आज का ही वह मनहूस दिन था जब कि मेरे पापा हमें छोड़ कर अचानक चले गए थे. उन्नीस साल के इस लम्बे अन्तराल में उनकी कमी हमेशा खाली है , लेकिन वे अपने आदर्शों , कृत्यों और बनाये गए प्रतिमानों के साथ आज भी मेरे प्रेरणास्रोत बन कर मेरे साथ साथ चल रहे हैं.
मैं उन दुर्भाग्यशाली बेटियों में से हूँ, जिन्हें अपने पिता के अंतिम दर्शन भी नसीब नहीं हुए. उनके निधन की सूचना तक नहीं मिल सकी समय से. उनका निधन अचानक किडनी फेल होने के कारण हुआ था. उस समय उनकी आयु ६१ वर्ष की ही थी, बहुत से कार्य बाकी थे. मेरी उनसे बहुत दिनों से मुलाकात नहीं हुई थी. मेरे ससुर भी उस समय कैंसर की, अंतिम अवस्था में पड़े थे और मेरे ऊपर ही पूरी तरह से निर्भर थे. भाई साहब ने टेलीग्राम दिया क्योंकि उस समय त्वरित सूचना का यही एक साधन था. जो मुझे आज तक नहीं मिला. फ़ोन उस समय कॉमन न थे और हमारे दोनों ही घरों में फ़ोन नहीं थे. उनके जाने के ४ दिन तक जब मैं नहीं पहुँची तो भाई साहब ने किसी को भेजा की रेखा को खबर नहीं मिली है, मिलती तो वह आ जाती जाकर उसको खबर करो. वह दिन वह क्षण भी मुझे अच्छी तरह से याद है - उस दिन नागपंचमी का दिन था और मेरे ससुर का जन्मदिन भी , मैं उनको खाना खिला रही थी, हम इस बात से वाकिफ थे की हम उनका अंतिम जन्मदिन मना रहे हैं. इतने में मेरी चचेरी बहन आई और बाहर ही मेरे पतिदेव से बोली कि ताऊ जी की तबियत ख़राब है दीदी को लेकर चले जाइए. मेरे कानों में ये शब्द पड़े तो मेरे हाथ से खाने की प्लेट छूट गयी . मुझे पूरा आभास हुआ कि पापा अब है ही नहीं और मैं जोर जोर से रोने लगी. किसी तरह से समझा कर पतिदेव मुझे उसी समय बस से उरई ले गए. रास्ते भर मेरी ख़ामोशी के बाद भी आँखों से आंसूं बंद नहीं थे.
लोग कहते हैं कैसे गंवारों की तरह से रोने लगी लेकिन जब कोई बहुत अपना जाता है तो दिमाग का सारे शरीर से नियंत्रण ख़त्म हो जाता है और हर अंग बेकाबू हो जाता है - आंसू, आवाज और ह्रदय सब कुछ. मेरे इम्तिहान की सीमा यही तक नहीं थी. पतिदेव मुझे छोड़ कर शाम को जब वापस हुए क्योंकि ससुर के लिए उनकी उपस्थिति जरूरी थी. चलते समय कहा - 'देखो एक पिता तो चले ही गए हैं, जो हैं उन्हें तुम्हारी बहुत जरूरत है . उनके बारे में सोचना और परसों कानपुर वापस आ जाना.'
ये उन्हें शब्द कहने में और मुझे सुनने में कितना जो कष्ट हुआ वो सोच से परे था किन्तु समय और हालात का तकाजा यही था. मैं सिर्फ एक दिन माँ के पास रुक कर वापस आ गयी. वह मेरी परीक्षा का समय था. मैं अपनी माँ को छोड़ कर कैसे आई? मेरी माँ उससे भी महान बोली - 'जाओ बेटा अपने ससुर को देखो उनको तुम्हारी ज्यादा जरूरत है.'
और फिर २० अक्तूबर को हमने अपने दूसरे पिता को भी खो दिया. हम दोनों ही एक साथ पित्र शोक का सामना कर रहे थे.
सोमवार, 9 अगस्त 2010
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17 टिप्पणियां:
ये उन्हें शब्द कहने में और मुझे सुनने में कितना जो कष्ट हुआ वो सोच से परे था किन्तु समय और हालात का तकाजा यही था. मैं सिर्फ एक दिन माँ के पास रुक कर वापस आ गयी. वह मेरी परीक्षा का समय था. मैं अपनी माँ को छोड़ कर कैसे आई? मेरी माँ उससे भी महान बोली - 'जाओ बेटा अपने ससुर को देखो उनको तुम्हारी ज्यादा जरूरत है.'
और फिर २० अक्तूबर को हमने अपने दूसरे पिता को भी खो दिया. हम दोनों ही एक साथ पित्र शोक का सामना कर रहे थे.
दिल को छू गयी ये पक्तियां .. ईश्वर भी कभी कभी कितनी परीक्षा लेते हैं !!
भावुक कर देने वाली पोस्ट ..पिताजी को आप पर बहुत गर्व होगा और उनका साया हमेशा आपके पास है .
