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मंगलवार, 24 अगस्त 2010

क़ानून और जिन्दगी !

           
कुछ हादसे ऐसे हो जाते हैं जो कि सोचने पर ही नहीं लिखने पर भी मजबूर कर देते हैं, वह भी जब कोई बहुत अपना हो.
                  घटना कल ही रात की है, रात १२ बजे हमारे मोबाइल की घंटी बजी - हम सो चुके थे - 'अंकल मेरा एक्सिडेंट हो गया है और मेरे दोस्त मुझे कुलवंती हॉस्पिटल  ले गए उन्होंने वापस कर दिया कि पुलिस केस है. पहले FIR   दर्ज करवाओ फिर आना. अब main रीजेंसी पहुंचा हूँ, बतलाइए मैं क्या करूँ?'
            मेरे पति ने उससे पूछा कि कोई ब्लीडिंग तो नहीं है, ब्लीडिंग नहीं थी उसको शायद fracture हुआ था लेकिन वह बहुत डरा हुआ था. मेरे पति ने कहा कि तुम घर आ जाओ, अगर वहाँ भी गए तो वे लोग तुमसे २-४ हजार रुपये ऐंठ लेंगे और कुछ भी नहीं करेंगे. मैं घर पर देख लूँगा. वह जब घर आया तो उसको काफी चोट थी. उसकी फर्स्ट ऐड करके दवा दे दी गयी और हम घर वापस आ गए.
                   इसके ठीक एक दिन पहले की बात है, एक विधवा परिचित का बेटा अपनी बहन को लेकर शहर में जा रहा था और किसी दूसरी बाइक ने गलत मोड़ लेकर उसको टक्कर मार दी. वह गाड़ी से घिसटता हुआ २ मीटर तक चला गया. उसके दोनों हाथ चेहरा और पैर बुरी तरह से जख्मी हो चुके थे और वह बाइक के नीचे दबा बेहोश हो गया. उसकी छोटी बहन ने बाइक उठा कर निकालने की कोशिश की लेकिन बेकार गयी उसकी कोशिश. उसके चारों ओर काफी भीड़ लग गयी थी. लेकिन कोई भी उस लड़की की सहायता करके उसे गाड़ी के नीचे से निकालने वाला नहीं था. . इतने में कोई दो लड़के वहाँ आये और उन्होंने बाइक हटा कर उसे बाहर निकला और सामने नर्सिंग होम ले गये कि इसकी पट्टी कर दो. लेकिन उन लोगों ने पट्टी करने से भी इंकार कर दिया कि ये पुलिस केस है उसको थाने में लेकर जाओ और FIR करवाओ तब करेंगे. और भी एक दो जगह गए पर सब ने इंकार कर दिया . लड़के की बेहोशी और बहता हुआ खून देख कर लग रहा था कि  अगर और देर हुई तो ये बच नहीं पायेगा. उन लड़कों ने कहा कि  हम अपने इलाके में ले जाकर पट्टी कराएँगे नहीं तो ये मर जाएगा.  उन दोनों ने भाई बहन को रिक्शे में बैठा कर अपने साथ ले गए और फिर उसकी मरहम पट्टी करवा कर उनके घर छोड़ गए.
                            क़ानून अपने स्थान पर सही है लेकिन ये कैसा कानून ki  मरते हुए की सहायता करने में भी परेशान किया जाय. कोई भी आदमी कोर्ट और थाने के चक्कर लगाना नहीं चाहता है. इंसानियत होते हुए भी कानून उससे हाथ बांध देता है. इतनी जिंदगियां सिर्फ इसी झंझट के कारण ख़त्म हो जाती हैं कि  कोई उनको हाथ नहीं लगाता. ऐसी स्थिति के लिए कानून को कुछ ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि कुछ ऐसे सचल ट्रौमा सेंटर और उनके साथ पुलिस हो जो FIR  दर्ज करे  और फिर उसको त्वरित मेडिकल सहायता उपलब्ध करवा सके . इन ट्रामा सेंटर के लिए कानून कुछ ढीले होने चाहिए. आदमी की  को सही ढंग से चलाने के लिए कानून है. कानून की बलि चढ़ने के लिए इंसानी जिन्दगी नहीं है. इसके साथ ही सभी नर्सिंग होम और अस्पतालों में घायलों की मरहम पट्टी के लिए कानून के दायरे में रखने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. अगर ऐसा है तो ये औपचारिकताएं उस महरम पट्टी के बाद की जा सकती हैं. 
                             एक तो अनियंत्रित वाहनों ने इंसां की जिन्दगी को खिलौना बना रखा है, पता नहीं कब किसका आखिरी क्षण किसी ट्रक या बस के नीचे आकर आ जाय, इस बात को घर से निकलने वाला खुद नहीं जानता है. और अगर उसके बचने की कोई उम्मीद भी हो तो कानून सबके हाथ बाँध देता है. इसके लिए कोई सार्थक हल निकालने की जरूरत है. ये एक सुझाव नहीं बल्कि कार्यरूप देने के लिए एक प्रस्ताव है और ये जितनी जल्दी कार्यान्वित हो उतनी जल्दी कुछ जिंदगियों के दिन बढ़ने लगेंगे.

