ये सारे संस्कार हमारी अपनी मान्यताओं के अनुरुप होते हैं और इस बात पर भी कि हम इनको कितना महत्व देते हैं. अब कुछ नए संस्कार भी जुड़ गए हैं जैसे बर्थडे , एनिवर्सरी जैसे कार्यक्रम. बड़े धूमधाम से मनाते हैं. अपनी हैसियत के अनुसार लोगों को भी बुलाते हैं. लेकिन पुराने संस्कारों के प्रति हमारा दृष्टिकोण पुरातन पंथी कह कर बदलता जा रहा है. उसको भी हम सुविधानुसार ढाल कर पूरा करने लगे हैं.
कल मैं अपने पति के एक मित्र के पिता की तेहरवी में गयी थी. तीन बेटे और तीनों बहुएँ एकदम आधुनिक लेकिन कुछ अवसर ऐसे होते हैं कि आधुनिकता हमें ये नहीं सिखाती है कि हम अपनी कुछ परम्पराओं को भूल कर चलें या तो हम कुछ भी नहीं करें. हम इस वैदिक रीति के कार्यक्रम को मानते ही नहीं है और होता भी है आर्यसमाज रीति से आप संस्कार कीजिये और उसकी विधि के अनुसार शांति हवन कीजिये. वह भी सर्वमान्य पद्धति है. लेकिन अगर वैदिक रीति से चले तो फिर उसके प्रत्येक नियम को कुछ हद तक तो पालन करना अनिवार्य है.
सुबह हवन होना था और पंडितों को खिलाना भी था. पंडित जी से पूछ कर सारा समान पैकेट बना कर उनको सौप दिया गया कि आप ब्राह्मण खोज कर उनको दे दें. सारी चीजों के पैकेट थे साथ ही खाने के पैकेट भी थे. कुछ काम घर में बहुओं के द्वारा भी किये जाते हैं तो वह कौन करे? खुद खाना घर में तो बनाती नहीं है तो यहाँ पूरियां कौन तलेगा? बड़ी ने छोटी से कहा और छोटी ने और छोटी से . फिर छोटी ने एप्रन पहना और डरते डरते गैस तक गयीं सिर्फ ७-८ पूरियां ताली . बस हो गया भाभी जी.
हम काफी अंतरंगता रखते हैं तो वहाँ हम दिन भर थे. शाम को जिन्हें कार्ड दिया गया था तो लोग आने शुरू हो गए. दोपहर में ही मुझसे पूछा गया कि इतने लोगों को कार्ड दिया गया है तो किस हिसाब से हलवाई को आर्डर दें कि क्या चीज कितनी होनी चाहिए?फिर सोचा गया कि अलग अलग चीजों के आने से झंझट बढेगा और फिर थाली कटोरी का भी काम बढ़ जाएगा. फिर पैक्ड थालियों का व्यक्तियों के हिसाब से आर्डर कर दिया गया. पैक्ड थालियाँ आ गयी और जैसे जैसे लोग आते जा रहे थे. मेजों पर थालियाँ रख दी जाती और लोग खाकर चलते जा रहे थे. हम भी उनमें से एक थे और खा पीकर हम भी घर आ गए. रात में देर तक नीद नहीं आई कि क्या इस तरह से भी होने लगा है. क्या सिर्फ एक संस्कार हम पूरी श्रद्धा से और नियमानुसार नहीं कर सकते हैं. पुरुष वर्ग शायद ऐसा करता भी लेकिन स्त्रियाँ जब कुछ करने के लिए राजी ही नहीं तो वे क्या करें? उनके लिए बर्थडे पार्टी और तेरहवी बराबर हो गयी . बाहर से आर्डर कर दिया और खुद तैयार होकर होस्ट बनी सबको अटैंड कर रहीं है. वही यहाँ था, सारी बहुएँ तैयार पूरे मेकअप में बाबूजी के गुणगान कर रही थी. और कुछ हम जैसी दकियानूसी महिलायें इस संस्कार की परंपरागत तरीके पर रो रही थीं.
50 टिप्पणियां:
ये तेहरवी बाहरवीं की रूड़ीवादी परम्पराएँ छोड़ने या बदने का समय आ गया है...अब परिवार छिन्न-भिन्न हो गए हैं...इकाइयों में बंट गए हैं...पारिवारिक सौहाद्र नहीं रहा...आत्मीयता नहीं रही...इसीलिए ये परम्पराएं अब बदलाव मांगती हैं...
