वह मेरे पास मेरे काउंसलर होने के नाते सलाह लेने आया था. प्रथम श्रेणी अधिकारी था लेकिन उसकी सोच का कहीं भी उसके पद और जिम्मेदारियों के साथ मेल नहीं खा रहा था. उससे बात करने पर और उसकी समस्या सुनने पर उसको सलाह देने के स्थान पर मेरी इच्छा हो रही थी कि मैं उसको धक्के मार कर निकाल दूं, लेकिन अपने काम के अनुरुप मुझे संयम और धैर्य से काम लेना था और इस काम के लिए शायद मेरा जमीर अनुमति नहीं दे रहा था.
बकौल उसके - मैं अमुक स्थान पर प्रथम श्रेणी अधिकारी हूँ. मेरे दो बेटियाँ हैं और मेरी पत्नी की उम्र ३५ वर्ष है. वह बहुत समझदार और उच्च शिक्षित है. मेरी दोनों बेटियाँ सिजेरियन हुई हैं. मैं अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता हूँ और उसका दिल नहीं दुखाना चाहता. वह अगले गर्भ के लिए तैयार तो है लेकिन गर्भ परिक्षण से बिल्कुल भी सहमत नहीं है. अगर मेरे एक बेटी और हो गयी तो मेरे घर वाले मेरी दूसरी शादी करवा देंगे.
"दूसरा विवाह किस लिए?" मुझे सब समझ आ चुका था लेकिन मैं उससे ही सुनना चाहती थी.
"मेरे माँ बाप चाहते हैं कि वंश का नाम चलने के लिए एक बेटा तो होना ही चाहिए."
"इसके लिए आप दूसरा विवाह करेंगे, आपको पता है कि आप सरकारी नौकरी करते हैं और जो आपको इस बात अनुमति नहीं देगी."
"क्या ये जरूरी है की दोसरे विवाह के बाद आपको बेटा मिल ही जाएगा?" मैं उससे जानना चाहती थी की इसकी सोच कहाँ तक जाती है?
"क्या उसको भी लड़कियाँ ही होती रहेंगी?"
"माँ लीजिये, तब आप क्या करेंगे?"
"मैं दूसरी शादी नहीं करना चाहता. तभी तो मैं चाहता हूँ कि सरोगेट मदर के जरिये बेटा हो जाए."
"क्या बेटा बहुत जरूरी है?"
"हाँ, इतनी जमीन जायदाद है - सब कुनबे वालों को देनी पड़ेगी."
"और ये जो आपकी बेटियां है?"
"बेटियां अपने अपने घर चली जाएँगी, घर की जायदाद दूसरों को तो नहीं दे दूंगा."
"मतलब? दूसरा कौन है? आपकी बेटियां आपकी संतान नहीं हैं?"
"वो बात नहीं - हम ठाकुरों में वंश का नाम बेटे से ही चलता है और दामाद तो दूसरे का बेटा होता तो मेरा नाम कैसे चलेगा?"
"फिर आप बेटे के लिए कुछ भी करेंगे?"
"हाँ, दो चार लाख रुपये खर्च भी हो जाए तो कोई बात नहीं." उसने अपनी मंशा कि हद जाहिर कर दी थी.
"आप किसी अनाथालय से बच्चा गोद ले सकते हैं."
"कैसी सलाह दे रही हैं? पता नहीं किसका खून हो और किस जात का होगा?"
"तब मेरे पास आप जैसो के लिए कोई सलाह है ही नहीं. आप जा सकते हैं."
मैं उसकी दलीलों से झुंझला गयी थी. वह किसी गाँव के परिवेश से जुड़ा था. जिससे शादी हुई वह Ph . D थी और शहरी परिवेश में पली थी. घर वालो ने लड़के कि नौकरी देखी और कुछ जानने की जरूरत नहीं समझी. किसी की सोच की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि शिक्षा और परिवेश उसके आगे बौना हो जाता है. ये उदहारण मैंने कोई नया नहीं देखा था लेकिन उच्च पदस्थ लोग भी ऐसा सोच सकते हैं ये पहली बार देखा था. सिर्फ वंश का नाम चलाने के लिए उसे सरोगेसी या दूसरा विवाह स्वीकार्य था. लेकिन बेटा जरूर होना चाहिए. मुझे तरस आता है कि ये आज की पीढ़ी है जो वंश के नाम पर बेटे होने के पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं? कब इनको पता चलेगा कि वंश बेटे या बेटियों से नहीं चलता है. अपने ही कर्मों से चलता है.