18 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह प्रोसेस हमेशा परेशान करती रही है. मुझे लगता है कि एकसिडेन्ट के स्पेसिफिक केसेस के लिए डॉक्टरों या कप्पाऊन्डरों को एफ आई आर लिखने का अधिकार दे देना चाहिये एक फिक्स फार्मेट में, जिसे पुलिस केस का हिस्सा माना जाये. (पुलिस का सिपाही भी शिक्षा में इनसे कम ही होता है)

इस तरह कम से कम इलाज और भरती तो त्वरित हो जायेगी.

एक बार भारत सरकार को यह सलाह भेजी भी थी मगर जाने किन फाईलों में धूल खा रही होगी.

अच्छा चिन्तन.

ashish ने कहा…

मै श्री समीर लाल जी पुर्णतः सहमत हूँ . सबसे पहले जान बचायी जानी चाहिए.

36solutions ने कहा…

सहमत.

आपको रक्षाबंधन पर्व की हार्दिक शुभकामनांए.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सार्थक चिंतन ..समीर जी का सुझाव अच्छा और सही दिशा दिखाता लगा ..

राज भाटिय़ा ने कहा…

ईमेर्जेंसी मै तो इलाज फ़टा फ़ट करना चाहिये, लेकिन पता नही किस ने देशी दारू पी कर यह कानून बना दिया कि पहले जल्ल्दो के पास जा कर पुलिस रिपोर्ट लिखवाओ, मेरा खुद का ऎकंसी डॆंड हुआ था भारत मै पिछले साल, लोगो ने तो बहुत मदद की लेकिन ढाई घंटॆ तक ना पुलिस ओर ना ही ऎम्बुलेंस ही आई, वो तो किस्मत अच्छी थी कोई चोट वोट नही आई.... हम बात बात मै इन गोरो की नकल करते है तो इस बात मै भी हमे गोरो की नकल करनी चाहिये, एकंसीडॆंट होते ही सब से पहले डाकटर एमबुलेंस के साथ पहुचेगा, अगर खतरा है तो पांच मिंट मे हेलीकापटर पहुच जायेगा, सब से पहले इलाज होगा, फ़िर पुलिस पुछ ताछ करती रहे,
आप को राखी की बधाई और शुभ कामनाएं.

शब्दकार-डॉo कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

आपने उस विषय को उठाया है जिसे हम हर दूसरे दिन अपने आसपास होते देख रहे हैं. कानून आदमी की सुरक्षा के लिए बनाया गया था पर.......
पिछले कुछ सालों पूर्व उरई में एक घटना घटी जहाँ सड़क हादसे में मदद करने वाले को पुलिस ने पकड़ कर उसी पर केस दर्ज कर दिया वो तो गनीमत है की कुछ लोगों के हस्तक्षेप करने से वो बच पाया.
इसी तरह की घटनाएं लोगों को मदद से दूर कर रही हैं.

