मेरी बहुत करीबी की बहू अपने विवाह के २ साल बाद ही विधवा हो गयी. उसके पास एक साल का बेटा भी था. सारे घर वालों और रिश्तेदारों में एक प्रश्न चिह्न था कि अब क्या होगा? इतनी सी उम्र में लड़की विधवा हो गयी वह माँ भी है. लेकिन मेरी उन रिश्तेदार ने बहुत ही बहादुरी से काम लिया, उन्होंने संस्कार के समय बहू को छोटी सी बिंदी और दो दो चूड़ियाँ दीं और कहा कि तुम मेरी बहू ही रहोगी. लेकिन उन्होंने अपने मन में बेटे के शव उठाने से पहले ही संकल्प कर लिया था कि वे अपनी बहू को छोटे बेटे से ब्याह कर इसी घर में रखेंगी और उसके बेटे को बाप का प्यार मिलेगा और बहू को जीवन भर एक अभिशप्त जीवन नहीं गुजरना पड़ेगा.
उस दिन उस स्थिति में पड़ोसी और रिश्तेदार कितने प्रश्नों के साथ वहाँ खुसर पुसर कर रहे थे --
'पता नहीं कैसी किस्मत है इस लड़की की?'
'अब इसका क्या होगा?'
'बच्चा ले जाएगी या फिर छोड़ जाएगी?'
'दूसरी शादी कौन करेगा? बच्चे वाली है.'
इन प्रश्नों से जुड़े लोग पढ़े लिखे और समझदार कहे जाने वाले थे. लेकिन वे उस माँ के निर्णय से वाकिफ न थे.
उन्होंने बहू को मायके भी नहीं भेजा और स्वयं भी बहू की तरह ही सादा रहने लगी, उन्होंने एक साल तक कोई शादी विवाह या अन्य उत्सव में जाना बंद रखा क्योंकि वह जानती थी कि कहीं भी जाने पर उनको कम से कम अच्छे कपड़े और जेवर तो पहने ही पड़ेंगे और इससे उनकी बहू को दुःख होगा. एक साल बीतने पर उन्होंने अपने बड़े बेटे की बरसी की और फिर आर्य समाज मंदिर में छोटे बेटे के साथ शादी कर दी.
इस शादी के बाद उनकी देवरानी ने अपने घर में पूजा रखी , जिसमें सुहागन औरतें ही शामिल होती हैं. उसमें अपनी जिठानी को भी बुलाया और बहू को भी, लेकिन पूजा में शामिल होने के वक्त अपनी जेठानी से बोली - "इसमें आप शामिल हो जाइये और बहू को रहने दीजिये."
उनका आशय यह था कि बहू तो विधवा हो चुकी है तो उनको अभी भी सधवा स्वीकार्य नहीं है. उनकी जेठानी एकदम उठ कर खड़ी हो गयी - "मैं क्यों और मेरी बहू क्यों नहीं? अगर बहू नहीं तो मैं भी नहीं. तुमने क्या इसका अपमान करने के लिए यहाँ बुलाया था. वह मेरे छोटे बेटे कि पत्नी है और आइन्दा से मुझे भी बुलाने की जरूरत नहीं है."
हम कहाँ से कहाँ पहुँच रहे हैं और हमारी सोच कहीं कहीं हमें कितना पिछड़ा हुआ साबित कर देती है? हमें अपने पर शर्म आने लगती है.
18 टिप्पणियां:
ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार कर देना चाहिए। सार्थक और विचारोत्तेजक पोस्ट।
समाज के कोढ़ है ऐसे लोग, जिसका एकमात्र विकल्प हो उनका सामाजिक बहिष्कार. सामाजिक बुराइयों पर चोट नितांत आवश्यकता है आज की .
रेखा जी बहुत ही अच्छी बात बताई आप ने, अपने इस लेख मै काश अगर सभी ऎसा सोचे तो... लेकिन यही समाज कभी कभी हमे अच्छा करने से रोकता हे, हमारे पडोसी का भी बेटा शादी के कुछ दिन बाद गुजर गया था, तो उन्होने बहू को एक साल बेटी की तरह रखा ओर फ़िर बेटी की तरह उ्स के लिये योग्या वर ढूंढ कर शादी कर दी,इस मै कोई बुराई भी नही, ओर हमे इन बातो के लिये बदलना होगा, धन्यवाद इस अति सुंदर संदेश के लिये.