अगर आपके पास बहुत दौलत है तो आप अपने नाम से स्कूल, मंदिर या ट्रस्ट बनवा दीजिये. सदियों तक ये आपके नाम को जीवित रखेंगे. बेटे ऐसा न हो कि इस दौलत के मद में आपका नाम रोशन करने के स्थान पर कलंकित ही न कर दें. मेरी तो यही सलाह है कि वंश का नाम न बेटे चलाते हैं और न ही बेटियां. आपके अपने सत्कर्म ही आपको जीवित रखेंगे. अपनी सोच बदलिए और यथार्थ के साथ जुड़िये.
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
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11 टिप्पणियां:
रेखा दी,
'हरिवंश राय बच्चन' के द्वितीय एवं कनिष्ठ पुत्र और 'अमिताभ बच्चन' के छोटे भाई 'अजिताभ बच्चन' की तीन पुत्रियाँ हैं और उसके बाद एक बेटा है. अब आप बताइए तीन पुत्रियों के बाद भी बेटे की चाह....उस परिवार में??.....कैसी सोच रही होगी....आप खुद कयास लगा लें.
कादम्बनी में पढ़ा कुछ याद आ गया. दीपावली के अवसर कई लोगों से तीन सवाल किए गए थे की अगर लक्ष्मी जी तीन वर मांगने को कहें तो आप क्या मांगेंगे?
हरिवंश राय जी का उत्तर था कि "मेरे छोटे बेटे की तीन बेटियाँ हैं, इस से मेरे परिवार का संतुलन गड़बड़ा गया है. मैं लक्ष्मी जी से तीन पुत्र मांगूंगा उसके लिए "
चाहे यह बात उन्होंने मजाक में कही हो पर क्यूँ कही???
उफ्फ्फ्फ्फ्फ्फ़ थक गई हूँ मैं ऐसे किस्से सुनसुन कर ..कब बदलेगी ये मानसिकता .
अभी कल ही एक मित्र कह रहे थे कि बदल रहा है समय धीरे धीरे. पेपर में रोज ही एक किस्सा बहादुरी का पढ़ने को मिल जाता है ..मैंने उनसे कहा ..कृपया अगली बार कुछ ऐसा पढ़े तो मुझे भेज दें ..कुछ तो सुकून आये दिल को..
यही तो मुश्किल है कि कोई समझना नही चाहता फिर कैसे आप सोच को बदलेंगे क्यूँकि अगर समझना चाहता तो क्या उसने किताबों मे नही पढा जो इतना उच्च अधिकारी हो तो उसकी शिक्षा भी उच्च रही होगी फिर भी संस्कारों मे बैठी सोच आज भी शिक्षा पर भारी है तो कैसे कह सकते हैं कि शिक्षा बदलाव लाती है अगर ऐसा होता तो वो ऐसा सोचने की कोशिश भी ना करता बल्कि जो लोग उसे ऐसा करने के लिये मजबूर कर रहे थे उन्हे भी समझाने की कोशिश करता ………………आजकल कहना आसान है बदलव आ रहा है मगर अगर देखा जाये तो आज भी हमारी मानसिकता उन्ही रूढियो मे जकडी है फिर हम कैसे कह सकते हैं कि बदलाव की ओर अग्रसर हैं…………जहां तक बेटे से हि वंश आगे बढेगा या नाम होगा तो उसका आपने बहुत ही अच्छा उपाय बताया है मगर ये उपाय आज सब लोगो तक पहुँचना चाहिये और सबको उसकी महत्ता समझ आनी चाहिये तभी बदलाव की ओर कदम बढा ।
जीवित रहते तो हमे पता नहीं होता की अगले पल क्या होने वाला है ?और मरने के बाद वंश चलाने की परम्परा वाली सोच इन्सान को कहाँ ले जायगी ?१२५करोड़ की आबादी वाले देश में किसका वंश ,कैसा वंश ?
आपके आलेख से लगता है शिक्षा भी ऐसी सोच को परिवर्तित करने में नाकामयाब रही है ||बहुत पहले परिवार नियोजन की परम्परा नहीं थी कुछ प्रदेशो में जो भी बच्चा होता लड़का लड़की स्वीकार कर लिया जाता था |जब से परिवार नियोजन के साधन ,भ्रूण लिंग परीक्षण (भले ही प्रतिबंधित हो )करवाना इन्चीजो ने लडके और लडकी संतान के रूप में हो अधिक महत्व लड़का होने को ही दे दिया है याने जो सुविधा वरदान होनी थी वो अभिशाप बनती जा रही है और शिक्षा अशिक्षा का कही कोई उपयोग और नुकसान नहीं है ?रश्मिजी ने जो उदाहरन दिया है क्या कम है ये साबित करने के लिए |
गंभीर समस्या है. हमारे एक भाई की दो लडकियां है. आगे बंद. एक दूसरे भाई के दो लड़के हैं आगे बंद. समझौता कर लिया.