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

समीर जी,
आपका कथन और सलाह बिल्कुल उचित है और आवश्यक भी, लेकिन ये भारत है यहाँ अगर वेतन बढ़वाने हों तो हड़ताल हो जाएगी और ऐसे कामों के लिए कोईनहीं sunta
, जब कोई अपना मरेगा तब समझ आएगी कि ये क्या होता है? हम तो इस बारे में आपकी ही तरह पत्र लिखने कि मुहिम उठा रहे हैं और हर स्तर पर प्रयास करने कि ठानी है शायद अगली पीढ़ी के ज़माने में ये सुविधा प्राप्त होजाये.

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

आप सभी को रक्षाबंधन कि मेरी शुभकामनाएं.
राज जी,
हम विदेशों कि नक़ल करना तो जानते हैं लेकिन उन विषयों पर जिनका जीवन में उतना सार्थक उपयोग नहीं है. सार्थक पहलुओं पर सोचने के लिए हमारे पास वक्त नहीं है. अगर चुनाव होंगे तो मंदिर या मस्जिद बनने लगेगी , सांसदों को खुश करने के लिए वेतन भत्ते बढ़ेंगे . आम आदमी मरता है तो मर जाए उनकी कुर्सी सलामत रहनी चाहिए. यहाँ राजनीतिक नेता जीवित इंसां की जिन्दगी सलामती के लिए कुछ नहीं कर सकते हैं, हाँ मरे हुओं के बुत बना कर उन्हें अमर करने में करोड़ों खर्च कर सकते हैं.
--

राजभाषा हिंदी ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
*** भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है! उपयोगी सामग्री।

Mithilesh dubey ने कहा…

समीर जी से सहमत,.... यहाँ जरुरत होती है ,मानवता की ।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

Sameer ji ka sujhaav bahut uttam hai ... vaise ilaaj to turant hona hi chaahiye ...

vijay kumar sappatti ने कहा…

AAPNE BAHUT HI JWALANT VISHAY PAR APNI BAAT KAHI HAI .. LEKH PADHKAR BAHUT ACCHA LAGA ..

SAMEER JI SE SAHMAT HON.

VIJAY
आपसे निवेदन है की आप मेरी नयी कविता " मोरे सजनवा" जरुर पढ़े और अपनी अमूल्य राय देवे...
http://poemsofvijay.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html

SATYA ने कहा…

सार्थक चिंतन,
मै पुर्णतः सहमत हूँ .

तिलक राज कपूर ने कहा…

समीर जी ने कितनी सही बात कही। अरे भाई प्रथम सूचना ही तो देनी है ना, क्‍या जरूरी कि यह थाने को दी जाये। वैसे इस विषय में इतनी जटिलता है नहीं जितनी समझी जाती है। अस्‍पताल एफआइआर के अभाव में इलाज करने से मना नहीं कर सकता है। जहॉं तक घायल को पहुँचाने का प्रश्‍न है, पहुँचाने वाले के लिये बंधनकारी नहीं है कि वह इस विषय में बयान दे, आवश्‍यकता तत्‍संबंधी कानून के सही रूप को प्रचारित करने की है।

Urmi ने कहा…

आपको एवं आपके परिवार को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें !
बहुत बढ़िया ! उम्दा प्रस्तुती!

Mahak ने कहा…

क़ानून अपने स्थान पर सही है लेकिन ये कैसा कानून ki मरते हुए की सहायता करने में भी परेशान किया जाय.

आपसे पूर्णतः सहमत हूँ

महक

Mahak ने कहा…

@रेखा जी

मैं आपको हम सबके साझा ब्लॉग का member और follower बनने के लिए सादर आमंत्रित करता हूँ, आप जैसे लोगों की इस ब्लॉग को नितांत आवश्यकता है

http://blog-parliament.blogspot.com/

कृपया इस ब्लॉग का member व् follower बनने से पहले इस ब्लॉग की सबसे पहली पोस्ट को ज़रूर पढ़ें

धन्यवाद

महक

रंजना ने कहा…

बिलकुल सही कहा आपने....मुझे भी यह बात बड़ा क्षुब्ध करती है...
लेकिन ये नियम क़ानून केवल आम आदमी के लिए है...कभी आपने हमने सुना है कि कोई नेता या रसूख वाला आदमी इस तरह के दुर्घटना में घायल हुआ और उसे ऍफ़ आई आर के लिए इन्तजार करना पड़ा हो...