कहीं पढ़ा था इसको और इसके यथार्थ पक्ष को देखा भी है और समझा भी है। कुछ सन्देश देती है ये कथा सो इसको यथार्थ की सौवीं रचना के रूप में आपके नजर कर रही हूँ।
एक क्रोधी व्यक्ति एक संत की शरण में आया और कहने लगा कि मुझे बहुत क्रोध आता है और पता नहीं मैं किसको क्या क्या कह जाता हूँ?मुझको इससे निजात चाहिए।
साधू ने कहा कि क्रोध पर नियंत्रण इंसान खुद ही कर सकता है ऐसा कोई मंत्र नहीं है कि जिससे आप इससे मुक्त हो जाएँ फिर भी आप को एक बात बताता हूँ जिससे अगर आप प्रयास करें तो शायद कुछ अच्छा प्रतिफल मिल सके।
"आप बतलाइये मैं वो करूंगा जो आप बताएँगे।" क्रोधी व्यक्ति ने आतुर हो पूछा।
"तुम्हें जब क्रोध आये तो तुम दीवार पर एक कील गाड़ दिया करना , जितनी बार भी क्रोध आये उतनी ही कीलें।" साधू ने उसको रास्ता बताया।
"जैसी आपकी आज्ञा " कह कर क्रोधी व्यक्ति अपने घर लौट आया।
जैसा साधू ने कहा था उसने वैसे ही वैसे करना आरम्भ कर दिया। पहले दिन उसको दिन में १५ बार क्रोध आया और उसने १५ कीलें गाड़ दीं। उसने दस दिन तक ये काम किया और धीरे धीरे कीलों की संख्या अपने आप ही काम होने लगी। एक दिन वह भी आया जब कि उसको क्रोध बिल्कुल भी नहीं आया। वह उस दिन साधू के पास गया और हाथ जोड़ कर बोला , 'स्वामी जी कल मुझे क्रोध बिल्कुल भी नहीं आया और मैंने दीवार पर एक भी कील नहीं गाड़ी।"
संत ने उससे कहा कि अब तुम ऐसा करो कि अब जिस दिन तुमको बिल्कुल भी क्रोध न आये तो उसमें से एक कील रोज उखाड़ते जाना। जब सारी कीलें उखड जाएँ तो फिर मेरे पास आना ।
करीब एक महीने में उसने सारी कीलें उखड डाली और फिर आया तो बोला - "स्वामी जी अब मुझे बिल्कुल भी क्रोध नहीं आता है । "
"ये तो ठीक है लेकिन तुम्हारी दीवार पर जो कीलें गाडीं थी उसके निशान मिट गए या नहीं। "
"स्वामी जी निशान कैसे मिट सकते हें? कीलें निकल लीं लेकिन दीवार पर निशान तो रहेंगे ही।"
"हाँ अब सुनों तुम जो दीवार पर निशान देखते हो न, उससे याद करो कि तुमने अपने क्रोध में एक कील गाड़ी और ख़त्म होने पर उखाड़ भी दी लेकिन क्या निशान ख़त्म हुआ ? नहीं, फिर सोचो तुमने क्रोध में कितने लोगों को अपशब्द कहे होंगे, किसी को मारा भी होगा और कितना अपना नुक्सान किया होगा । क्रोध समाप्त होने पर सब भूल गए होगे लेकिन जब एक निर्जीव दीवार तुम्हारे क्रोध के कहर के अपने सीने में निशान की तरह संजोये हुए है फिर कोई इंसान जिसमें आत्मा होती है, कितना आहत किया होगा और फिर भूल गए। उनके कष्ट का अनुमान तुम इसी से लगा सकते हो। वे सजीव प्राणी कभी इसको भूल सकते हें शायद नहीं । कितने शत्रु तुमने अपने पैदा कर लिए होंगे।
इसी लिए कहा जाता है कि आदमी का क्रोध उसका सबसे बड़ा शत्रु होता है। अगर चाहते हो कि तुम्हारा कोई शत्रु न हो तो सबसे पहले अपने क्रोध पर नियंत्रण पाना चाहिए।
शनिवार, 7 अप्रैल 2012
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10 टिप्पणियां:
सुंदर....
बेहद सार्थक कथा......................
१०० वीं पोस्ट की बधाई!!!!
अनंत शुभकामनाएँ.
अनु
बहुत सार्थक और प्रेरक कथा...१००वीं पोस्ट की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें!
अगर चाहते हो कि तुम्हारा कोई शत्रु न हो तो सबसे पहले अपने क्रोध पर नियंत्रण पाना चाहिए।
.....सही कहा सार्थक और विचारणीय पोस्ट....१०० वीं पोस्ट की बधाई व शुभकामनाएँ.....!!!
अगर चाहते हो कि तुम्हारा कोई शत्रु न हो तो सबसे पहले अपने क्रोध पर नियंत्रण पाना चाहिए।
.....सही कहा सार्थक और विचारणीय पोस्ट....१०० वीं पोस्ट की बधाई व शुभकामनाएँ.....!!!
शतक की बधाई इस उम्दा रचना के साथ. अनेक शुभकामनाएँ.
sunder ,prearak rachna ke saath 100th post ke liye badhai evam shubhkamnayen ...!!
सौंवे पोस्ट की बधाई।
विचार प्रेरक है।
शतक की बधाई .... प्रेरक कथा
सौवीं पोस्ट के लिये बहुत बधाई और शुभकामनायें. यथार्थ से परिचय करने का जो अभियान आपने छेडा है उसे ऐसे ही जारी रखना है.
आज का प्रसंग सभी के लिये प्रेरणा दायक है.
बहुत ही सुंदर प्रुस्तुती मेरी तरफ से ढेर सारी सुभकामनाये
मित्रवर,
आप से निवेदन है कि इस पोस्ट को
समय निकाल कर अगर पढ़ पाए तो कृपा होगी
जरुर पढें http://dineshpareek19.blogspot.in/2012/04/blog-post.html पर क्लिक करें ।
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