किसी की मृत्यु से असर सिर्फ उस पर निर्भर लोगों को ही अधिक होता है...बाकियों को अपेक्षाकृत कम...फिर मृत्यु पर ये दिखावा क्यूँ? जब कोई दिल से किसी के जाने से दुखी होगा तभी वो सब कुछ करेगा जिसकी उस से अपेक्षा की जाती है वर्ना वो सिर्फ दिखावे के लिए करेगा.
नीरज
बेहद गंभीर विषय है, मुझे तो पढ़ते पढ़ते ये लगा की आगे आप लिखेंगी की बहुओं ने कहा होटल पर जा कर ही कर देते हैं ये भोज. गनीमत है यहाँ तक नहीं पहुंची ये बात और इसके आलावा क्या कहूँ
सब कुछ शोर्ट कट हो गया है. मृत्यु के बाद के संस्कारों के लिए पंडित को ठेका दे दिया जाता है. पूरी व्यवस्थाएं वही करता है.
यस सब देख कर, सुनकर बहुत दुख होता है। हम एक-एक कर अपनी परंपराएं, अपने संस्कार, अपनी मान्यताओं को तिलांजलि दे रहे हैं। मुझे तो लगता है कि यह हमारे विरुद्ध कोई साजिश है ताकि पाश्चात्य संस्कृति अब दूसरे तरह से हम पर हावी हो जाए।
अब वो दिन दूर नहीं, जो बीते दिनों एक हास्य कविता थी कि स्टोव के गिर्द रिवाल्विन्ग चेयर पर बैठ सात फेरे लग जाने से शादी संपन्न हो गई थी। और होली दीवाली में पिचकारी और रंग का एस एम एस भेज कर, पटाखों का शोर भेज कर लोग इतिश्री कर लेगे।
दुनिया मे बदलाव ऐसे ही आते हैं और आजकल सभी बदल रहा है तो ये भी बदलेगा फिर चाहे आज या कुछ वक्त बाद ही सही। वैसे भी वो स्वरूप तो रहा नही जो पहले था रिवाज़ो का उनमे भी बदलाव आया ही समय के साथ तो आज भी आ रहा है और आगे भी आयेगा और हमे ये सब स्वीकार करना पडेगा।
मैं सारे संस्कारों की बात नहीं करता। पर तेहरवीं को लेकर तो वैसे भी सवाल उठते रहे हैं। अव्वल तो तेहरवीं करने पर ही चर्चा करनी चाहिए। और आपने जिस घटना का जिक्र किया है उस तरह से इस संस्कार को करने से इस बात को और ज्यादा बल मिलता है कि इसे किया ही नहीं जाना चाहिए।
मैं कब कहती हूँ कि इनको अपनाया जाय, लेकिन ढोंग न किया जाय. मृत आत्मा कुछ देखने नहीं आती लेकिन ये समाज और परिवार कुछ ऐसे ढोंग रचता है कि लोग परेशान हो जाते हैं. आत्मा कि शांति के लिए एक शांति हवन पर्याप्त है. पंडितों और लोगों को खिलाने से अच्छा है कि वो खाना अनाथालय में भेज दिया जाय. गरीबों की बस्ती में बंटवा दिया जाय. मृत आत्मा को अधिक शांति मिलेगी.
मनोज जी,
आपका सोचना बिल्कुल सही है, ये साजिश किसी की नहीं है बल्कि हमारी अपनी सोच का ही दोष है. हम अपने बचपन से ये तो नहीं देखते आ रहे हैं फिर क्यों हम सब छोड़ कर पाश्चात्य मूल्यों को अधिक सुगम समझ कर अपनाने की सोच रहे हैं. अब संस्कृति का विकृत रूप भी तो देख रहे हैं. उन्मुक्त जीवन का चलन कहाँ से आया है? जिसकी कोई नींव ही नहीं है. फिर होली और दिवाली के लिए आभासी वस्तुएं क्यों न मान्य हो? हम आभासी होकर ही तो जी रहे हैं.पता नहीं आगे क्या क्या बदलने वाला है?
