जीवन में बेटे अपना फर्ज निभाते है और अपने माता-पिता या फिर अपने पालने वाले की देखभाल करते हैं और हमारे सामाजिक मूल्यों के अंतर्गत यही न्यायसंगत माना जाता है. लेकिन बदलते हुए परिवेश और सामाजिक वातावरण में बेटे इस कार्य को न भी करें तो कोई अचरज की बात नहीं समझी जाती है. माता-पिता अगर सक्षम है तो अपने आप और नहीं हैं तो मेहनत करके अपना जीवनयापन कर ही लेते हैं।
हो सकता कि इस बात पर कोई विश्वास न करे लेकिन ये यथार्थ है - कानपुर में किसी किसी इलाकों में बंदरों का बड़ा आतंक है ऐसे ही इलाके में यहाँ का रीजेंसी अस्पताल है। यहाँ पर एक लंगूर का मालिक सुबह एक लम्बी रस्सी के साथ अपने लंगूर को बाँध जाता है और उसके डर से बंदरों का आतंक नहीं मचता। अस्पताल उसके मालिक को ८ हजार रुपये मासिक अदा करता है। अगर उस मालिक का कोई बेटा होता तो शायद इस फर्ज को नहीं भी निभाता लेकिन एक बेजुबान कैसे अपने मालिक का जीवनयापन का साधन बना हुआ है।
कहते हैं कि कुछ कर्ज ऐसे होते हैं कि जिन्हें लेने के बाद इस जन्म न सही अगले जन्मों में चुकाना पड़ता है और शायद यही बात इस लंगूर पर लागू होती है।
हो सकता कि इस बात पर कोई विश्वास न करे लेकिन ये यथार्थ है - कानपुर में किसी किसी इलाकों में बंदरों का बड़ा आतंक है ऐसे ही इलाके में यहाँ का रीजेंसी अस्पताल है। यहाँ पर एक लंगूर का मालिक सुबह एक लम्बी रस्सी के साथ अपने लंगूर को बाँध जाता है और उसके डर से बंदरों का आतंक नहीं मचता। अस्पताल उसके मालिक को ८ हजार रुपये मासिक अदा करता है। अगर उस मालिक का कोई बेटा होता तो शायद इस फर्ज को नहीं भी निभाता लेकिन एक बेजुबान कैसे अपने मालिक का जीवनयापन का साधन बना हुआ है।
कहते हैं कि कुछ कर्ज ऐसे होते हैं कि जिन्हें लेने के बाद इस जन्म न सही अगले जन्मों में चुकाना पड़ता है और शायद यही बात इस लंगूर पर लागू होती है।
2 टिप्पणियां:
लंगूर तो क़र्ज़ उतार रह ही पर न जाने आज कल बेटों पर कोई क़र्ज़ क्यों नहीं रहता :)
लंगूर तो क़र्ज़ उतार रह ही पर न जाने आज कल बेटों पर कोई क़र्ज़ क्यों नहीं रहता :)
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