आज भी लोग बेटे की चाह के पीछे क्या नहीं कर देते.....जबकि बेटियां मन से जुडी होती हैं....जब पढ़े लिखों के यह हाल हैं तो अनपढों को क्या कहेंगे?
रही वंश की बात तो कितनी पीढ़ी के नाम याद होते हैं? ज़रा उन महाशय से पूछना था...आज के बच्चों को तो अपने दादाजी का नाम भी याद रह जाये तो बहुत है...
सार्थक लेख ..
पढ़े लिखों की ऐसी बुद्धि पर तरस खाने के अतिरिक्त किया भी क्या जा सकता है ...
मैं तो अब तक भी लोगों से ऐसे आशीर्वाद पाती रही हूँ कि भगवान् एक बेटा इसे दे दे..लेकिन मैं फिर भी यह कहूँगी कि जमाना बदल रहा है ..धीरे -धीरे ही सही ..
कई रिश्तेदारों को भूर्ण हत्या करने से तो नहीं रोक पायी मगर यह समझा पाने में कामयाब हो चुकी हूँ कि वे मेरे लिए पुत्र का आशीर्वाद देने की बजाय मेरे बेटियों के सुरक्षित और यशस्वी भविष्य की शुभकामनायें दे... और मेरे आसपास अपने जैसी ही बहुत सी महिलाओं को देख रही हूँ ... !
अगर आपके पास बहुत दौलत है तो आप अपने नाम से स्कूल, मंदिर या ट्रस्ट बनवा दीजिये. सदियों तक ये आपके नाम को जीवित रखेंगे. बेटे ऐसा न हो कि इस दौलत के मद में आपका नाम रोशन करने के स्थान पर कलंकित ही न कर दें. मेरी तो यही सलाह है कि वंश का नाम न बेटे चलाते हैं और न ही बेटियां. आपके अपने सत्कर्म ही आपको जीवित रखेंगे. अपनी सोच बदलिए और यथार्थ के साथ जुड़िये.
बहुत सुन्दर और उचित बात कह डाली ,ये लालसा तो मिटेगी नही चाहे डीग्री कितनी हासिल कर ले .सुन्दर रचना .
isa maansikata par aayi tippani padh kar lag raha hai ki sirph ek PN Subramanian ji ke alava koi bhi male blogger padhne ki jahamat sirph shirshak dekh kar hi nahin utha paya ya phir isa vishay ko samsaamayik na maan kar ignore kar diya.
jo bhi ho, shayad ye vansh vaad ki chah abhi unamen ho skata hai ki shesh ho, jisase comment nahin kar sake.
निश्चित रूप से मैं सहमत हूँ आपकी बातों से आंटी। बेटियों का महत्व उन दंपत्तियों से पूछिए जो कभी माँ-बाप नहीं बन पाए। ईश्वर से हाथ जोड़कर माँगते हैं कि बेटी ही दे दो पर कुछ तो दो।
यह वंशावली कहीं न कहीं तो खत्म होना ही है कि आपके यहाँ बेटा हुआ बेटे के यहाँ न हो पाए। मेरी पहली बेटी थी तो मैं गाना गाता था मेरा नाम करेगी रौशन जग में मेरी राजदुलारी।
सांई बाबा की कृपा से फिर वाइफ प्रेगनेंट हुई। अस्पताल जाते समय मैंने आँखें बंद की। सांई बाबा ने कहा फिर बेटी हुई तो मुझसे शिकायत तो नहीं करोगे, मैंने सहर्ष आत्मा से कबूल किया। बिल्कुल नहीं बाबा। जो देंगे खुले हाथ से आपका प्रसाद समझकर लूँगा। बाबा ने बेटा दिया और मेरा मानना है बेटियों के माँ-बाप के चेहरे ज्यादा खिले हुए दिखते हैं।
विशाल,
तुम्हारे ही मत को मैं माननेवाली हूँ और बेटियाँ भी मन बाप के लिए उतनी प्रिय होनी चाहिए. वंश तो हमारे कृत्यों से चलता है.
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