जीवन में मूल्य और सिद्धांतों की बलि चढ़ा मेरा करियर में एक महत्वपूर्ण घटना यह भी है , मुझे इससे कोई शिकायत नहीं है लेकिन ये आज भी मुझे कसक दे जाती है तो सोचा आप सबसे बाँट लूं.
मैं उस समय एक डिग्री कॉलेज में राजनीति शास्त्र विभाग में मानदेय पर प्रवक्ता पद पर कार्य कर रही थी. शायद विभाग में सबसे अधिक डिग्री मेरे पास ही थीं लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था. क्योंकि मानदेय प्रवक्ता किस दृष्टि से देखे जाते हैं ये इसके मुक्तभोगी अधिक अच्छी तरह से बता सकते है. मेरे विभागाध्यक्ष ने कहा कि मैं इस साल रिसर्च का पेपर लगवाना चाहता हूँ क्योंकि अभी तक इसको पढ़ाने वाला कोई नहीं था और आप रिसर्च पढ़ा सकती हैं. पेपर भी स्कोरिंग होता है रिजल्ट भी अच्छा रहेगा. मुझे रिसर्च में अधिक रूचि थी तो मैंने उनसे सहमति व्यक्त कर दी. जब कि मुझे मालूम था कि इस पेपर को लेने वाले बच्चों को पढ़ाई से लेकर उनके लघुशोध तक का काम मुझे ही अकेले देखना होगा . पर मेरा अपने काम के प्रति समर्पण कभी भी कम नहीं रहा. मैंने जो भी काम किया पूरी लगन और रूचि से ही किया.
करीब २० बच्चों ने रिसर्च का पेपर लिया और उन सबको मैंने उनके लघुशोध के लिए पूरा पूरा सहयोग किया. उनको उनके काम के लिए अगर कहीं और लेकर जाना पड़ा तो मैं बराबर उनके साथ जाकर काम करवाने का प्रयास किया. ऐसा नहीं है कि मेरे इस सहयोग और प्रयास के लिए मेरे छात्र आज भी अगर कहीं मिल जाते हैं तो पूरा सम्मान देते हैं. बात उनके लघुशोध के वायवा की है. परीक्षक ने छात्रों के प्रयास को काफी सराहा. उस समय विभाग के सभी शिक्षकों के अतिरिक्त एक अन्य विभाग के प्रवक्ता जो कि मेरे विभाग के एक प्रवक्ता के मित्र थे वह भी उपस्थित थे. उन्होंने वे लघुशोध उठा कर देखे उनमें पर्यवेक्षक के स्थान पर सभी में मेरा ही नाम था. ये बात उनको कुछ ठीक नहीं लगी. इससे पहले हमारे विभाग के किसी भी शिक्षक को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं लगी क्योंकि सभी को कार्य मैंने ही करवाया था.
परीक्षक के जाने के बाद उन प्रवक्ता महोदय ने अपने मित्र को सुझाव दिया कि ये तो मानदेय पर हैं इस शोध कार्य से इनको कोई लाभ नहीं मिलेगा लेकिन अगर इन सभी शोधों पर आप लोगों के नाम पड़ जाएँ तो ये कार्य आगे आपके वेतनमान के लिए और शोध की दिशा में लाभकारी सिद्ध होगा. फिर क्या था. रातों रात विश्वविद्यालय जाने वाली प्रतियों पर कवर बदले गए और उन पर वहाँ पर स्थायी रूप से काम करने वाले लोगों के नाम डाल दिए गए. ये काम मेरे सामने जब आया तो कहा गया कि विश्वविद्यालय में मानदेय प्रवक्ताओं के शोध मान्य नहीं होंगे. इसके आगे मैं कुछ कह नहीं सकती थी वैसे मुझे वास्तविकता का ज्ञान तो था ही. कॉलेज में रखी गयीं प्रतियों पर आज भी मेरा ही नाम पड़ा हुआ है क्योंकि अगर ये बात छात्रों को पता लग जाती तो शायद बहुत बड़ा बवाल हो सकता था. इस लिए कॉलेज की प्रतियों को जैसे के तैसे ही रहने दिया गया.
