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बुधवार, 6 मई 2015

बोध कथा का असर !

                    मेरी काम वाली छुट्टी पर गयी तो एक दूसरी को अपनी जगह काम करने के लिए रखवा गयी। वह उसकी कोई रिश्तेदार थी. एक दिन सुबह आकर वह मुझसे बोली - 'दीदी आपके सामने वाले बड़े अच्छे बाबूजी है , मैं रोज गाय को सब्जी के छिलके और रोटी खिलाते हुए देखती हूँ.'
                   उसकी बात सुनकर मैं चुप  रह गयी क्योंकि मैं यहाँ पिछले २५ साल से रह रही हूँ और उस परिवार से हमारे औपचारिक सम्बन्ध भी हैं. लेकिन जिसके बारे में वो बात कर रही थी उनको मैं बहुत अच्छे से जानती हूँ. उनके माता-पिता से भी मैं मिली थी (दोनों ही नहीं रहे ).मैं किसी की आलोचना तो नहीं करती हूँ लेकिन आस पास रहने से उनके घर की आवाजें मेरे कमरे तक साफ साफ सुनाई देती थीं। माता पिता को एक स्टोर रूम जैसे कमरे में रखा हुआ था। वहीँ पर खाना पीना और रहना। सबके खाने के बाद खाना दिया जाता था क्योंकि खाना बनाते ही सबसे पहले पति और बच्चों को देती फिर बाद में उन बुजुर्गों को। ऐसा नहीं कि वे उन पर आश्रित हों , वे पेंशन पाते थे और उनकी बहूरानी उनसे खाने पीने के लिए बाकायदे पैसे लेती रही हैं। 
           एक बार मैं उनके यहाँ मौजूद थी शाम का समय था अचानक बिजली चली गयी , उनके कमरे में इन्वर्टर से रौशनी और पंखा चलता रहा लेकिन सामने उनके कमरे में अँधेरा हो चूका था। वे उठ कर चल नहीं सकती थीं। अधिकतर उनके कमरे का सामने का दरवाजा बंद करके ही रखा जाता था, पिछला दरवाजा, जो आँगन की और खुलता था, खुला रखा जाता था । माँ ने कमरे से चिल्लाना शुरू कर दिया -`अरे मोमबत्ती ही जला दो. ' 
'क्यों चिल्ला रही हो ? अभी आ जायेगी , कौन सी पढाई करनी है ?' उनकी पत्नी वहीँ से बैठे बैठे तेज आवाज में बोलीं. 
           मेरी समझ आ गया था कि  माताजी के कमरे में इन्वर्टर का कनेक्शन नहीं है। समय के साथ माताजी भी गुजर गयीं. वह खुद केंद्रीय सेवा में थे रिटायर हो गए। अब बहुत पूजापाठ करने लगे हैं। इधर एक दिन अख़बार में एक बोध कथा प्रकाशित हुई. जिसमे बताया गया था कि  कैसे एक पापी को नरक से स्वर्ग भेज दिया गया था क्योंकि लाख पापों के बाद भी वह नियमित गाय को रोटी दिया करता था। उसके बाद से वह यदा कदा गाय को सब्जी के छिलके या फिर रोटी आदि खिलाते हुए नजर आ जाते थे। 
                        लेकिन मैंने उससे कुछ नहीं कहा क्योंकि बोध कथा का असर तो हुआ लेकिन यही पहले हो जाता तो माता पिता की दुर्दशा न होती।

8 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

ये बोधकथा का असर नहीं डर है बाकी कर्मों का फल तो भुगतना ही पड़ेगा ये भी उन्हें पता होना चाहिये ऐसा करने से कर्मफल से इंसान मुक्त नहीं होता .

रचना दीक्षित ने कहा…

ये डर ही है पर जीते जागते इन्सान का नहीं एक बोध कथा का ।इन्सान से डरते तो बोध कथा का सहारा न लेना पड़ता

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

ऐसी घटनाएं पढ के कई बार लगता है कि क्या सचमुच इतने निर्दयी लोग भी होते होंगे? वो भी अपने ही माता पिता के लिये? लेकिन जब आप जैसा कोई अपना ही आंखों देखी बात बताते हैं तो अविश्वास की गुन्जाइश कहां रह जाती है,,,

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7 - 5 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1968 में दिया जाएगा
धन्यवाद

कविता रावत ने कहा…

दुःख होता है ऐसे लोगों के बारे में जानकार..देखकर ...क्यों वे समय रहते नहीं जाग पाते हैं .....मैं तो समझती हूँ कि जो अपने माँ बाप का नही, वह कभी किसी का हो नहीं सकता है ...

Sanju ने कहा…

सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
शुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

रश्मि शर्मा ने कहा…

हैं ऐसे लोग इस दुनि‍या में...बहुत बुरा लगता है जानकर कि‍ माता-पि‍ता की सेवा नहीं की...अब सदकर्म करेंगे तो क्‍या फायदा।

Jyoti Dehliwal ने कहा…

जो लोग माता-पिता के साथ ऐसा बर्ताव करते है, ऐसे लोगों पर भी बोध कथाओं का असर होता है! यही तो है बोध कथाओं का जादू!! बढ़िया प्रस्तुति...