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यथासंभव रीति-रिवाज निभाने चाहियें।
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प्रश्न केवल सोलह संस्कारों का न होकर दैनिक जीवन में व्यवहार का भी है। मन जिसे सहजता से न स्वीकारे वह कार्य निरर्थक है, मन का विरोध ऋणात्मक उर्जा देता है ऐसे में मन के विरुद्ध कुछ करना उचित नहीं। लेकिन यहॉं यह बात भी उतनी ही सही है कि अगर मन कुछ कहता है तो उसे करने में अन्य विपरीत भाव मन में नहीं लाना चाहिये।
इस बदलते परिवेश में हम अपनी सुविधा पहले देखने लगे है और रीति रिवाजो को गौड़ मानने लगे है. मेरा सोचना है की अगर मानना है रिवाजो को दिल से मानो नहीं तो दिखावा करने के लिए तो कभी नहीं .
कुछ संस्कार आज के सन्दर्भ में वाकई ढोंग हैं. उनका निर्वहन औचित्यहीन ही नहीं अप्रासंगिक हैं. ऐसे परम्पराओं और संस्कारों से विलग होना / परिवर्तन करना ही चाहिये
इस तरह के गंभीर अवसरों पर संस्कारों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
बड़े शहरों में पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण के कारण पारिवारिक मर्यादाएं एवं जीवन मूल्य छिन्न-भिन्न होते दिखाई दे रहे हैं।
सही कहा रेखा जी,
जो संस्कार जीवन-मूल्यों के उत्थान और जीवन के प्रति अहोभाव बढाने के लिये मंडित हुए थे, अन्ततः ढोंग में बदल कर रह गये।
मै परम्पराओ के खिलाफ तो नहीं हु पर जहा तक सवाल मृत्यु के बाद होने वाले संस्कारो की बात है उसमे आडम्बर ज्यादा है जैसे पंडितो को खिलाना पिलाना दान दक्षिणा देना और सारे रिश्तेदारों को भोज करना | सोचिये की किसी घर के कमाने वाले या किसी जवान सदस्य की मृत्यु हो जाये तो ऐसे समय में ये सब करना उन पर आर्थिक बोझ डालेगा और किसी की मृत्यु पर भोज देना सच में मुझे समझ नहीं आता है | मुझे तो वो ज्यादा सही लगता है जो आप ने बाद में कहा है की हमें गरोब अनाथो को अपने सामर्थ्य और इच्छा अनुसार भोजन करना चाहिए शायद वो सच्चे दिल से मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करेंगे | वैसे एक समस्या ये भी है की किसी बड़े के घर पर ना होने से लोगो को कई बार पता ही नहीं होता की करना क्या है ये तो मै कई जगह देख चुकी हु कई मौको पर |
ये दकियानूसी खयाल नहीं हैं दीदी. मृतात्मा से कम से कम इतना लगाव तो होना ही चाहिये, कि उसके नाम पर किये जाने वाले इस अन्तिम कार्य को विधि विधान से किया जाये.
वक्त के साथ बदलाव तो होता है ..पर बदलाव ही करना है तो पूरी तरह से करो ...दिखावा भी करना चाहते हो और काम करने के लिए तैयार भी नहीं हो ...यदि मन में श्रद्धा नहीं है तो कुछ भी करना ढोंग है ...आज कल तो १३ दिन तक घर में शोक मनाना भी मुश्किल हो जाता है क्यों कि किसी के पास वक्त नहीं है ....
रेखाजी आपके हर शब्द से सहमत हूँ.....आज रीति रिवाजों को ना निभाने के हज़ार बहाने मिल जायेंगें आपको....
जहाँ तक घर की बहुओं की बात है कोई अपने शरीर चलाना ही नहीं चाहता..... यानि कुछ काम नहीं करना है.... कोई जिम्मेदारी ना पड़े सर पर बस.... और फिर इस तरह का माहौल देने के बाद हम उम्मीद करते हैं की बच्चे हमारे संस्कार सीखें उन्हें आगे ले जाएँ..... सच आपके विचार बिल्कुल अपने से लगे..... एकदम हकीकत बयां की है आपने....
रेखा जी, आज दिलों मैं किसी काम को करने का ख़ुलूस नहीं रह गया. सब बस दिखावा मात्र बने के रह गया है. क्या पुरुष क्या स्त्रियाँ सब एक सामान हैं. पैसा बढ़ता जा रहा है ख़ुलूस ख़त्म होता जा रहा है.एक ऐसा विषय है जिसपे बहुत कुछ कहा जा सकता है..
