सोमवार, 5 अप्रैल 2010
रेल तंत्र में बनाया - अप्रैल फूल !
ये अप्रैल फूल - बच्चे बना लें, मित्र बना लें, या सहकर्मी सब सह्य है क्योंकि थोड़ी देर का होता है और अपनी मूर्खता पर हंसी भी आ जाती है. थोड़ी देर के लिए सभी खुश हो लेते हैं. कभी उनकी बारी होती है और कभी हमारी होती है.
अब की बार सोचा कुछ और हुआ कुछ और - २ अप्रैल को गुड फ्राई डे, फिर शनि और रवि एक छुट्टी की लम्बी श्रृंखला मिल गयी तो सोचा कि ३ दिन बच्चों के साथ गुजार कर आते हैं. १ अप्रैल को ९ बजे घर छोड़ दिया १०:५० कि ट्रेन थी. स्टेशन पहुँचने पर पता चला कि ट्रेन ३ घंटे लेट है. बच्चों के साथ समय गुजारने की जो ललक और ख़ुशी थी. बहुत दिन हो चले थे. मैंने पतिदेव से कहा - "आप घर जाइए, मैं चली जाउंगी. ३ घंटे की तो बात है."
उनको अगले दिन आना था. मैं वेटिंग रूम में बैठ गयी और घोषणा के इन्तजार में थी. काफी देर हो गयी तो आँखें झुकने लगीं, बीच बीच में झपकी भी लेती जा रही थी. एक एक करके सारे यात्री अपनी अपनी ट्रेन के आने पर चले गए और मैं तो जैसे बिन बुलाये मेहमान कि तरह जमी बैठी थी. वह ट्रेन "गया" बिहार से आने वाली थी और "महाबोधि" था नाम. वह लम्बा इन्तजार - पल पल काटना तो मुश्किल हो रहा था. १ बजे पतिदेव का फ़ोन आया कि क्या पोजीशन है? बच्चे अलग बार बार फ़ोन कर रहे थे.
सुबह ५ बजे से फिर फ़ोन आने शुरू होगये.
"कहाँ पहुंची"
मुझे तो आग लगी थी इन रेलवे वालों पर. ३ घंटे लेट ट्रेन अभी तक नहीं आई थी.
"कानपुर सेंट्रल " मैंने बड़े रुआंसे स्वर में कहा.
"स्टेशन आकर वापस ले जाऊं?" पतिदेव ने पूछा.
"नहीं, अब घर छोड़ा है तो बच्चों के पास ही जाऊँगी." पहली अप्रैल का असर अभी रेलवे तंत्र में खत्म नहीं हुआ था.
"मम्मा कहाँ हो?" बच्चे बीच बीच में पूछ रहे थे.
आखिर १० घंटे के इन्तजार के बाद "महाबोधि " का बोध हुआ और मैं उसमें जाकर बैठ गयी इस उम्मीद के साथ कि बहुत लेगी तो ५ बजे तक तो पहुंचा ही देगी.
ट्रेन पर अभी "फर्स्ट अप्रैल" का भूत खत्म नहीं हुआ था - मंथर गति से मस्त हथिनी की तरह से चल रही थी. जहाँ मन होता वही बिगड़ैल घोड़ी की तरह से अड़ जाती. सारी रात बैठी रही, ये सोच कर चली थी कि नाश्ता घर पहुँच कर कर लेंगे. अब ट्रेन में भी कुछ अच्छा न मिला. चावल खाकर पेट की क्षुधा शांत की और फिर दिल्ली पहुँचने का इन्तजार करने लगी.
"कहाँ पहुंची?" का स्वर बीच बीच में सुनाई ही दे जाता था. खीज और झुंझलाहट के मारे बुरा हाल.
ट्रेन कहीं एक घंटे रुक जाती और कहीं तो इससे भी अधिक. ये भी पता नहीं कि ये रुक क्यों जाती है? बगल से दूसरी ट्रेन मुंह चिढाती हुई धड़धडाती हुई निकल जाती . हम बिचारे बैठे बैठे देख रहे थे. कानपुर से दिल्ली का ६ घंटे का सफर आखिर ११ घंटे में पूरा हुआ और हम दिल्ली स्टेशन पर उतर ही गए.
इसमें सबसे बड़ा अप्रैल फूल बनने वाली बात ये थी कि ये ट्रेन जब "गया" से रवाना हो रही थी तब कानपुर में ३ घंटे लेट की घोषणा की जा रही थी और रेल तंत्र इस ट्रेन से जाने वाले लोगों को पूरी तरह से अप्रैल फूल बनने कि तैयारी करके बैठा था. हम बनते रहे और सिर पीटते रहे. यानि कि ये हमारा रेल तंत्र जो कि हमारी ही संपत्ति है सही जानकरी भी नहीं दे सकता है. उससे भी बड़ी मजाक वाली बात ये है कि ४ घंटे बाद जो टिकट वापस करना चाहे तो अब तो तारीख बदल चुकी है ये वापस भी नहीं होगा. चाहे ट्रेन आई हो या नहीं आई हो. अब तो आपको इसी से जाना पड़ेगा. अपनी गलती का ठीकरा भी हमारे ही सिर फोड़ेंगे .
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
5 टिप्पणियां:
आपके इस लेख से सीख मिल गयी है .. हमें पहली अप्रैल को यात्रा नहीं करना चाहिए !!
ये भारतीय रेल है, जिसके लिए हर दिन अप्रैल फूल है...और लोग बेचारे बनने को मजबूर हैं!!!
yaatra april phool ki tarah hi bani rahi ,kamse kam bachcho ka intjaar to poora hua .varna wo bhi kam chintit nahi rahe .sundar sansmaran .
भारतीय रेल तो सचमुच मूर्ख बनाने पर आमादा है. कितना खीझ भरा समय गुज़ारा होगा आपने, समझ सकती हूं, आखिर तो हम भी भुक्तभोगी ही हैं न!
ओह्ह!! अकसर अप्रैल फूल बनने के बाद हंसी आ जाती है पर यहाँ तो कितना गुस्सा आया होगा,सोच सकती हूँ...ट्रेन के इंतज़ार से ज्यादा खीझ और किसी बात पे नहीं हो सकती...और जब ट्रेन रास्ते में रुक जाए तब तो सच मन होता है.,..उतर कर ही चल दें .....पर हम सब ही भुक्तभोगी रह चुके हैं,कभी ना कभी...आपका पूरा एक दिन बर्बाद हो गया...बच्चे अलग परेशान रहें...दुआ करते हैं...ऐसा अप्रैल फूल फिर कभी ना बनाए रेल तंत्र आपको
एक टिप्पणी भेजें