वह मेरी सिर्फ परिचित ही नहीं है बल्कि पारिवारिक मित्रता उसके ससुर और मेरे ससुर के समय से चली आ रही है. वह मुझसे बहुत छोटी है लेकिन रिश्ते से भाभी कहती है . उसके बच्चे अभी पढ़ ही रहे हैं . अचानक पता चला कि उसके पति को एक हॉस्पिटल की लापरवाही के कारण एक संक्रमण हो गया और फिर उसकी जिन्दगी अँगुलियों पर गिनी जाने वाले दिनों की रह गयी . यहाँ से मुंबई तक जो भी जहाँ भी इलाज संभव था उसने करवाया लेकिन जब जिन्दगी की घड़ियाँ ख़त्म हो जाती है तो फिर ईश्वर नहीं देखता कि पीछे क्या होगा?
वही हुआ जो होना था पिछले हफ्ते वह नहीं रहा . उनके घर के और सदस्य भी मेरे परिचितों में है . इसके बाद हुआ प्रपंचों का सिलसिला . झूटी संवेदना दिखाती हुई उनकी रिश्तेदार रोज वहां जाती रही और फिर घर पर उसकी आलोचना . उसने पति के न रहने पर श्रृंगार भी नहीं उतारा (जो एक हिन्दू धर्म के एक दर्दनाक रस्म पूरी करवाई जाती है ) . उसकी बहन कह रही थी कि ये न मैं बर्दास्त कर हूँ और न वह खुद . बस जो पहना था उतार कर रख दिया और दूसरा पहना दिया । ये तो मैं इतने वर्षों में औरतों को करते हुए देख रही हूँ , इसमें उम्र की क्या बात है? अगर पति नहीं रहा तो विधवा तो कहलाएगी ही। इंसान की आत्मा घर वालों के पास भटकती रहती है.
मुझे सुनकर बहुत गुस्सा आया लेकिन वो मुझसे बहुत बड़ी हैं और मैं उन्हें इस विषय में फटकार तो नहीं सकती थी हाँ मैंने उन्हें समझाते हुए दबी जुबान से कहा कि उसकी जिन्दगी में इतनी बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई है और उसको हम सहारा न दे सकें तो मानसिक तौर पर प्रताड़ना तो न दें . अब विधवा के लिबास में उसको आप देख पाएंगी जो आपकी बहू जैसी है . ये सब पुरातन पंथी छोडें और उसको मानसिक संबल दीजिये। वो मुझसे ये सब इसलिए कह रही थीं कि वह मेरे बहुत करीब थी . बहू उनके परिवार की थी, लेकिन परिवार की हो या बच्चों की सारी बातें वह मुझसे डिस्कस कर लेती थी और सलाह भी मान जाती है .
ये मुझे झकझोर गयी कि अपने बहुत अपने कहलाने वाले ही अपनी बहू और बेटी से आज भी ऐसे कर सकते हैं . ये तो घरेलू महिला की बात है , अच्छी पढ़ी और कामकाजी महिलायें अगर विधवा को अच्छी साड़ी पहने देख लें तो कुछ न कुछ कमेन्ट कर ही देतीं हैं . ये हमारी मानसिकता अपने ही के वर्ग के लिये.
वही हुआ जो होना था पिछले हफ्ते वह नहीं रहा . उनके घर के और सदस्य भी मेरे परिचितों में है . इसके बाद हुआ प्रपंचों का सिलसिला . झूटी संवेदना दिखाती हुई उनकी रिश्तेदार रोज वहां जाती रही और फिर घर पर उसकी आलोचना . उसने पति के न रहने पर श्रृंगार भी नहीं उतारा (जो एक हिन्दू धर्म के एक दर्दनाक रस्म पूरी करवाई जाती है ) . उसकी बहन कह रही थी कि ये न मैं बर्दास्त कर हूँ और न वह खुद . बस जो पहना था उतार कर रख दिया और दूसरा पहना दिया । ये तो मैं इतने वर्षों में औरतों को करते हुए देख रही हूँ , इसमें उम्र की क्या बात है? अगर पति नहीं रहा तो विधवा तो कहलाएगी ही। इंसान की आत्मा घर वालों के पास भटकती रहती है.
मुझे सुनकर बहुत गुस्सा आया लेकिन वो मुझसे बहुत बड़ी हैं और मैं उन्हें इस विषय में फटकार तो नहीं सकती थी हाँ मैंने उन्हें समझाते हुए दबी जुबान से कहा कि उसकी जिन्दगी में इतनी बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई है और उसको हम सहारा न दे सकें तो मानसिक तौर पर प्रताड़ना तो न दें . अब विधवा के लिबास में उसको आप देख पाएंगी जो आपकी बहू जैसी है . ये सब पुरातन पंथी छोडें और उसको मानसिक संबल दीजिये। वो मुझसे ये सब इसलिए कह रही थीं कि वह मेरे बहुत करीब थी . बहू उनके परिवार की थी, लेकिन परिवार की हो या बच्चों की सारी बातें वह मुझसे डिस्कस कर लेती थी और सलाह भी मान जाती है .