मन में प्रेम और श्रद्धा नहीं हो तो किसी भी परंपरा का पालन व्यर्थ है , कोई भी संस्कार क्यूँ किया जाए ...जन्मदिन भी क्यों मनाया जाए ?
सच्चाई को अभिव्यक्त किया है आपने ...सार्थक पोस्ट
अब सिर्फ दिखावा रह गया है सब कुछ !
परिवार में मृत्यु होने पर वैसे भी परिवार की महिलाएं तेरहवीं का खाना नहीं बनाती हैं। उसके लिए हलवाई की व्यवस्था ही रहती है। पेक्ड थाली की व्यवस्था करके हम केवल आधुनिक होने का दिखावा करते हैं। किसी को आप भोजन के लिए घर पर बुलाएं और होटल से मंगाकर पेक्ड थाली रख दें तो कैसा लगेगा? यह सारे ही क्रियाकर्म प्रेम और श्रद्धा के लिए बने हैं जिससे हम परिवार से बंधे रहें। लेकिन आज व्यक्ति एकलवाद का शिकार हो गया है इसलिए प्रेम और श्रद्धा तिरोहित होती जा रही है। भारत में ऐसे परिवार आज भी बहुत ही कम हैं, अधिकतर वे परिवार हैं जो बहुत ही श्रद्धा पूर्वक क्रियाकर्म करते हैं।
आप तो रिवाजों की बात कर रहीं हैं, कहीं-कहीं तो खाना बना कर देने में ही रोना-पीटना मच जाता है... यहाँ तक की परम्परागत खाना भी नहीं बनाते बनता...
पहले में भी इन रिवाजों को गलत और दकियानुकूसी समझती थी, पर एक बार मुझे नानी न सभी की महत्वता के बारे में समझाया था, तबसे मैं इन्हें गलत नहीं मानती...
मै भाई तिलक राज कपूर्र जी की बात से सहमत हूँ। प्रशन केवल आस्था का है लेकिन हम आस्था से अधिक दिखावा करने लगे हैं वहीं पर गलत हो जाते हैं। धन्यवाद।
एक नवीन व्यवस्थ की आवश्यकता या रैडिकल चेंज की जरूरत है समाज में ..........
इसी चर्चा को आगे बढाती पोस्ट
कुछ करने का समय ............
आप कानपुर में है प्रसन्नता हुई ..
तेरही में पूरी शुचिता के साथ दो ब्राह्मणों के लिए घर की बहू खाना बनाती है और जितने भी सगे सम्बन्धी या मित्रवत लोग होते है उनके लिए तो हलवाई ही बनाते है |हमारे यहाँ तो अभी भी श्रद्धा से बहुए खाना बनाती है अगर सगी न भी होतो कुटुंब की कोई भी बहू बनाती है |जहाँ अपना समाज होता है वहां तो ये परम्पराए प्रेम से निभाई जाती है और समाज से दूर रहने पर भी दुसरे समाज के लोगो की कई विधिया व्ही के रहने वाले वालो के अनुसार कर ली जाती है
कहने का तात्पर्य है की के lजहाँ भी हो मृतात्मा को अपने संस्कारो के द्वारा श्रद्धांजली देना ही हमारे हिन्दू संस्कार है |फूल न हो फूल की पत्ती तो अर्पित की जा सकती है |
वर्मा जी,
जो मन न माने वो मान्यता कैसी? हमारे मृत परिजन ये कहने या देखने नहीं आते कि आपने क्या ? कोई भी औपचारिकता मजबूरी नहीं है इसलिए जो निरर्थक लगे उसे त्याग दीजिये. अब तो माँ बाप भी निरर्थक ही लगने लगे हैं और हम उनको भी त्याग कर वृद्धाश्रम में भेजने में गुरेज नहीं करते हैं. या फिर घर आते हैं तो घर पत्नी के स्तर का न लगे तो होटल में रुक जाते हैं और माँ बाप से मिलने चले आते हैं बगैर ये सोचे कि अपना बचपन इसी आँगन में गुजरा है.
अंशुमाला जी,
मैं आपसे बिल्कुल सहमत हूँ, अगर आर्थिक दृष्टि से घर वाले कमजोर हैं तो आप एक शांति हवन करवा कर मृत आत्मा कि शांति के लिए पूजा करवा सकते हैं. उसमें ब्राह्मणों का कोई चक्कर नहीं और न ही रिश्तेदरों के भोजन का . सबको प्रसाद दीजिये और विदाकरिये.