ये बात छोटी थी या फिर बड़ी मैं नहीं जानती लेकिन मेरे सिद्धांतों के खिलाफ थी सो मैंने वह कॉलेज छोड़ दिया. फिर भी कॉलेज की इस राजनीति से मेरा मन बहुत दुखी हुआ. क्यों छात्र शिक्षकों के प्रति सम्मान का दृष्टिकोण नहीं रखते हैं शायद ऐसी ही कोई बात उनके सामने भी आ जाती होगी और अपने गुरु के इस तरह से नैतिक रूप से गिरा हुआ देख कर वे सम्मान भी नहीं कर पाते हैं. हम दोष छात्रों को देते हैं.
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
23 टिप्पणियां:
कई बार ऐसी परिस्थितयां हो जाती है ...
सही प्रश्न उठाया आपने कि सिर्फ बच्चों को ही दोष क्यूँ दिया जाए !
रेखा जी ये राजनीती और मानसिकता हर जगह है कोई विरला ही होगा जी इस तरह की चीजों से न गुजरा हो.
उच्च शिक्षा में आजकल ऐसे बहुत सारे वाकये देखने और सुनने को मिलते है .अपने देश में शोध का स्तर इसीलिए गिर रहा है क्योकि हर शोधार्थी को केवल एक डिग्री चाहिए जो उनके कैरियर में आगे बढ़ने के काम आ सके . मै तो एक ऐसे शख्स को जानता हूँ जो पैसे लेकर शोध की डिग्री दिलवाने का ठेका लेता है . कोढ़ है ऐसे लोग देश और समाज के लिए . अब ऐसे गुरुजन होगे तो क्या खाक सम्मान होगा उनके लिए शिष्यों के मन में अब तो ये भी सुना गया है की लोग शोध प्रबंधो की नक़ल करके डॉक्टर साब बन जाते .है . अच्छा हुआ आप उस कीचड से निकल गयी . अच्छी प्रविष्टि .
रेखा जी, ऐसा होना आम बात है। लेकिन आपका मुद्दा यह है कि छात्र आपकी कितनी इज्जत करते हैं? मैं जब कॉलेज में थी, तब मैंने ऐसे ऐसे छात्र देखे हैं जो प्रिंसिपल तक को गाली-गलोज करते थे लेकिन मेरे सामने क्या मजाल चूं भी कर ले। इसलिए आपका चरित्र ही आपको सम्मान दिलाता है। आज गुरुओं में ही चरित्र नहीं है तो छात्र सम्मान कहाँ से देंगे।
aisa bhi nahi...aisa hi adhik hota hai
क्षमा करें रेखा जी मैंने तो यही सुना है कि 80 प्रतिशत पीएचडी होल्डर इसी तरह से बनते हैं। शोध कोई और करता है नाम किसी और का होता है। शायद यही कारण है कि हमारी उच्चशिक्षा का यह हाल है।
बात तो आपकी सही है और इसे वो ही समझ सकता है जो इन हालात से गुजरा हो और आपका कदम भी सही था।
aavaj uthani chahiyae thee apnae prati huae anyaay kae virudh
आशीष और राजेश जी,
आपका सुना हुआ बिल्कुल सही है और मैं भी ऐसे लोगों को जानती हूँ और मेरे परिचितों में हैं लेकिन किसी के लिए कुछ कहना बेकार है. ये छात्रों के स्तर तक तो माँ लें लेकिन यदि ये शिक्षकों के स्तर तक चला जाता है तब ही शिक्षा व्यवसाय बन गयी है. यहाँ ज्ञान बँटा नहीं जाता बल्कि बेचा जाता है और अगर खरीदार के पास पैसे कम हुए तो गेट केबाहर .