ये मुझे झकझोर गयी कि अपने बहुत अपने कहलाने वाले ही अपनी बहू और बेटी से आज भी ऐसे कर सकते हैं . ये तो घरेलू महिला की बात है , अच्छी पढ़ी और कामकाजी महिलायें अगर विधवा को अच्छी साड़ी पहने देख लें तो कुछ न कुछ कमेन्ट कर ही देतीं हैं . ये हमारी मानसिकता अपने ही के वर्ग के लिये.
14 टिप्पणियां:
ham aaj bhi pichhre hue hain, aur hamari mansikta kahan badal pa rahi....
रेखा जी दुखती रग दबा दी आपने :(.कभी मुझे कोई एक हक दे तो सबसे पहले मैं यही प्रथा बदलूं.
सच ही हम अभी तक पुरानी मानसिकता लिए चल रहे हैं ... इसे बदलना ज़रूरी है ।
इस मानसिकता को बदलना ही तो सबसे मुश्किल काम है ... ओर इसका शिकार ज्यादार महिलाए ही हैं ...
बदलाव इसी तरह आते हैं हमारे पडोस मे अभि दो साल पहले एक के पति के जाने के बाद घरवालों ने उसके श्रृंगार की कोई चीज़ नही उतरवाई बस एक माँग नही भरती और उसकी है भी छोटी सी उम्र ………आज ऐसी सोच की ही जरूरत है और ये हम पर है कि हम उसे कैसे अंजाम देते हैं।
इस मानसिकता बदलना वाकई अब बहुत ज़रूरी है... समझ नहीं आता लोग कब तक लकीर पीटते रहेंगे। सच ही कहा आपने औरत ही औरत की दुश्मन होती है। इसलिए आज के युग में भी सफलता की ऊंचाइयों को छुने वाली औरत भी किसी विधवा को एक आम औरत के रंगीन लिबास या श्रिंगार में देखले तो बिना टिप्पणी करे रह नहीं सकती।
बहुत दुखद है....
मुझे तो कतई मंज़ूर नहीं...घुटन होती है सोच कर...
दी मैंने अभी अभी अपने पापा को खोया है..ऐसी मानसिकता से होने वाले कष्ट समझ सकती हूँ.
:-(
सादर
अनु
विधवा होने के बाद इस प्रकार निर्ममता पूर्वक वंचित किया जाना क्रूरता है.लेकिन अब स्त्रियाँ भी इस विषय में विचारशील हो रही हैं. मैने स्वयं अपने परिवार में और अपनी मित्रों को इन स्थितियों से बचाया है और उन्हें प्रेरित किया कि किसी की दया का पात्र बनने से अच्छा है ईर्ष्या का पात्र बनना.अपनी दृढता और क्षमता दिखाने का समय यही है .
.एक एक बात सही कही है आपने जिम्मेदारी से न भाग-जाग जनता जाग" .महिला ब्लोगर्स के लिए एक नयी सौगात आज ही जुड़ें WOMAN ABOUT MANजाने संविधान में कैसे है संपत्ति का अधिकार-2
कितनी दुखद स्तिथि है ..सुना है भुक्त भोगी दूसरे की व्यथा को समझ सकता है ....लेकिन फिर जब उन्हें भी वही करता देखते हैं जो उनके साथ होता रहा ...तो बड़ी वितृष्णा होती है ....और फिर ज़्यादातर औरतें ही इस प्रपंच का हिस्सा होती हैं....पुरुष वर्ग इसमें कम ही हिस्सा लेते हैं...दुःख होता है देखकर
अनु , सरस जी और और प्रतिभा जी ,
अपने में सिर्फ अपनी सासू जी को देखा था , उनकी उम्र उस समय ७५ वर्ष थी . कुछ बोलूँ तो और बहुत पढ़ी लिखी बनती हैं का जुमला . लोगों ने कहा की आज उनका मुंह नहीं देखना . खाना देने भी तुम मत जाना . मैंने अपने मन का किया और खाना देने उस कमरे में मैं ही गयी . सोचा देखूँगी क्या होता है? कुछ भी तो नहीं हुआ .
पापा नहीं रहे तो माँ की साड़ियाँ पहनने को भाभी के घर वालों ने उन्हें मना किया होगा . बोली इनकी ये साड़ियाँ क्या होंगी ? मैंने कहा कि मैं पहनूंगी और मैं लेकर आई और पहना . ये पूर्वाग्रह जब हम तोड़ेंगे और लोगों को समझायेंगे तभी होगा उनका इनके प्रति दृष्टिकोण .
नारी ही नारी की दुश्मन...!
दीदी ...विधवा को लेकर हम लोगों की ये ही मानसिकता तो ...हम सबको परेशां करती है
उम्र कोई भी रही हो ...उसके विधवा मानना आसन है पर एक इंसान के रूप में जानना उतना ही मुश्किल क्यों है ?
ये बात आज तक समझ नहीं आई
ऐसी मानसिकता के रोगी हर घर के आसपास मिल ही जाते हैं.
भगवान उन्हें सदबुधि दे.
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