ह्रदय विदारक वृतांत...क्या कहें...
नीरज
बड़ी पीड़ा दायक परन्तु यथार्थ.
अत्यन्त ही भावुक कर देने वाली घटना आपने चित्रित की है, बड़े ही साहस का कार्य है यह.
पढते हुए मेरी भी आँखें नाम हो गयीं, तो मैं आपकी स्थिति समझ सकता हूँ.
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आप क्या हैं !
यह तो आपके प्रोफाइल की ये पंक्तियाँ पढ़ कर ही समझ गया
"आदर्श और सिद्धांत मुझे सबसे मूल्यवान लगते हैं , इनके साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता है. गलत को सही दिशा का भान कराना मेरी मजबूरी है."
अद्भुत हैं ये पंक्तियाँ, ऐसा लगा कि जैसे मैंने ही लिखा हो.
बहुत बड़ा सच है ये ज़िन्दगी का, जिसे भोगना इन्सान की नियति है. श्रद्धान्जलि.
मै खूद ऎसी स्थितियो से गुजरा हुं, मालुम है कितना दुख होता है.... आप के पिता जी ओर ससुर जी को श्रद्धान्जलि.
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
बहुत संवेदनशील पोस्ट ...कभी कभी एक साथ ही कठिन परिस्थिति से गुज़ारना पड़ता है ...
ये उन्हें शब्द कहने में और मुझे सुनने में कितना जो कष्ट हुआ वो सोच से परे था किन्तु समय और हालात का तकाजा यही था. मैं सिर्फ एक दिन माँ के पास रुक कर वापस आ गयी. वह मेरी परीक्षा का समय था. मैं अपनी माँ को छोड़ कर कैसे आई? मेरी माँ उससे भी महान बोली - 'जाओ बेटा अपने ससुर को देखो उनको तुम्हारी ज्यादा जरूरत है.'
tabhi to kahte hain Naari mahaan hai..shakti swaroopa hai.
aapki aap beeti padh kar meri aankhon se ashrudhara beh nikli hai..mujhe bhi apne mata pita ki yaad aa gayi ..yun to hum sabko bhulaa sakte hain par apno ko kabhi nahi..main smjh sakti hoon mata pita ko khone ka kya dard hota hai.
shabd nahi hai hain kuch kahne ko ..bas aansu hi hain iss waqt.
jab apne khote hain, tab ye nahi dekha jata ki kaise roya jaye.....!
peera dene wala vritant, lekin yahi sach hai........!!
aapke dono papa ko sachchi shraddhanjali......
रेखा जी, संसार की किसी भी बेटी लिए पिता के मज़बूत कंधो के सहारे से बढ़कर कोई सहारा नहीं होता। यह बंधन एक ऐसा शक्ति स्तम्भ है जिससे बेटी को ताउम्र हौसले से जीने का जज्बा मिलता है........... यहाँ तक की पिता के दुनिया छोड़ देने के बाद भी..........ऐसा मुझे लगता है.... और मैं आपके जज़्बात गहराई से समझ सकती हूँ। आँखें नम कर गयी आपकी यह पोस्ट। आपके पिताजी को मेरा भी नमन।
very emotional post..
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आपको बहुत शुभकामना, पढ़कर आँखें नम हो गयी!
ये उन्हें शब्द कहने में और मुझे सुनने में कितना जो कष्ट हुआ वो सोच से परे था किन्तु समय और हालात का तकाजा यही था. मैं सिर्फ एक दिन माँ के पास रुक कर वापस आ गयी. वह मेरी परीक्षा का समय था. मैं अपनी माँ को छोड़ कर कैसे आई? मेरी माँ उससे भी महान बोली - 'जाओ बेटा अपने ससुर को देखो उनको तुम्हारी ज्यादा जरूरत है.'
मां इसी तरह होती है ,अपने दुख से अधिक बच्चो की तकलीफ़ सताती है उसे ,बहुत ही भावुक पल रहे कैसे सम्भाला होगा खुद को इसे बस मह्सूस ही कर सकते है हम .मै भोपाल से कल ही आई हूं ,इस कारण नही आ सकी ,जय हिन्द ,आज़दी की बधाई आपको .
मन बहुत दुखी हो गया,यह सब पढ़कर....कर्त्तव्य के समक्ष आप माँ के साथ दुख में शामिल भी नहीं हो सकीं परन्तु...दिल तो दोनों के पास ही थे तभी माँ ने ससुर जी की परिचर्या का निर्देश दिया...
सच अपूर्णीय क्षति है यह...जिसकी कमी कभी भी पूरी नहीं की जा सकती....और पिता एवं ससुर जी का आस-पास ही जाना सचमुच बहुत दुखदायी होगा,समझ सकती हूँ...
ईश्वर उन दोनों की आत्मा को शांति दे.
हमारी ओर से भी आपके पिताजी को आदरांजलि! उनका किस्सा मंगू की मदद के रूप में आपने बताया ही है। आगे भी उनसे विलक्षण व्यक्तित्व से अवगत होते रहेंगे।
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