अजित जी,
अपने सही कहा है, शिक्षकों को सम्मान मिलता है अपने आचरण और व्यवहार के कारण. मैंने भी ये अनुभव किया है. बल्कि सिर्फ शिक्षक को ही क्यों आप किसी भी क्षेत्र में रहें आपको सम्मान पाने के लिए कुछ गुण होने चाहिए. सम्मान ऐसी चीज है जिसको पैसों से नहीं खरीदा जा सकता है.
रचना ,
तुमने सही कहा, लेकिन विरोध करने के लिए भी आपके पास किसी का सपोर्ट होना चाहिए . फिर डिग्री कॉलेज में मानदेय शिक्षकों की गणना ऐसे होती है जैसे की किराये पर लिए हुए शिक्षक. उस समय मेरे सामने कुछ ऐसे हालत थेकि मुझे मानदेय पर ही करना पड़ा किन्तु उसको छोड़ने में मुझे जरा भी संकोच नहीं हुआ क्योंकि मैं अपना जमीर बेच कर तो कहीं भी समझौता नहीं कर सकती.
हर क्षेत्र के यही हाल हैं ....आज कल शिक्षा ने व्यवसाय का रूप ले लिया है ...मेहनत किसी कि और नाम किसी का ..इसी से अवसाद पैदा होता है ...रही सम्मान कि बात तो वह स्वयं का आचरण ही दिलाता है ....
आपकी बातों से सहमत. आपने अच्छा ही किया.
aaj to ye aam baat hee hai kaheeM bhee kisee bhee vibhaag me dekh lo| magar shiXaa ko is aam baat se Upar rakhaa jaanaa caahiye| shaayad aaj isee liye mehanatakash log peechhe hatane lage hai| aabhaar is baat ko ham se bantane ke liye.
सही कहा आपने... ऐसा कई जगह देखा जाता है... सभी आगे बढ़ने की होड़ में हैं, और इसी होड़ में अपने नैतिक मूल्यों को भूल जाते हैं...
यही यथार्थ है आज का।
आपका निर्णय सही था।
ये है आज का कड़वा सच....सच्चाई से काम करनालों को अगर उसका प्रतिदान मिल जाता तो इस दुनिया का ऐसा हाल ही क्यूँ होता
बहुत ही दुखद बात है, इस तरह की अनैतिकता समाज का हिस्सा बन गई हैं. शिक्षक वर्ग के ऊपर नई पौध को तैयार करने का ज़िम्मा होता है और अगर वह ही इस तरह का अनैतिक कार्य करें तो युवाओं के भविष्य का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. हम सब भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार चिल्लाते हैं, लेकिन किसी को भी अपने अन्दर तक समाया भ्रष्टाचार नज़र नहीं आता. अफ़सोस!
प्रेमरस.कॉम
koi nahi, jo hona tha ho chuka.........din bhi badle aur Rekha di aapki position bhi.......:)
waise aapse mil lun to hame bi lagta hai Phd ki ek degree mil hi jayegi..:D
बहुत सही कहा है.
अपने गुरु के इस तरह से नैतिक रूप से गिरा हुआ देख कर वे सम्मान भी नहीं कर पाते हैं. हम दोष छात्रों को देते हैं
रेखा जी कहाँ से दुखती रग पे हाथ रख दिया. आपकी ही की तरह भुक्त भोगी हूँ. आपकी मानो दशा समझ सकती हूँ. मेरा तो जी पी ऍफ़ का पैसा भी वहीँ है. मैंने भी जब समझौता करने की हदें पार हो गयी तो १४ साल पुरानी नौकरी बिना किसी को कुछ कहे छोड़ दी
रेखा जी,
नैतिक पतन का परिणाम है ये सब.बहुत लोग मन मसोस कर रह जाते हैं मगर कुछ कर नहीं पाते,परन्तु हर आदमी ऐसी तमाम घटनाओं का शिकार हुआ है और हो रहा है. मैं आपका दर्द समझ सकता हूँ.
really excellent..In fact, I feel you are absolutely right.
एक टिप्पणी भेजें