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मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

पहले मेरी माँ है!

आज मेरी माँ ने अंतिम साँस ली, फिर तो सारा घर दौड़ने लगा यह क्या हो गया? वह दादी माँ जिसने हमेशा उसको दुत्कारा था, पास बैठी रोने का नाटक कर रही थी। वह ताई जिसने उसको कभी चैन से रहने नहीं दिया। मेरे सर पर हाथ फिरा रही थी और वह हाथ मुझे हथोडे की तरह लग रहा था। मेरी बुआ तो मुझे लगता है की अब कभी डांटेगी ही नहीं और माँ की सारी चीजें जो कभी उसकी नहीं रहने दी, अब कभी उन पर नजर नहीं डालेगी।
सारे माहौल में गामी नजर आ रही थी और मेरे पिता तो कुर्सी पर मुंह लटकाए बैठे थे, लोग उनको सांत्वना दे रहे थे।
यह वही पिता हैं जिन्होंने मेरी माँ को कभी इज्जत दी ही नहीं, एक नौकरानी की तरह उसको इस्तेमाल करते रहे और कभी उसने अपनी बात करने की कोशिश की तो एक ही जवाब था , तुमसे पहले मेरी माँ है, मेरी भाभी है और मेरी बहन है। तुम बहुत बाद में आई हो और इस लिए अपनी जगह वही रखो जहाँ पर मैं रखता हूँ।
ये शब्द मेरी कानों में हमेशा पिघले हुए शीशे की तरह जाते रहे , जब से समझ आई है दिन में एक या दो बार यह शब्द सुनता ही रहा हूँ। मेरी माँ ने इसको कितना सुना होगा इसका हिसाब मेरे पास नहीं है। वो निर्दोष और निश्छल भाव से सबकी सेवा ही करती रही और उसको क्या मिला? आज इस उम्र में ही अपनी जिन्दगी पूरी करके और मुझे छोड़ कर चल दी।
सब मुझे प्यार करते हैं। इनका अगर बस चलता तो और वे एक नौकरानी की कमी पूरी न कर रही होती तो कब की घर से धक्के मारकर निकाल दी जाती।
सब सामन इकठ्ठा हो चुका है , उनको अब ले जाना है। उनको बढ़िया साड़ी पहने गई और सजाया भी जा रहा है। इतनी सुंदर लगते तो मैंने अपनी माँ को कभी नहीं देखा। कई कई दिन तक बाल बनाने का समय ही नहीं मिलता था। एक की फरमाइश पूरी कर रही है तो दूसरे ने अपनी फरमाइश उछाल दी । जल्दी जल्दी हाथ चला रही है और सबके ताने भी सुन रही है। माँ के घर कुछ किया भी था की बस बैठी ही रही, हरामखोरी की आदत पड़ गई है।
सब लोग उनको उठा कर जाने लगे, मुझे जाना है, यह सोच कर मैं सबके आते ही आगे चल दिया। उनकी चिता सजा रहे थे सब, उस पर लिटा दिया गया । अब सब कहने लगे की पिताजी मुखाग्नि दें। चल दिए अपने फर्ज को पूरा करने लेकिन पहले मेरी माँ हैं न। मुझमें न जाने कहाँ से साहस आ गया और मैं उनकी तरफ बढ़ा और आग से जलती हुई लकडी उससे ले ली,
'अरे यह क्या करते हो? वह तो अब चली गई यह तो सिर्फ मिटटी रह गई है।' बड़े बूढे मुझे समझाने लगे लेकिन मेरी आंखों में अंगारे निकल रहे थे।
'मैंने पिताजी को पीछे करते हुए कहा - 'यह पहले मेरी माँ है और इसको मैं ही भस्म करूंगा। आपकी माँ हमेशा आपके लिए पहले रही है तो आप उसके लिए बचे रहिए।
मैंने सच ही तो कहा है, यह सच मैं बचपन से आज तक सुनता रहा वही तो मैंने दुहराया है और अपनी माँ के आसुंओं और सिसकियों का गवाह में ही तो था। सो उसकी इस पीड़ा के अंत भी मैं ही करूगा। अलविदा मेरी माँ।

7 टिप्‍पणियां:

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

बहुत ही मार्मिक चित्रण है. रिश्तों के बीच पले अविश्‍वास को बहुत ही खूबसूरती से उभारा है. धन्यवाद नारद तीव्र का जो इस ब्लॉग तक पहुँच पाया.

कभी मेरे ब्लॉग "कवितायन" पर आयें और अपनी प्रतिक्रियाओं से उन्नत बनाने में मदद करें

मुकेश कुमार तिवारी

सागर नाहर ने कहा…

बहुत ही मार्मिक रचना से आपने शुरुआत की रेखाजी।
अगर यह सच है तो बहुत ही दुख:द है और कहानी है तो कहानी का इतना बढ़िया चित्रण करने के लिए बधाई स्वीकार करें।
॥दस्तक॥
गीतों की महफिल
तकनीकी दस्तक

bijnior district ने कहा…

बहुत मार्मिक कहानी। बढिया लेख्नन के लिए बधाई

हिन्दीवाणी ने कहा…

इस सुंदर रचना के लिए आपको बधाई। मेरे ब्लॉग पर भी आएं।

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

saagarji,

yah sach aur katu sach hai, kitani mahilaayen isa jindgi ko jee rahi hain. rishton ke saath nyaay na karane vaalon ke liye yah eka laanat hai. har rishte ki apani eka garima aur sima hoti hai. alag mahatva hota hai.

Unknown ने कहा…

आपका चिठ्ठाजगत में हार्दिक स्वागत है, खूब लिखें, हमारी शुभकामनायें आपके साथ हैं… एक अर्ज है कि वर्ड वेरिफ़िकेशन हटा लीजिये, फ़िलहाल हिन्दी में इसकी आवश्यकता नहीं है… धन्यवाद…

Yamini Gaur ने कहा…

bahut achha likha hai........