रिश्तेदारों कि मत कहिये. अभी सिर्फ एक महीने पहले कि बात है मेरी चाची का निधन हो हुआ. कुछ ऐसी स्थिति कि वे रिटार्ड थी और चाचा भी बीमार है. आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी न थी क्योंकि करीब हजारों में रुपये दवा में खर्च हो रहे हैं. उनकी तेरहवीं के अवसर पर सभी को बुलाया गया. जब चलने लगे तो उनकी बेटी मेरी माँ से बोली कि 'ताई हम सबकी विदाई करवाइए.' माँ ने कहा कि हमारे यहाँ ऐसे काम में विदाई नहीं की जाती.' तो उनका कहना था कि हमारे यहाँ तो ससुराल में होती है. ' तब माँ ने कहा चाची के बेटे से कहा कि अच्छा सबको ११ रुपये देकर विदा कर दो. वो एकदम लड़ने लगी कि ' हम अपनी ससुराल में जाकर क्या दिखायेंगे कि ये ११ रुपये मिले हैं. ' मैंने अपना सिर पीट लिया कि ये लड़की जानती है कि मेरे भाई और माँ कितना परेशान थे और ये विदाई के लिए लड़ रही हैं जैसे कि शादी के बाद उनको ससुराल में जाकर दिखाना होगा कि ये मिला है.
वंदना, संगीता,
ये मैं भी मानती हूँ, लेकिन अगर अपने परिजनों से हमारा लगाव ही नहीं है तो फिर ढोंग ही तो हुआ न. जीते जी वे अलग रहें और मरने पर इस तरह से काम किया जाए तो क्या कहा जायेगा? वक्त नहीं तो उस तरह से शांति हवन का विकल्प है आपके पास और वह भी पूर्ण रूप से धार्मिक कृत्य है. कोई बंधन नहीं.
अजित जी, शोभना जी,
आप दोनों से ही सहमत हूँ, अभी अधिकतर परिवार इन मान्यताओं से जुड़े हैं कम से कम हमारी पीढ़ी तो जुड़ी ही है. समय कम है या अधिक ये बात अलग है. माँ बाप की मृत्यु पर सरकारी नौकरी में भी १३ दिन का अवकाश मिलता है. अजित जी, तेरहवी का खाना तो हलवाई ही बनाता है लेकिन घर की कुछ पूजा के लिए और शुद्धि के बाद घर की रसोई में कुछ पकाने के लिए घर की बहुएँ ही ये काम करती हैं. वो भीभारी पड़ता है. शायद पढ़ कर और लिख कर कष्ट भी होता है. अभी कुछ दिन पहले मैंने एक कहानी लिखी थी "वसीयत" जो सत्य थी. उन मामाजी की तेरहवीं में उनकी बहुएँ पूरे मेकअप में पर्स लटकाए शौपिंग के लिए जा रही थी और रिश्तेदार आकर बैठे हुए थे. किसी से कोई मतलब नहीं . हलवाई खाना बना रहा था और खाने वाले खा रहे थे.
rekha ji
aaj ke badlte parivesh ka shat-pratishat sahi chitran bakhubi prastut kiya hai aapne.main bhi rachna dixhit ji ki baat se sahmat hun.
ek bar punah dhanyvaad.
poonam
यह इतनी आसान बात नहीं, बहुत ही गंभीर मुद्दा है यह, सब के पास समय की कमी है, और उसी हिसाब से लोग काम कर रहे हैं ....।
@ सिस्टर रेखा ! अच्छा लगा आपके स्पष्ट विचार जानकर और राजेश उत्साही जी की टिप्पणी पढ़कर । उनके जवाब में आपकी टिप्पणियां सटीक और सशक्त हैं ।
मेरा विचार है कि तेरहवीं और श्राद्ध आदि के रूप को आज हम बदलते देख ही रहे हैं । यह पहले भी बदलते हुए वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ था ।
जब इसका आरंभ हुआ होगा तब जरूर यह सादा और सार्थक रहा होगा , इस्लामी शोक विधान की भांति ।
सभी टिप्पणीकारों द्वारा पोस्ट के विषय पर ही टिप्पणी देना प्रशंसनीय है , दुर्लभ है ।
सदा जी,
समय की कमी होना और बात है और फिर हमें उसी तरह से काम कर लेना चाहिए. हिन्दू धर्म में सारे विधान है. लम्बे और झंझट वाले संस्कारों के लिए बाध्यता नहीं है. लेकिन अगर करें तो उनको पूरे मन से करें. समाज को दिखाने के लिए या लीक पीटने के लिए नकरें.