विजयादशमी की बहुत बहुत बधाई
रेखा दी, आपकी पोस्ट केवल पुरातन्पंथी विचारधारा को प्रदर्शित नहीं कर रही बल्कि आज समाज में जो भी परिवर्तन हो रहे हैं उसे भी दर्शा रही है, जो उन लोगों के लिये एक संदेश है, जो आज भी पुरानी बीमार मान्यताओं को पोस रहे हैं.
सचमुच हमारे समाज में आज भी बहुत सी कुरीतियाँ हैं!
वाकई हम आज भी वहां हैं जहाँ ५० साल पहले थे .बल्कि मुझे तो कभी कभी लगता है उससे भी बत्तर हो गए हैं तब शायद इंसानियत तो रही होगी आज तो वो भी नहीं रही.
रेखा जी इस प्रेरणाप्रद घटना के विवरण के लिए साधुवाद । पर मेरा एक सवाल है इसमें आप उस वाकये को इतना महत्व क्यों दे रही हैं। महत्व तो उन दो बातों को देना चाहिए। पहली कि उस बहू को बहू का दर्जा मिला,पति भी और परिवार भी । दूसरी बात कि उसे ऐसी सास मिली जो उसका अपमान अपना अपमान समझती है।
ऐसी सास पर गर्व करना चाहिए और मृत व्यक्ति के छोटे भाई पर भी नाज होना चाहिए। ऐसी सास को मेरा प्रणाम, उनका ब्लोग बनवाइए ताकि और महिलाएं उनके विचारों से लाभ ले सकें। हमें बिल्कुल अपनी सी लग रही हैं वो।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
बेटी .......प्यारी सी धुन
उनका निर्णय उचित था और पहल तो हम जैसे समाज के लोगो को ही करनी होगी तभी जागृति आयेगी।
राजेश जी,
मैं दो मानसिकताओं को प्रस्तुत कर रही थी की हम अपने परिवार में भी इतने अच्छे निर्णय को सम्मान नहीं दे पाते हैं. इसमें टूल देने की कोई बात नहीं है.
अनीता,
वे मेरी ममेरी जिठानी थीं और मुझसे बहुत बड़ी भी थीं लेकिन मुझे अपने बहुत करीब पाती थी. उनके बहू के चुनाव से शादी , बेटे की मौत और दूसरी शादी के निर्णय तक मैं उनके साथ थी. कल उनकीपुण्यतिथि पर यह लिखने का मन हुआ और लिख दिया. उसके बाद जब तक वे रहीं बहुत ही सहृदय महिला के रूप में सम्मान पाया , लेकिन पिछले वर्ष अचानक हृदगति रुकने से हमें छोड़ कर चली गयीं.
बेहद जागरूकता को बढ़ावा देने वाली पोस्ट. सच एक ही घर में दो मानसिकता वाले लोग तो हो ही सकते हैं. पर समाज को चाहिए की नकारात्मक मानसिकता वाले लोगों का बहिष्कार करें पर प्रश्न ये है की कौन ये निर्धारित करेगा की कौन लोग सकारात्मक मानसिकता वाले हैं और कौन नकारात्मक.
वास्तविक जीवन की एक अनुकरणीय घटना का वृत्तांत आपने हम सबके समक्ष रखा, इसके लिए साधुवाद।
रेखा दी...जब मैने अपना "पति खो चुकी महिलाओं" की स्थिति के बारे में लिखा था...तो कई लोगों ने आपत्ति जताई थी कि "अब स्थिति बदल चुकी है"
यह घटना बतला देती है कि स्थिति कितनी बदली है??....लोग अपनी आँखें बंद करके रखना चाहते हैं...तो उसका कोई जबाब ही नहीं.
रूढियों के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाली इस दबंग महिला को मेरा नमन...हमें ऐसी ही सोच और होश वाली स्त्रियों की समाज में आवशयकता है...
बहुत प्रेरक प्रसंग दिया है पढ़ने को...शुक्रिया.
नीरज
रेखा जी! हमारे समाज में ऐसे कई उदाहरण हैं... और कुछ कहने वालों की तो बात ही दीगर है. असल बात है अपने अपनों का समर्थन और सहयोग!!
ये महिला महान हैं ...
अगर मुझे मिलें तो मैं उनका चरण स्पर्श अवश्य करना चाहूँगा हो सके तो मेरी यह इच्छा उन तक अवश्य पंहुचा दें !
सादर !
एक टिप्पणी भेजें