे सब बाहर थे। फिर उस जले हुए घर के रहने वालों कि मनःस्थिति मैं बखूबी समझ रही थी।
घर आते आते दिमाग में न जाने कितने वर्षों पहले का घटनाक्रम घूमने लगा। अपने बचपन की बात मैंउस समय नवें में पढ़ रही थी। हमारा घर काफी ऊंचाई पर था। एक शाम जब पापा घर आ चुके थे तो दूर से आगकी लपटें दिखाएँ दीं और पापा तुरंत ही उस तरफ भागे जैसे कि उनको कोई अहसास था। जब काफी देर तक पापान आये तो भैया को भेजा गया। वहाँ हमारी ही advertising agency थी और हमारी ही दुकान में आग लग गयीथी और बहुत कुछ जल कर रख हो गया था। वहाँ पर सब कुछ ऐसा ही होता है कि आग पकड़ ले। लोगों ने पानीडाल कर बुझाया भी लेकिन कुछ भी ऐसा न था कि दुबारा काम आ सके।
पापा घर आ गए हम सब एक ही आवाज में बोले - 'अब क्या होगा?' पापा ने हम सब को अपने सेचिपका लिया और बोले - 'कुछ नहीं, फिर सब ठीक हो जायेगा।' उनका ये विश्वास हमें भी संबल दे गया। सब कुछतो ख़त्म हो चुका था। कितने काम पूरे रखे थे, कितने अभी अधूरे थे और कितना सारा सामान।
होली आने ही वाली थी। संयुक्त परिवार में सभी त्यौहार एक साथ ही मनाये जाते थे। दोनों चाचानौकरी बाहर करते थे लेकिन पर्वों पर सपरिवार यही आते और त्यौहार मनाया जाता। ढेरों पकवान बनाये जातेऔर के हफ्ते बाद जब सब जाते तो सबको बाँध कर दिए जाते । हमने सोचा कि हर बार तो पापा ही सब करते हैंइस बार चाचा लोग कर लेंगे लेकिन ये क्या? होली के ३ दिन पहले एक चाचा आये और बोले हम तो आ नहीं पायेंगे। कोई परेशानी हो तो ये पैसे रख लीजिये उन्होंने १०० रुपये माँ को दिए। दूसरे चाचा ने आने की जरूरत ही नहींसमझी। हाँ दादी के लिए खबर भेज दी कि आना चाहें तो होली में यहाँ आ जाएँ।
दादी न्याय प्रिय थी - 'तुम लोगों ने क्या समझा? सिर्फ यहाँ आराम और ऐश करने की जगह है कि चले आये त्यौहार मनाने करने वाले तो कर ही रहे हैं । जब घर में आग लगी होती है तो माँ अपने बच्चों को बचा हीलेती है चाहे वो खुद क्यों न जल जाए।'
वह होली दादी ने पूरा खर्च करके मनाई और वैसे ही जैसे कि मनाते थे। उस समय बहुत छोटी थीलेकिन संवेदनशील तो तब भी थी। तभी जाना था कि मुसीबत में साया भी साथ छोड़ देता है। अगले साल फिर सबआये लेकिन एक दरार जो पड़ गयी वो दिल से ख़त्म न हुई।
मंगलवार, 8 मार्च 2011
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14 टिप्पणियां:
ऐसा ही होता है..मैने एहसासा है वक्त और मुसीबतों में अपनों का व्यवहार..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ,सच कहा आप ने जब एक बार दरार पड जाये रिश्तो मे तो कभी नही भरती
रिश्तों कि पहचान मुश्किल में ही होती है. सुंदर प्रस्तुति.
सही है. ऐसी कठिन परिस्थिति में ही लोगों की पहचान होती है.
सुख के सब साथी दुःख में न कोय |
दुःख के समय दिखावा करने तो सब अ जाते है किन्तु मन से कोई साथ नहीं होता |
आद. रेखा जी,
जीवन का हर यथार्थ कड़वा है ! आपने उस सच्चाई को शब्द दिये हैं जिसे हम सब भोगने पर मज़बूर हैं ! काश,ये दुनिया ऐसी नहीं होती !
आपका लेख जीवन की विद्रूपताओं से लड़ने की शक्ति देता है !
आभार !
shayad yahi jindagi ka sabse dukhad pahloo hai...apne jab dukh me saath chhodte hain..!
अपनो की पहचान मुश्किल में ही होती है ....बहुत संवेदनशील प्रस्तुति
Shayad isliye hi kahte hain ki rishte kachhe dhaage ki tarah hote hain ... tootne nahi chaahiyen nahi to gaanth padh jaati hai ...
संवेदन शील प्रस्तुति
खुशी गमी तकदीर की भोगे खुद किरदार
बुरे वक्त मे हो नही साथी रिश्तेदार
शुब्य्हकामनायें।
aankhen bhar gayeen.....
वक्त और मुसीबतों में अपनों का व्यवहार......
humen bhi andaza hai....kitna dukh detin hain....bhawbhini abhivyakti.
yeh apno ki bhasa thee.....
jai baba banaras............
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ,सच कहा आप ने जब एक बार दरार पड जाये रिश्तो मे तो कभी नही भरती
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