अनवर भाई,
ये संस्कार अगर हम जन्म और मृत्यु को मानते हैं तो इन्हें भी मानते हैं. कर्मकांड के विरुद्ध भी कुछ लोगों ने दूसरे रास्ते सुझाये हैं जो आसन और कम झंझट वाले हैं. पूरी श्रद्धा और सम्मान से उन्हें कीजिये. कोई बंधन नहीं है. इसलाम में भी चालीसवा होता है वह हमारे इसी कर्म के तरह से होता है. मेरा काफी मुस्लिम परिवारों से सम्बन्ध है और आपके काफी संस्कारों से मैं वाकिफहूँ.
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बहुत सही कहा आपने...
बर्थ दे और श्राद्ध डे मानाने में अंतर बहुत तेजी से घटता जा रहा है...
समय दूर नहीं कि बाज़ार यह भी बताएगा कि श्राद्ध डे को किस रंग का और किस ब्रांड का कपडा पर्स और फुटवेयर यूज करना चाहिए..
पर्व में पर्व तो बस एक ही रह जायेगा कुछ वर्षों में ,जिसे लोग पूरी श्रद्धा और धूम धाम से मनाएंगे ,वह पर्व होगा "वेलेंटाइन महोत्सव"
रंजना जी,
इस सच को भी तो लोग पचा नहीं पाते हैं. पार्टी में, शादियों में तो "ड्रेस कोड" शुरू हो चुका है. इसमें भी हो जाये तो कोई बड़ी बात नहीं है. आपकी बात गलत भी नहीं लग रही है. बर्थ डे पार्टी में हजारों खर्च कर सकते हैं लेकिन संस्कारों में लगता है कि फिजूल का खर्च है. वही हाल तो मैरिज एनिवर्सरी का भी है लोग कितने बड़े बड़े होटलों में पार्टी देते हैं लेकिन कभी अपने बुजुर्गों की याद में किसी ने श्राद्ध इतने धूम धाम से किया होगा. ये उनके लिए है जो कि अपने सारे कार्यक्रम होटलों और आर्डर पर ही करते हैं. माता पिता तो होंगे ही उनके भी.
रेखा जी, आपकी इस यथार्थपरक पोस्ट को पढकर मुरीद हो गये हम आपके। आशा है आपकी यह सोच समाज में बदलाव की सूत्रधारक बनेगी।
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वह खूबसूरत चुड़ैल।
क्या आप सच्चे देशभक्त हैं?
रजनीश भाई,
धन्यवाद !
6.5/10
संस्कृति और परंपरा से जुडी आवश्यक पोस्ट.
पाश्चात्य संस्कृति इस कदर हावी हो गयी है कि हम आधा तीतर - आधा बटेर होकर रह गए.
आपने एकदम सही कहा है - "आत्मा कि शांति के लिए एक शांति हवन पर्याप्त है. पंडितों और लोगों को खिलाने से अच्छा है कि वो खाना अनाथालय में भेज दिया जाय. गरीबों की बस्ती में बंटवा दिया जाय"
@ सिस्टर रेखा ! इस्लाम में मृतक के लिए शोक की अवधि केवल तीन दिन है । इस्लाम में चालीसवां नहीं है । हाँ कुछ भारतीय मुसलमानों में चालीसवें की रस्म पाई जाती है लेकिन इस्लामी स्रोत में इसका कोई आधार नहीं है बल्कि यह क्षेत्रीय संस्कृति का प्रभाव है । मुस्लिम परिवार के संपर्क से आपने मुस्लिम कल्चर को जाना है और गलती से उसे इस्लामी कल्चर समझ बैठी हैं , कृप्या ध्यान दें ।
अनवर भाई ,
आपका कहना सही होगा क्योंकि मेरा इस बारे में ज्ञान उतना ही है जितना की मैं देख रही हूँ. इस्लाम की गहराई में जाने का अवसर नहीं मिला. जो मुझे दिखलाई दिया वही मैंने समझा है. ये जानकारी मिली तो सही बातपता चली है. जानकारी के लिए धन्यवाद
रेखा जी आपके बच्चे आपके बजाय गाय और गरीब की सेवा करे और आपको छोड़ दे तो कैसा रहेगा जो पहले नियम बने है वह मूर्खो ने नही बनाया है
रेखा जी आपके बच्चे आपके बजाय गाय और गरीब की सेवा करे और आपको छोड़ दे तो कैसा रहेगा जो पहले नियम बने है वह मूर्खो ने नही बनाया है
रेखा जी प्रणाम!
पति के साथ कल ही अपने ससुर जी की तेरहवीं करा कर आई हूं। बहुओं की बड़ी चर्चा की गई है ऊपर, मैं भी आधुनिक बहू हूं परन्तु रस्में पूरी तरह निभाई मैंने। पति साफ्टवेयर इंजीनियर हैं, उनके लिए १५ दिनों की छुट्टी आसान बात नहीं थी,पर करनी पड़ी क्योंकि लोगों का यह कहना था कि अगर तुम्हारे पास समय नहीं है तो हम (चाचा लोग) गांव जा कर कर लेंगे। पति और जेठ ३ दिन वाली रस्में करना चाहते थे जो कि पूरे मन व श्रद्धा से करते।पर सबके दबाव में आकर १३ दिन का कार्यक्रम तय हुआ।इन १३ दिनों में चूंकि पति ने अन्तिम संस्कार किया था उनको अछूत माना गया उनका कमरा,बिस्तर,बर्तन चूल्हा, खाने पीने का सामान सब कुछ अलग कर दिया गया। सुबह शाम नदी के गन्दे पानी में स्नान करना पड़ा और साबुन लगाने की भी मनाही थी (इन सबसे वह मानसिक रूप से बहुत परेशान थे)। औरतों को भी घर के बाहर नहाना था बिना साबुन,बाल नहीं झाड़ सकते तेल नहीं लगा सकते कुछ सिल नहीं सकते। यहां तक कि किसी चीज़ की चाभी भी सास नीचे फेंक कर देती थी, कमरे से हो कर बाथरूम जाते थे तो उसमें भी बोलतीं थीं कि सब छू कर चले गए। इतनी सारी पाबंदियां यदि आप किसी पर लगा देंगे तो क्या वह पूरे मन से कोई काम कर सकता है? फिर बच्चों को दोष दिया जाता है कि इन लोगों को अलग रहने की आराम वाला जीवन जीने की आदत हो गई है ज़रा सी मेहनत नहीं करना चाहते।
किसी ने यह समझने की कोशिश नहीं की कि वह व्यक्ति जो अचानक से अपना काम काज अधूरा छोड़ कर आया है वह किस मानसिक स्थिति से गुजर रहा है। मां भी यही कोसती रहीं कि जबरदस्ती कर रहे हैं। ये करना चाहिए ये नहीं करना चाहिए करते करते तेरहवीं का दिन भी आ गया उस दिन भी पंडितों द्वारा बहुत सारी रस्में करवाई गई, कुछ पंडित आपस में भिड़ जाते इसको ऐसे नहीं ऐसे करवाइए, पति का संयम टूट रहा था, यहां तक कि जहां पूजा कराई वहीं सबके सामने पूजा में पहने गए वस्त्र भी उतरवाए, पति ने बोला भी कि अन्दर जा कर उतार लूं पर नहीं, यही उतारने हैं। आखिर पति का संयम टूट गया और उन्होंने जम कर हंगामा किया और उसी वक्त मुझसे सामान पैक करने को बोला,सबने बहुत समझाया बहुत रोका पर वो न माने, बोला तेरहवीं का काम तो हो गया न अब मुझे जाना है।
आने के बाद भी वो बहुत परेशान हैं।
मेरा पूछना यह है कि यह सारे आडम्बर करके क्या मृत आत्मा को शांति मिल गई होगी, क्या यदि शान्ति ३ दिन के कार्यक्रम करा कर की गई होती और पूरे मन से तो क्या ज्यादा अच्छा न होता। इस पर भी सब उन्ही से नाराज़ हैं।
माफी चाहती हूं अपनी पूरी कहानी सुनाने के लिए पर जब से वापस आई हूं समझ नहीं आ रहा कि क्या जो सबके दबाव में आकर किया ,आखिरी दिन बवाल करके वापस आना सही हुआ या फिर किसी की बात न मान कर अपनी मर्जी से काम करके सच्चे मन से उनको विदाई दे कर आते।
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